संपादकीय : जब ठगी का लाइसेंस सरकार की मुहर से मिला हो, तो जनता को न्याय दिलाना भी सरकार की  जिम्मेदारी ?चिटफंड की ठगी और जनता की जिम्मेदारी?घोटाले की परतें : कैसे हुई ठगी?सरकार और सिस्टम की नाकामी

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LUCC—काठमांडू-गोवा के कैसीनो जैसा सट्टा

उत्तराखंड का LUCC चिटफंड घोटाला किसी साधारण वित्तीय धोखाधड़ी से कम नहीं, बल्कि काठमांडू और गोवा के कैसीनो में खेले जाने वाले सट्टे जैसा जुआ साबित हुआ है। फर्क सिर्फ इतना है कि वहां लोग जानबूझकर जोखिम उठाते हैं, जबकि यहां भोली-भाली जनता को “सुरक्षित निवेश और ऊंचे ब्याज” के नाम पर फंसाया गया।

कंपनी के पास सरकार से मान्यता प्राप्त दस्तावेज थे—जीएसटी, पैन कार्ड, रजिस्ट्रेशन—यानी जनता को भरोसा दिलाने के सारे हथियार। जब सरकार की मुहर लगी हो तो ग्रामीण महिलाएं, पूर्व सैनिक और आम लोग इसे ठगी नहीं मानेंगे, बल्कि सुरक्षित ठिकाना समझेंगे। यही भरोसा इस जुए की सबसे बड़ी पूंजी था।

लेकिन असलियत सामने आई तो करोड़ों की जमा-पूंजी डूब गई। अब हालत यह है कि एजेंट और निवेशक दोनों अनशन और धरनों पर बैठे हैं। यह साबित करता है कि LUCC दरअसल वित्तीय सट्टेबाज़ी का वही रूप था, जिसमें कुछ लोग मोटा मुनाफा लेकर विदेश भाग जाते हैं और बाकी अपनी किस्मत पर रोते रह जाते हैं।

आज सवाल केवल कंपनी पर नहीं, बल्कि उस सिस्टम पर भी है जिसने ऐसे “कानूनी कैसीनो” को चलने दिया। अगर सरकार समय रहते सख्ती दिखाती, तो जनता को जुए की इस मेज़ पर अपनी मेहनत की कमाई दांव पर नहीं लगानी पड़ती।

LUCC ने यह सबक दिया है कि जब तक सरकार निगरानी में चूक करेगी और जनता लालच में आंख मूंदे रहेगी, तब तक ठगी का यह खेल चलता रहेगा—चाहे वह काठमांडू-गोवा के कैसीनो हों या उत्तराखंड की चिटफंड कंपनियां।


उत्तराखंड एक बार फिर से एक बड़े आर्थिक घोटाले की चपेट में है। LUCC चिटफंड कंपनी ने न केवल लाखों लोगों की मेहनत की गाढ़ी कमाई हड़प ली, बल्कि हजारों परिवारों को निराशा, भूखमरी और सामाजिक तिरस्कार की खाई में धकेल दिया। 100 करोड़ से अधिक की जालसाजी करने वाली यह कंपनी, जिसके प्रमोटर्स विदेश भाग चुके हैं, प्रदेश के अब तक के सबसे बड़े वित्तीय घोटालों में से एक बन चुकी है।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

लेकिन इस घोटाले को केवल “कंपनी” और उसके “प्रमोटर्स” की लालच की देन कहकर टाला नहीं जा सकता। असल सवाल यह है कि आखिर आम लोग बार-बार ऐसी ठगी का शिकार क्यों हो जाते हैं? क्या सरकार और प्रशासन की जिम्मेदारी तय होगी? या पीड़ित परिवार एक बार फिर अपने ही दर्द और असहायता में सिमटकर रह जाएंगे?


घोटाले की परतें : कैसे हुई ठगी

साल 2016 में श्रीनगर गढ़वाल से शुरू हुई लुच्च (लोनी अर्बन मल्टी स्टेट क्रेडिट & थ्रिफ्ट कोओपेरेटिव सोसायटी) ने आम जनता को बड़े-बड़े सपने दिखाए। “ऊंचा ब्याज, सुरक्षित निवेश, टैक्स फ्री योजनाएं और अंतरराष्ट्रीय स्तर की कंपनियों में पैसा लगाने का भरोसा”—यही वो जाल था जिसमें जनता फंस गई।

  • प्रदेशभर में 37 शाखाएं खोली गईं।
  • लगभग 25 हजार एजेंट बनाए गए।
  • पूर्व सैनिक, सैनिकों के परिवार और महिलाएं—विश्वास दिलाने के लिए एजेंट भी इन्हीं वर्गों से चुने गए।
  • शुरुआती सालों में समय पर ब्याज और रकम वापस कर, भरोसे का माहौल बनाया गया।

लेकिन अक्टूबर 2024 में अचानक सभी शाखाएं बंद कर दी गईं। डायरेक्टर्स और ब्रांच मैनेजर्स 29 सितंबर को ताले लगाकर फरार हो गए। जब तक जनता को सच का अंदाजा हुआ, प्रमोटर्स करोड़ों रुपये लेकर विदेश निकल चुके थे।


आंदोलन और भूख हड़ताल : मजबूरी का प्रतीक

देहरादून में आज भी हजारों पीड़ित धरने पर बैठे हैं।

  • चमोली की सुशीला नेगी अपने बच्चों को पड़ोसियों के भरोसे छोड़कर अनशन पर बैठी हैं।
  • रुद्रप्रयाग की रोशनी गौड़ ने 60 लाख का इन्वेस्टमेंट डुबो दिया।
  • देहरादून की सरिता बिष्ट के पति सेना में बॉर्डर पर तैनात हैं, लेकिन घर की गाढ़ी कमाई और दूसरों का भरोसा, दोनों कंपनी डुबोकर भाग गई।

यह आंदोलन केवल पैसों की मांग नहीं, बल्कि “सम्मान बचाने की जद्दोजहद” बन चुका है। एजेंट बनने वाले लोग अपने ही रिश्तेदारों, दोस्तों और पड़ोसियों को कंपनी से जोड़ते रहे। अब जब सब डूब गया, तो सबसे पहले गुस्से का निशाना वही एजेंट बन रहे हैं।


सरकार और सिस्टम की नाकामी

LUCC कोई गली-कूचों में चलने वाली अवैध संस्था नहीं थी।

  • यह कृषि मंत्रालय के अधीन रजिस्टर्ड सोसाइटी थी।
  • इसके पास GST और अन्य लाइसेंस भी मौजूद थे।
  • कंपनी की गतिविधियों पर LIU (लोकल इंटेलिजेंस यूनिट) की भी नजर थी।

तो सवाल यह है कि आखिर इतनी बड़ी ठगी होने तक सिस्टम सोता क्यों रहा?

  • क्या सरकारी एजेंसियां जानबूझकर आंख मूंदे रहीं?
  • क्या किसी को फायदा पहुंचाने के लिए समय रहते कार्रवाई नहीं की गई?
  • क्या सरकार केवल “जनजागरूकता” के नारे देकर अपनी जिम्मेदारी से बच सकती है?

यह सच है कि सीबीआई जांच के आदेश हो चुके हैं, लेकिन अभी तक प्रमोटर्स की गिरफ्तारी नहीं हो सकी। जांच एजेंसियां जिस धीमी रफ्तार से काम कर रही हैं, उससे जनता का भरोसा और कमजोर हो रहा है।


जनता की जिम्मेदारी : लालच और अंधविश्वास का जाल

हर बार जब कोई चिटफंड घोटाला सामने आता है, जनता एक ही सवाल पूछती है—“हमारे पैसे वापस कब मिलेंगे?” लेकिन इस सवाल के साथ एक और सवाल भी जरूरी है—“हमने अपनी मेहनत की कमाई कहां और क्यों लगाई?”

  • जब कोई कंपनी 15–20% ब्याज देने का वादा करती है, तो समझ लेना चाहिए कि यह सामान्य बैंकिंग व्यवस्था में संभव ही नहीं है।
  • जब कोई संस्था “टैक्स फ्री” और “सोने की खदानों व तेल के कुओं” में निवेश जैसी कहानियां सुनाए, तो शक होना चाहिए।
  • लेकिन लोग लालच में, और जल्दी अमीर बनने के सपने में आंख मूंदकर भरोसा कर लेते हैं।

यहां तक कि कई लोग सिर्फ अपने कमीशन के लालच में अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को भी जोड़ते चले गए। आज वही लोग तिरस्कार झेल रहे हैं। यह एक सामाजिक सीख है कि आर्थिक फैसले कभी भी केवल लालच या झूठे भरोसे पर नहीं लेने चाहिए।


उत्तराखंड में चिटफंड का काला इतिहास

LUCC पहला घोटाला नहीं है। इससे पहले भी कई फर्जी कंपनियों ने जनता को लूटा।

  • सहारा इंडिया घोटाला का असर आज तक लोगों के दिमाग में ताजा है।
  • पर्ल्स, पोंजी और अन्य मल्टी लेवल मार्केटिंग कंपनियां भी हजारों लोगों का पैसा डुबो चुकी हैं।
  • कई फर्जी माइक्रो फाइनेंस कंपनियां गांव-गांव जाकर भोले-भाले ग्रामीणों को ठग चुकी हैं।

इन घटनाओं के बावजूद लोग बार-बार एक ही गलती दोहराते हैं। इसका मतलब है कि केवल कानून और सरकार नहीं, बल्कि जनता को भी अपनी आर्थिक समझदारी बढ़ानी होगी।

खुद में झांकने का समयLUCC चिटफंड घोटाला केवल धोखाधड़ी नहीं, बल्कि जनता की सामूहिक भूल और सिस्टम की नाकामी का आईना है। पीड़ितों की पीड़ा वास्तविक है, लेकिन इस त्रासदी से सबक लेना भी जरूरी है।


आगे का रास्ता : समाधान और सबक

  1. कड़ी कानूनी कार्रवाई
    – LUCC के प्रमोटर्स को इंटरपोल नोटिस के जरिए विदेश से लाया जाए।
    – एजेंट स्तर पर जिम्मेदारी तय हो, लेकिन पीड़ित एजेंटों को सुरक्षा भी मिले।
  2. सरकारी फंड और राहत
    – पीड़ितों को तुरंत अंतरिम राहत देने की व्यवस्था हो।
    – एक विशेष ट्रिब्यूनल बनाकर पीड़ितों का पैसा वापस लाने की कार्ययोजना बने।
  3. जनजागरूकता अभियान
    – ग्रामीण और शहरी स्तर पर वित्तीय साक्षरता (Financial Literacy) अभियान चलाए जाएं।
    – स्कूलों और कॉलेजों में निवेश की बुनियादी शिक्षा दी जाए।
  4. पारदर्शी सहकारी ढांचा
    – को-ऑपरेटिव सोसाइटीज और मल्टी स्टेट क्रेडिट संस्थाओं की कड़ी मॉनिटरिंग हो।
    – ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर उनकी ऑडिट रिपोर्ट और बैलेंस शीट सार्वजनिक हो।

जब तक हम लालच और झूठे सपनों के शिकार होते रहेंगे, तब तक कोई भी कंपनी नए नाम से आएगी और हमारी गाढ़ी कमाई लूट ले जाएगी। सरकार का कर्तव्य है कि ऐसे घोटालों पर सख्त कार्रवाई करे, लेकिन जनता का भी उतना ही कर्तव्य है कि अपनी आर्थिक समझदारी बढ़ाए।

आज अनशन पर बैठी सुशीला, बबीता, रोशनी और सरिता सिर्फ अपने पैसों की नहीं, बल्कि पूरे समाज को चेतावनी दे रही हैं—“अब और मत फंसना, वरना अगली बार शायद तुम्हारी बारी हो।”



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