
उत्तराखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों को लेकर जारी कानूनी प्रक्रिया एक बार फिर उस बिंदु पर आ खड़ी हुई है, जहाँ लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांत – निष्पक्षता, पारदर्शिता और समयबद्धता – की परीक्षा हो रही है। सरकार द्वारा गुरुवार को उच्च न्यायालय में प्रस्तुत नया आरक्षण रोस्टर, और याचिकाकर्ता पक्ष द्वारा समय माँगने के बाद सुनवाई का 27 जून तक स्थगित होना इस बात का संकेत है कि चुनाव प्रक्रिया अब भी अंतिम निष्कर्ष से दूर है।
राज्य सरकार का दावा है कि 9 जून को जारी नियम और 14 जून को अधिसूचित गजट के तहत आरक्षण रोस्टर को संशोधित किया गया है। यह दावा पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट के आधार पर पूर्ववर्ती रोस्टर को शून्य घोषित करने के साथ जुड़ा है। यह एक बड़ा प्रशासनिक कदम है, परंतु सबसे गंभीर प्रश्न वही है जो याचिकाकर्ता अधिवक्ता योगेश पचौलिया ने उठाया – कि आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक क्यों नहीं की गई?


जनता का भरोसा केवल निर्णयों से नहीं, बल्कि उनकी प्रक्रिया की पारदर्शिता से बनता है। अगर आयोग की रिपोर्ट पर सरकार पंचायत चुनावों जैसे बड़े लोकतांत्रिक आयोजन को रोक सकती है, तो उस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने में हिचक क्यों?
संविधान के अनुच्छेद 243-D और 243-T पंचायतों में आरक्षण की स्पष्ट गारंटी देते हैं। यह आरक्षण किसी राजनीतिक सुविधा या समयानुकूल लाभ का उपकरण नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय की नींव है। यही कारण है कि कोर्ट की खंडपीठ ने भी यह स्पष्ट किया कि उसकी मंशा चुनाव टालने की नहीं, बल्कि प्रक्रिया को विधिसम्मत बनाए रखने की है।
यहाँ यह भी जरूरी है कि सभी पक्ष – सरकार, याचिकाकर्ता, न्यायालय और जनता – एक ही ध्येय को लेकर आगे बढ़ें: निष्पक्ष, पारदर्शी और समयबद्ध पंचायत चुनाव। पंचायतें लोकतंत्र की नींव होती हैं और इस नींव में अगर कोई संदेह या धुंध रहेगी, तो लोकतांत्रिक इमारत अस्थिर होगी।
समय आ गया है कि उत्तराखंड की सरकार पारदर्शिता का साहसिक उदाहरण प्रस्तुत करे। आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक हो, आरक्षण रोस्टर का आधार स्पष्ट किया जाए और सभी वर्गों का समुचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो – तभी एक मजबूत पंचायत व्यवस्था संभव है। अन्यथा चुनावों में देरी, राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप और न्यायिक दखल सामान्य बनते रहेंगे।
इस संदर्भ में यह भी आवश्यक है कि न्यायालय अपने अगले निर्णय में निर्वाचन आयोग को स्पष्ट समयसीमा देने पर विचार करे, ताकि चुनाव प्रक्रिया असीमित कानूनी बहसों की भेंट न चढ़े। लोकतंत्र की वास्तविक परीक्षा सिर्फ चुनाव कराने में नहीं, उन्हें न्यायसंगत तरीके से संपन्न कराने में है।

