संपादकीय ;उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी की अनदेखी-अब नहीं सहेगा संघर्ष का अपमान !” अवतार सिंह बिष्ट, विशेष संपादक, शैल ग्लोबल टाइम्स /हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/

Spread the love

उत्तराखंड,जब इतिहास लिखा जाता है, तब उसकी नींव संघर्षों के लहू और तपस्विनी मातृशक्ति की त्यागमयी गाथाओं से रची जाती है। उत्तराखंड राज्य का निर्माण कोई सरकार की भीख नहीं थी, यह हमारे रक्त और बलिदान से सींचा गया एक स्वाभिमान का स्वराज था। लेकिन अफसोस, आज उसी राज्य में सबसे उपेक्षित यदि कोई वर्ग है, तो वह है उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी।

उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों की सरकार ने कर दी है आत्महत्या

उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों के साथ जो व्यवहार वर्तमान सरकार द्वारा किया जा रहा है, वह लोकतंत्र और नैतिकता दोनों के लिए एक करारा तमाचा है। जिन लोगों ने अपने खून-पसीने से पृथक उत्तराखंड राज्य की नींव रखी, आज वही आंदोलनकारी उपेक्षा, अपमान और अवमानना के शिकार हैं। सरकार द्वारा ₹4500 की नाममात्र पेंशन देकर और सुविधाओं के नाम पर खोखले वादे कर, राज्य आंदोलनकारियों की गरिमा और योगदान का मज़ाक उड़ाया जा रहा है।

संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट

राज्य सरकार की संवेदनहीनता इस स्तर तक पहुँच चुकी है कि इसे “आत्महत्या” से कम नहीं कहा जा सकता — नीतियों की, नैतिकता की और उत्तराखंड के सपनों की। कई आंदोलनकारी अब वृद्ध हो चुके हैं, लेकिन उन्हें न तो पर्याप्त पेंशन मिल रही है, न ही स्वास्थ्य सेवाएं और न ही पहचान का सम्मान। सरकार के पास योजनाओं और घोषणाओं का अंबार है, पर राज्य आंदोलनकारियों के लिए केवल उदासीनता और अनदेखी।

यह एक राजनीतिक और नैतिक आत्महत्या है, जिसमें सरकार ने अपने ही इतिहास, मूल्यों और उत्तरदायित्व का गला घोंट दिया है। जनता और युवा पीढ़ी को अब इस सच्चाई को समझते हुए आगे आना होगा, नहीं तो यह उपेक्षा एक दिन पूरे राज्य के भविष्य को निगल जाएगी।

25 साल बाद भी, राज्य आंदोलनकारी की हालत वृद्धावस्था पेंशन पाने वालों से भी बदतर!सरकार ने आंदोलनकारियों को मात्र 4500 रुपये प्रतिमाह पेंशन की “भीख” थमा दी है। वहीं दूसरी ओर यदि कोई व्यक्ति सामान्य है, तो उसे और उसकी पत्नी को प्रत्येक को ₹2000 से अधिक की वृद्धावस्था पेंशन मिल रही है। यानी एक दंपत्ति को कुल ₹4000 मिल रहे हैं, और उन्हें भी तमाम सरकारी सुविधाएं मिल रही हैं जैसे बसों में मुफ्त यात्रा आदि।

लेकिन राज्य आंदोलनकारी? न उनकी पत्नी को वृद्धावस्था पेंशन, न उनके आश्रितों को कोई सरकारी मान्यता। यह कैसा न्याय है?

क्या यही है आंदोलन की वह परिणति जिसमें सैकड़ों ने जान दी, हजारों ने लाठियां खाईं, और आज वे वृद्धावस्था के अंतिम पड़ाव में भी अपमानित होकर जी रहे हैं?

सरकार को चेतावनी: अब और नहीं सहेंगे अपमान!

राज्य निर्माण के 25 वर्षों के बाद भी अगर आंदोलनकारियों को मात्र प्रतीक बनाकर राजनीतिक मंचों पर इस्तेमाल किया जा रहा है, तो यह शर्मनाक है। हम पूछते हैं:

10% आरक्षण का वादा कहां गया?

  • आरक्षण की नौकरियों में मौजूदगी क्यों शून्य है?
  • हाई कोर्ट में लटके मुकदमों का कोई निपटारा क्यों नहीं हो रहा?
  • पत्नी व आश्रितों को कोई पेंशन या सुविधा क्यों नहीं?

यहां तक कि आज का नौकरशाह, संविदा कर्मचारी, आशा कार्यकर्ता और अन्य सभी की वेतन वृद्धि हो रही है। सत्ताधारी नेता करोड़ों की घोषणाएं कर रहे हैं। लेकिन जिनके बल पर यह राज्य बना, वही उपेक्षित!

हमारी एक सूत्रीय मांग:
“राज्य आंदोलनकारियों को ₹25,000 प्रतिमाह पेंशन दी जाए”
और यह केवल चिन्हित आंदोलनकारियों तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि उनके परिवारजनों, दिवंगत आंदोलनकारियों के आश्रितों और उन 5000 से अधिक कार्यकर्ताओं तक पहुँचे जो आज भी पहचान के लिए संघर्ष कर रहे हैं।


2026 से होगा निर्णायक जनांदोलन,यह एक अपील नहीं, एक सीधी चेतावनी है—उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी एवं समस्त संगठन समस्त समूह समस्त मंच समस्त समितियां एकजुट होकर 2025,2026 से प्रदेश व्यापी, चरणबद्ध सत्याग्रही आंदोलन का बिगुल फूंकने जा रहे हैं। यह आंदोलन तब तक चलेगा जब तक:

₹25000 प्रतिमाह पेंशन लागू नहीं होती।

  • आरक्षण का वास्तविक लाभ सभी आंदोलनकारियों को नहीं मिलता।
  • दिवंगत आंदोलनकारियों के परिवार को सम्मानजनक सुविधा और संरक्षण नहीं मिलता।

हम चेतावनी देते हैं —

जिसने राज्य बनाया है, वही 2027 में सत्ता पलटने की ताकत भी रखता है।”


मातृशक्ति और शहीदों की भावनाएं मत भूलिए, कुमाऊं-गढ़वाल की माताएं जो अपने बेटों को आंदोलनों में भेजती थीं, जो पुलिस की बर्बरता से लड़ती थीं, वे आज भी अपेक्षाओं से देख रही हैं कि उनके संघर्षों को न्याय कब मिलेगा।

उन शहीदों की आत्मा आज भी त्राहिमाम कर रही है, जिनकी लाशें रेलवे ट्रैक, तहसील भवनों, धरनास्थलों और जेलों में मिली थीं।

आंदोलन की अग्नि फिर प्रज्वलित होगी?आज जरूरत है कि हम सभी आंदोलनकारी—चाहे किसी संगठन, समिति या मंच से जुड़े हों—एकजुट हो जाएं। यह मुद्दा सिर्फ पेंशन या आरक्षण का नहीं, यह सवाल है सम्मान और स्वाभिमान का।

यदि हमें राज्य निर्माण का श्रेय है, तो हमें उस राज्य में सम्मानित जीवन का अधिकार भी है।

यह संपादकीय लेख एक जागरण है, एक चेतावनी है और एक आह्वान है—सभी संघर्षशील आंदोलनकारियों, उनके परिवारजनों, उनके संगठनों और उत्तराखंड की जनता से।2027 बहुत दूर नहीं…हमने राज्य बनाया है, सत्ता भी हम बना सकते हैं।

जय उत्तराखंड!

जय आंदोलनकारियों का स्वाभिमान!



Spread the love