
घी संक्रांति: उत्तराखंड की संस्कृति और लोकजीवन का पर्व?उत्तराखंड, देवभूमि, अपनी समृद्ध लोकसंस्कृति और परंपराओं के लिए विख्यात है। यहाँ का हर पर्व केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं, बल्कि प्रकृति, जीवनशैली और समाज की गहरी जड़ों से जुड़ा हुआ है। इन्हीं लोकपर्वों में से एक है घी संक्रांति, जिसे ओलगिया या घृत संक्रांति के नाम से भी जाना जाता है। हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स परिवार की ओर से इस पावन अवसर पर सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाएं।

रुद्रपुर,शैल सांस्कृतिक समिति एवं शैल परिषद


✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर (उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी)
पर्व का महत्व?घी संक्रांति भाद्रपद मास की संक्रांति तिथि को मनाई जाती है। इसे उत्तराखंड के पर्वतीय अंचलों में वर्ष के प्रमुख लोक पर्वों में गिना जाता है। इस दिन सूर्य सिंह राशि में प्रवेश करता है, जिसे वर्षा ऋतु की समाप्ति और शरद ऋतु की शुरुआत का प्रतीक माना जाता है। यह पर्व कृषि और पशुपालन प्रधान जीवनशैली से गहराई से जुड़ा है।
रुद्रपुर,शैल सांस्कृतिक समिति एवं शैल परिषद ने उत्तराखंड के लोक पर्व घी संक्रांति (ओलगिया/घृत संक्रांति) के अवसर पर समस्त प्रदेशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित की हैं। समिति के अध्यक्ष,गोपाल सिंह पटवाल, महासचिव एडवोकेट दिवाकर पांडे, समस्त कार्यकारिणी एवं आजीवन सदस्यगणों ने सामूहिक रूप से कहा कि यह लोक पर्व हमारी संस्कृति, परंपरा और सामाजिक समरसता का प्रतीक है।
उन्होंने कहा कि घी संक्रांति केवल एक धार्मिक अवसर नहीं, बल्कि यह पर्व हमें अपने पारंपरिक खानपान, कृषि और पशुपालन की महत्ता की याद दिलाता है। इस दिन शुद्ध घी, मंडुवे की रोटी और गुड़ का सेवन न केवल स्वास्थ्यवर्धक होता है, बल्कि लोकजीवन की जड़ों से जुड़े रहने का संदेश भी देता है।
समिति के पदाधिकारियों ने विश्वास व्यक्त किया कि उत्तराखंड की नई पीढ़ी इस पर्व के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक धरोहर से जुड़कर उसे आगे बढ़ाएगी। इस अवसर पर उन्होंने रुद्रपुर ही नहीं बल्कि पूरे उत्तराखंड के लोगों को उनके परिवार सहित घी संक्रांति की शुभकामनाएँ दीं और प्रदेश में सुख-समृद्धि एवं स्वास्थ्य की कामना की।
कहा जाता है कि इस दिन से खेतों में नई गतिविधियाँ आरंभ होती हैं, पशुओं का दूध और घी शुद्ध और पौष्टिक माना जाता है तथा मनुष्य और प्रकृति के बीच संतुलन को पुनः स्थापित करने का संदेश मिलता है।
घी संक्रांति, जिसे घ्यूँ त्यार या ओलगिया त्यौहार भी कहा जाता है, उत्तराखंड का एक पारंपरिक त्योहार है जो भाद्रपद (भादो) महीने की पहली तारीख को मनाया जाता है। यह त्योहार सूर्य के कर्क राशि से सिंह राशि में प्रवेश करने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है, जो फसल कटाई के मौसम की शुरुआत का प्रतीक है।
इस दिन घी खाने का एक विशेष महत्व है और इस शुभ माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन घी न खाने वाले को अगले जन्म घोंघे (गनेल) रूप में जन्म लेना पड़ता है।
परंपराएँ और लोकरीति
- इस दिन घी और आटे से बने पकवान विशेष रूप से तैयार किए जाते हैं। गेहूँ और मंडुवे की रोटी पर शुद्ध घी लगाकर खाने की परंपरा है।
- लोकमान्यता है कि यदि इस दिन माथे पर घी लगाया जाए तो वर्षभर सिरदर्द जैसी बीमारियाँ नहीं होतीं।
- ग्रामीण क्षेत्रों में भैंसों और गायों के सींगों को तेल-घी से सजाया जाता है और उन्हें दुलारकर दूध व धन-धान्य की समृद्धि के लिए आशीर्वाद माँगा जाता है।
- ओलग (उपहार) देने और लेने की परंपरा इस पर्व से जुड़ी है। घर के छोटे-बुजुर्गों और रिश्तेदारों को उपहार दिए जाते हैं।
सामाजिक और सांस्कृतिक संदेश?घी संक्रांति केवल आस्था का पर्व नहीं, बल्कि यह सामाजिक समरसता और कृतज्ञता का उत्सव भी है। किसान अपने पशुओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है, परिवार और समाज आपसी संबंधों को सुदृढ़ करते हैं और प्रकृति से गहरा जुड़ाव व्यक्त किया जाता है।
यह पर्व हमें बताता है कि घी जैसे प्राकृतिक आहार न केवल स्वास्थ्य के लिए अमृत हैं, बल्कि हमारी संस्कृति और परंपरा के भी वाहक हैं।
आधुनिक सन्दर्भ?आज जब फास्ट फूड और कृत्रिम खानपान की आदतें बढ़ रही हैं, घी संक्रांति हमें अपने पारंपरिक भोजन और जीवनशैली की ओर लौटने का संदेश देती है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि प्रकृति से जुड़कर, उसकी लय में जीकर ही सच्चा स्वास्थ्य और आनंद संभव है।
घी संक्रांति उत्तराखंड की लोकसंस्कृति का जीवंत प्रतीक है। यह पर्व न केवल स्वास्थ्य और समृद्धि का संदेश देता है, बल्कि परंपरा, पारिवारिक मूल्यों और प्रकृति के साथ सामंजस्य का भी परिचायक है। ऐसे पर्व ही उत्तराखंड की पहचान हैं और हमारी पीढ़ियों को अपनी जड़ों से जोड़ते हैं।
घी संक्रांति केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि उत्तराखंड की लोकसंस्कृति का जीवंत प्रतीक है। यह पर्व हमें प्रकृति, पशुपालन, कृषि और समाज के बीच संतुलन बनाने की प्रेरणा देता है। घी संक्रांति हमें बताती है कि पारंपरिक भोजन, लोकरीति और आपसी संबंध ही हमारे जीवन का आधार हैं।आज आवश्यकता है कि हम इस लोकपर्व को केवल खानपान या रस्म तक सीमित न रखें, बल्कि इसे संस्कृति और स्वास्थ्य दोनों के उत्सव के रूप में अपनाएँ। तभी यह पर्व अपनी मूल आत्मा के साथ आने वाली पीढ़ियों तक पहुँच पाएगा।

