उत्तराखंड में यह एक आम प्रवृत्ति बन गई है कि जैसे ही कोई सरकारी कर्मचारी रिटायर होता है, वह अपने को ईमानदारी का प्रतीक घोषित कर देता है। मंचों पर, समाजसेवी संगठनों में और अखबारों के कॉलमों में ये लोग खुद को ऐसा दर्शाते हैं मानो पूरी नौकरी रामायण की तरह गुज़री हो।
लेकिन जब हम जमीनी सच्चाई देखते हैं, तो सवाल उठता है — अगर हर रिटायर्ड कर्मचारी ईमानदार था, तो जनता से उगाहे गए 100-500-1000 या लाखों की रिश्वतें आखिर लेता कौन था?


रिटायर्ड बाबुओं के पास शहरों में आलीशान कोठियां, फार्महाउस, देहरादून-रुद्रपुर-हल्द्वानी में फ्लैट, लग्ज़री गाड़ियां और मोटी बैंक FD दिखाई देती हैं। क्या यह सब केवल वेतन से संभव है?
सेवाकाल में घूस की रकम का कोई रिकॉर्ड नहीं होता, लेकिन संपत्ति बोलती है। अफसोस की बात यह है कि रिटायरमेंट के बाद भी न तो उनकी संपत्ति की जांच होती है, न ही पेंशन रोकी जाती है, बल्कि वे नैतिकता के ‘गुरु’ बनकर सामने आते हैं।
जनता को अब इन नकली ईमानदारों से सवाल पूछने होंगे। सिर्फ रिटायर होना किसी को निर्दोष नहीं बनाता। अगर आप वाकई ईमानदार थे, तो अब अपनी संपत्ति का श्वेतपत्र क्यों नहीं जारी करते?
रिटायर्ड अफसरों की संपत्ति पर लगे सवालिया निशान”
उत्तराखंड में रिटायर होने के बाद कई पूर्व अधिकारी खुद को आदर्श और नैतिकता का प्रतीक घोषित करते हैं। लेकिन उनकी संपत्ति पर जब निगाह जाती है तो कई सवाल खड़े हो जाते हैं।
ऐसे अधिकारी जो ₹60,000 से ₹1 लाख की सैलरी पर नौकरी करते थे, उनके पास रिटायरमेंट के समय करोड़ों की संपत्ति कैसे आ जाती है? देहरादून और हल्द्वानी में फ्लैट, गांव में कोठी, बच्चों को विदेश पढ़ाई, लाखों की गाड़ियां — क्या यह सब सरकारी वेतन और पेंशन से संभव है?
असली सच्चाई यह है कि बड़े स्तर पर लिए गए ठेके, मंजूरी, तबादले, सप्लाई बिल पास करवाने जैसे मामलों में वर्षों तक रिश्वत का गुप्त कारोबार चलता है। लेकिन जैसे ही रिटायरमेंट होती है, वही व्यक्ति “मैंने कभी घूस नहीं ली” का बखान करता है।
लोकायुक्त नाम की संस्था बस नाम की रह गई है। न जांच होती है, न कार्रवाई। नतीजतन, ऐसे पूर्व कर्मचारी सत्ता की दलाली, NGO चलाने, या किसी पार्टी से टिकट लेने की होड़ में लग जाते हैं।
अगर आप चाहें, मैं इन लेखों को गढ़वाली या कुमाऊंनी बोली में भी लोकभाषा शैली में रूपांतरित कर सकता हूं।
ज़रूरत इस बात की है कि ऐसे लोगों की संपत्ति की जांच की जाए और यह देखा जाए कि जो उन्होंने कमाया, वह वाकई उनकी सेवा या कड़ी मेहनत से अर्जित है या फिर जनता की जेब से निकली हुई रिश्वत की रकम है।
सेवा काल में सरकारी दफ्तरों की दहलीज पर खड़े आम आदमी को चक्कर कटवाने वाले, हर फाइल के नीचे नोट तलाशने वाले, और हर योजना को ‘दलाली’ में बदल देने वाले जब रिटायर होते हैं, तो अचानक समाजसेवी बन जाते हैं। वे प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के बताते हैं कि उन्होंने “ईमानदारी से पूरा जीवन सेवा में बिताया”। सवाल यह है — अगर हर रिटायर्ड अफसर ईमानदार है, तो फिर पूरे कार्यकाल में रिश्वतखोरी करता कौन था?
दरअसल, यह एक सुनियोजित स्वांग है। वर्षों तक तिजोरी भरने के बाद ‘ईमानदारी’ का मुखौटा पहन लेना आसान होता है। रिटायरमेंट के बाद ये अधिकारी ‘पारदर्शिता’ की बातें करते हैं, संगठनों का नेतृत्व संभालते हैं, और जनहित के झंडाबरदार बनने का ढोंग रचते हैं। मगर जब वे कुर्सी पर थे, तब फाइलें बिना सुविधा शुल्क के नहीं चलती थीं। सड़क, अस्पताल, स्कूल, जल योजना—हर योजना में उनका हिस्सा तय होता था।
आज जब युवा नौकरी की तलाश में हैं, किसानों को मुआवज़ा नहीं मिल रहा, और वृद्ध पेंशन के लिए तरस रहे हैं — तब यह पूछना जरूरी है कि उन तमाम घोटालों की ज़िम्मेदारी किसकी थी? अगर हर कोई रिटायरमेंट के बाद संत है, तो फिर यह भ्रष्टाचार का राक्षस किसने पाला?
समाज को अब रिटायर अधिकारियों के ‘पुण्य स्मरण’ से नहीं, बल्कि जवाबदेही की मांग करने वाले जनचेतन अभियान की जरूरत है। ईमानदारी का असली प्रमाण वह होता है जो कार्यकाल में दिखे, न कि रिटायरमेंट के बाद दिए गए आत्ममुग्ध भाषणों में।
भ्रष्टाचारियों को महान बताने वाले चैनल — पत्रकारिता या दलाली?”
उत्तराखंड में एक नया ट्रेंड बन गया है — रिटायर हुए भ्रष्ट अधिकारियों का बड़े-बड़े न्यूज चैनलों पर महिमामंडन। ऐसे लोग जो नौकरी के दौरान घूसखोरी के पर्याय बने रहे, अब इंटरव्यू देते हैं जैसे कोई महान क्रांतिकारी हों। चैनल वाले उन्हें “अनुभव का भंडार”, “स्वच्छ प्रशासन का प्रतीक” बताकर पेश करते हैं — जबकि ज़मीनी सच्चाई यह है कि उनके रहते जनसेवा की जगह जेबसेवा होती रही।
सबसे शर्मनाक बात यह है कि ये चैनल अपनी टीआरपी के लिए उन लोगों को मंच देते हैं जिनके खिलाफ जांच तक नहीं हुई, और जो रिटायरमेंट के बाद NGO, समितियों और राजनीतिक टिकटों की लाइन में लगे हैं। क्या पत्रकारिता का मतलब यही रह गया है कि आप जिनके कारण व्यवस्था चरमरा गई, उन्हें महान बना दो?
ये पत्रकारिता नहीं, बल्कि एक किस्म की “टीआरपी दलाली” है। असली सवाल तो यह है — अगर वे इतने ही ईमानदार थे, तो अपनी संपत्ति का ब्यौरा क्यों नहीं देते? क्यों नहीं बताते कि कोठी, फार्महाउस, विदेश पढ़ाई का खर्च कहां से आया?
जनता को अब सिर्फ अधिकारियों से नहीं, बल्कि इन ‘टीआरपीभक्षी’ मीडिया संस्थानों से भी सवाल पूछना होगा — क्या आप सच दिखा रहे हैं, या रिश्वत के रिटायर्ड प्रतीकों का प्रचार कर रहे हैं?

