तहकीकात,28,000 छात्रों का फेल होना केवल आँकड़ा नहीं, बल्कि हज़ारों परिवारों के सपनों का टूटना है।उत्तराखंड की शिक्षा व्यवस्था: ढोल की पोल और सरकारी नाकामी

Spread the love

संपादकीय;उत्तराखंड की शिक्षा व्यवस्था: ढोल की पोल और सरकारी नाकामी उत्तराखंड, जिसे “देवभूमि” के नाम से जाना जाता है, अपनी प्राकृतिक सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत के लिए विख्यात है। लेकिन इस बार उत्तराखंड विद्यालयी शिक्षा परिषद के 10वीं और 12वीं के बोर्ड परीक्षा परिणामों ने इस देवभूमि की शिक्षा व्यवस्था की पोल खोल दी है।

हाईस्कूल में 10,000 और इंटरमीडिएट में 18,000 छात्रों का फेल होना, जिसमें हिंदी जैसे मातृभाषा के विषय में 6,431 छात्र (10वीं में 3,582 और 12वीं में 2,849) असफल रहे, यह साबित करता है कि उत्तराखंड की शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह चरमरा चुकी है। यह न केवल सरकारी स्कूलों के प्रदर्शन पर सवाल उठाता है, बल्कि मोटी तनख्वाह लेने वाले शिक्षकों और सरकार की जवाबदेही पर भी गहरी चोट करता है।शिक्षकों की मोटी तनख्वाह, बच्चों का खोखला भविष्यउत्तराखंड के सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को सातवें वेतन आयोग के तहत मोटी तनख्वाह दी जाती है।

इसके बावजूद, हजारों बच्चे हर साल बोर्ड परीक्षाओं में असफल हो रहे हैं। क्या यह शिक्षकों की अकर्मण्यता और लापरवाही का परिणाम नहीं है? पहाड़ी क्षेत्रों में स्थिति और भी बदतर है, जहाँ शिक्षक स्कूलों में उपस्थित होने के बजाय लंबी छुट्टियों पर चले जाते हैं और उनकी जगह 5,000-10,000 रुपये में अस्थायी शिक्षक रख लिए जाते हैं, जो स्वयं शायद ही योग्य हों। चमोली की उस छात्रा का उदाहरण सामने है, जिसने 8वीं पास करने के बाद भी किताब पढ़ना नहीं सीखा और 9वीं में दाखिला लेने के लिए अयोग्य पाई गई। क्या ऐसी शिक्षा व्यवस्था पर गर्व किया जा सकता है?शिक्षक, जो समाज का निर्माणकर्ता माना जाता है, उत्तराखंड में बच्चों के भविष्य को अंधेरे में धकेल रहे हैं। मोटी तनख्वाह, नियमित छुट्टियाँ, और न्यूनतम जवाबदेही—यह सरकारी शिक्षकों की जीवनशैली बन चुकी है। फिर भी, जब परिणाम सामने आते हैं, तो दोष पाठ्यक्रम, छात्रों, या अभिभावकों पर मढ़ दिया जाता है। यह ढोंग अब और नहीं चल सकता।सरकार का ढोल और टॉपर्स की आड़ उत्तराखंड सरकार और शिक्षा विभाग हर साल टॉपर्स की सूची जारी कर अपनी पीठ थपथपाता है। इस साल भी कमल सिंह चौहान और जतिन जोशी (हाईस्कूल, 99.20%) और अनुष्का राणा (इंटरमीडिएट, 98.60%) जैसे मेधावी छात्रों की सफलता को खूब प्रचारित किया गया। लेकिन 28,000 छात्रों का फेल होना, विशेष रूप से सरकारी स्कूलों के बच्चों का खराब प्रदर्शन, क्या सरकार की नाकामी को नहीं दर्शाता? टॉपर्स की चमक में हज़ारों असफल छात्रों की विफलता को छिपाने की कोशिश कितनी शर्मनाक है!सरकार ने फेल छात्रों को तीन मौके देने की घोषणा कर तात्कालिक राहत देने की कोशिश की है—जुलाई 2025 में पूरक परीक्षा, 2026 की मुख्य परीक्षा, और उसके बाद तीसरा मौका। लेकिन यह केवल मरहम लगाने जैसा है। असल समस्या—शिक्षकों की लापरवाही, स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की कमी, और ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का निम्न स्तर—पर सरकार मौन क्यों है? क्या केवल टॉपर्स की तस्वीरें चिपकाकर और प्रेस कॉन्फ्रेंस करके शिक्षा व्यवस्था सुधर जाएगी?सरकारी स्कूल बनाम निजी स्कूल: सच का आईनाइस साल निजी स्कूलों के छात्रों ने बोर्ड परीक्षाओं में शानदार प्रदर्शन किया, जबकि सरकारी स्कूलों की स्थिति दयनीय रही। निजी स्कूलों में अनुशासन, नियमित मॉनिटरिंग, और आधुनिक शिक्षण विधियाँ हैं, जबकि सरकारी स्कूलों में शिक्षक समय पर स्कूल नहीं पहुँचते, पाठ्यक्रम पूरा नहीं होता, और बुनियादी सुविधाएँ जैसे किताबें, ब्लैकबोर्ड, या बिजली तक उपलब्ध नहीं होती। सरकार निजी स्कूलों की सफलता से सबक क्यों नहीं लेती? क्या सरकारी स्कूलों को PPP मॉडल के तहत बेहतर प्रबंधन के लिए निजी संस्थाओं से जोड़ने का समय नहीं आ गया है?उत्तराखंड सरकार की जवाबदेही कहाँ?उत्तराखंड सरकार शिक्षा के नाम पर बड़े-बड़े दावे करती है, लेकिन हकीकत में शिक्षा बजट का बड़ा हिस्सा बुनियादी सुविधाओं और शिक्षक प्रशिक्षण तक नहीं पहुँचता। पहाड़ी क्षेत्रों के स्कूलों में शिक्षकों की कमी, खस्ताहाल भवन, और शिक्षण सामग्री का अभाव आम बात है। सरकार ने डिजिटल शिक्षा और स्मार्ट क्लासरूम की बातें कीं, लेकिन ग्रामीण स्कूलों में इंटरनेट और बिजली तक नहीं है। क्या यह सब सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं होना चाहिए?शिक्षा मंत्री और अधिकारियों को टॉपर्स के साथ फोटो खिंचवाने से फुर्सत मिले, तो उन्हें ग्रामीण स्कूलों का दौरा करना चाहिए। वहाँ की बदहाल स्थिति देखकर शायद उन्हें अपनी नाकामी का अहसास हो। 28,000 छात्रों का फेल होना केवल आँकड़ा नहीं, बल्कि हज़ारों परिवारों के सपनों का टूटना है।रास्ता क्या है?उत्तराखंड की शिक्षा व्यवस्था को बचाने के लिए कठोर और त्वरित कदम उठाने होंगे:शिक्षकों की जवाबदेही: शिक्षकों की उपस्थिति और प्रदर्शन की डिजिटल मॉनिटरिंग शुरू की जाए। लंबी अनधिकृत छुट्टियों पर कठोर कार्रवाई हो।प्रदर्शन-आधारित प्रणाली: खराब प्रदर्शन वाले शिक्षकों को प्रशिक्षण और सुधार का मौका दिया जाए, और बार-बार विफल होने पर स्थानांतरण या VRS जैसे कदम उठाए जाएँ।ग्रामीण स्कूलों में निवेश: पहाड़ी क्षेत्रों में शिक्षकों को प्रोत्साहन भत्ते, आवास, और बुनियादी सुविधाएँ दी जाएँ।पाठ्यक्रम सुधार: हिंदी जैसे विषयों को रोचक और प्रासंगिक बनाया जाए, जिसमें उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत को शामिल किया जाए।सामुदायिक भागीदारी: स्कूल प्रबंधन समितियों को सक्रिय कर माता-पिता और स्थानीय समुदाय को स्कूलों की निगरानी में शामिल किया जाए।अंतिम शब्दउत्तराखंड की शिक्षा व्यवस्था का यह हाल उस ढोल की तरह है, जो बाहर से चमकदार दिखता है, लेकिन अंदर से खोखला है। मोटी तनख्वाह लेने वाले शिक्षक और बड़े-बड़े वादे करने वाली सरकार बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। टॉपर्स की चमक में असफल छात्रों का दर्द छिपाना बंद करना होगा। यदि सरकार और शिक्षक अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाएँगे, तो उत्तराखंड के बच्चे केवल आँकड़ों में सिमटकर रह जाएँगे। यह समय है कि सरकार ढोल पीटना छोड़े और शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए ठोस कदम उठाए। क्योंकि देवभूमि के बच्चों का भविष्य केवल प्रेस रिलीज़ और टॉपर्स की तस्वीरों तक सीमित नहीं होना चाहिए।


Spread the love