
गुजरात में कांग्रेस द्वारा आयोजित राष्ट्रीय अधिवेशन में ‘मिशन गुजरात’ की शुरुआत ने एक राष्ट्रीय संदेश दिया है कि पार्टी अब न सिर्फ वापसी की तैयारी में है, बल्कि विपक्ष की राजनीति को नए सिरे से परिभाषित करने की दिशा में बढ़ रही है। ठीक यही आवश्यकता उत्तराखंड में भी महसूस की जा रही है, जहां कांग्रेस एक के बाद एक चुनाव हारती रही है, और भाजपा ने खुद को एक मजबूत विकल्प के रूप में स्थापित किया है।


प्रिंट मीडिया, शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)संवाददाता
लेकिन गुजरात की तरह ही उत्तराखंड में भी भाजपा के खिलाफ जन असंतोष का माहौल बन रहा है। नौजवानों में बेरोजगारी को लेकर गुस्सा है, लोकायुक्त बिल जैसे भ्रष्टाचार विरोधी मुद्दों पर सरकार की चुप्पी ने जनता का भरोसा डगमगाया है। ऐसे में कांग्रेस के पास एक बार फिर से खुद को विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने का मौका है — बशर्ते वो सही रणनीति अपनाए।
‘पन्ना मॉडल’ और माइक्रो मैनेजमेंट का उत्तराखंड संस्करण
गुजरात में कांग्रेस ने भाजपा के ‘पन्ना प्रमुख’ जैसे बूथ लेवल के संगठन मॉडल को अपनाने का संकेत दिया है। उत्तराखंड में भी यही मॉडल लागू करना पार्टी को जमीनी स्तर तक मजबूत कर सकता है। जिलाध्यक्षों और ब्लॉक स्तर के नेताओं को अधिकार देने और उन्हें परिणामों के लिए उत्तरदायी बनाने का ढांचा तैयार करना होगा।
सचिन पायलट की यह बात कि “संगठन में मौजूद भीतरघातियों पर शिकंजा कसना होगा” उत्तराखंड की राजनीति के लिए भी अत्यंत प्रासंगिक है। यहां कांग्रेस को सबसे अधिक नुकसान अपने ही लोगों की निष्क्रियता या दलबदल से हुआ है। इस पर नियंत्रण जरूरी है।
बीजेपी की पहाड़ विरोधी नीति को मुद्दा बनाना होगा
उत्तराखंड में भाजपा सरकार की नीति अक्सर मैदानी क्षेत्र केंद्रित रही है। पहाड़ी जिलों में स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, पानी, रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाएं आज भी संकट में हैं। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टर नहीं, स्कूलों में शिक्षक नहीं, और सड़कों की हालत बदतर है। भाजपा की “डबल इंजन सरकार” के दावों का पहाड़ में कोई असर नहीं दिखता।
कांग्रेस को चाहिए कि वह इन मुद्दों को संगठित रूप से उठाए और जनता के सामने यह स्पष्ट करे कि भाजपा की नीतियां उत्तराखंड के जन सरोकारों के खिलाफ रही हैं। लोकायुक्त विधेयक को लागू न करना, भर्ती घोटालों पर लीपापोती, और आंदोलनकारी युवाओं की अनदेखी – ये सभी कांग्रेस के लिए धारदार मुद्दे हो सकते हैं।
उत्तराखंड में कांग्रेस के लिए जीत का मंत्र:
- संगठन में अनुशासन और जिम्मेदारी तय करें: हर ब्लॉक और बूथ पर सक्रिय टीम हो, जिसका मूल्यांकन चुनाव परिणामों से हो।
- स्थानीय मुद्दों को प्राथमिकता दें: पहाड़ी क्षेत्रों की उपेक्षा, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, पलायन जैसे मुद्दों पर निरंतर अभियान चलाएं।
- युवा नेतृत्व को आगे लाएं: आंदोलनकारी युवाओं और लोकल एक्टिविस्ट्स को पार्टी से जोड़ें, उन्हें चुनावी जिम्मेदारी दें।
- ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ की साफ-सुथरी नीति: पारदर्शिता के साथ प्रत्याशी चयन करें और चुनाव प्रक्रिया को ईमानदार दिखाएं।
- बीजेपी के वादों का पोस्टमार्टम करें: पिछले चुनावी घोषणापत्रों का विश्लेषण कर लोगों को बताएं कि कितने वादे पूरे नहीं हुए।
निष्कर्ष:
गुजरात की तरह ही उत्तराखंड भी कांग्रेस के लिए एक रणनीतिक प्रयोगशाला बन सकता है, यदि पार्टी वहां “अतीत की पार्टी” के बजाय “भविष्य की उम्मीद” बनने का साहस करे। 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी के पास तीन साल हैं — ये समय संगठन को मजबूत करने, युवाओं से जुड़ने और भाजपा की नीतियों को एक्सपोज़ करने के लिए सोने पर सुहागा है।
कांग्रेस को चाहिए कि वह राज्य के स्वाभिमान और विकास की लड़ाई को पहाड़ से जोड़कर जन आंदोलन का रूप दे। यदि यह सही तरीके से किया गया, तो उत्तराखंड कांग्रेस के पुनरुत्थान की भूमि बन सकता है।

