
श्रद्धालुओं की उड़ान या जोखिम की रेस?
रविवार सुबह केदारनाथ से छह श्रद्धालुओं को लेकर लौट रहा आर्यन एविएशन का हेलीकॉप्टर गौरीखर्क में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। इस हादसे में पायलट राजवीर चौहान, मंदिर समिति कर्मचारी विक्रम रावत और पांच अन्य श्रद्धालुओं की जान चली गई। गौर करने वाली बात यह है कि एक महीने के भीतर केदारनाथ रूट पर यह तीसरा बड़ा हेली हादसा है।


17 मई को एयर एंबुलेंस हादसा, 7 जून को बड़ासू के पास एमरजेंसी लैंडिंग और अब यह मौतों से भरी त्रासदी। सवाल उठता है कि क्या उत्तराखंड में हेली सेवाओं का संचालन एक नियंत्रित एविएशन सिस्टम है या बेतरतीब मुनाफाखोरी की खुली दौड़?
सिस्टम की नज़रें क्यों मूंद जाती हैं?7 जून के बड़ासू हादसे के बाद मुख्यमंत्री ने कहा था कि पायलटों के अनुभव और तकनीकी मानकों की समीक्षा की जाएगी। ऐसी घोषणा अपने आप में शासनादेश होती है। लेकिन उसके बाद यूकाडा (Uttarakhand Civil Aviation Development Authority) ने कोई ठोस कार्रवाई की? सात दिन तक सबकुछ शांत, कोई सार्वजनिक निरीक्षण नहीं, कोई नई सुरक्षा नीति नहीं।
अगर कागजी आदेश जारी हुए भी हों तो वह हर घर नल-जल योजना जैसे हो सकते हैं — जिनकी शत प्रतिशत सफलता के दावे के बावजूद महिलाएं आज भी पानी सिर पर ढो रही हैं।
हेली सेवाओं में बेलगाम मुनाफाखोरी की होड़
केदारघाटी का भूगोल बेहद संवेदनशील है। गहरी और संकरी घाटी में टेकऑफ-लैंडिंग का समय मुश्किल से 7–8 मिनट का होता है। इतनी कम अवधि में अधिक से अधिक राउंड लगाने की दौड़ में, यात्रियों को ठूंस-ठूंस कर भरा जाता है, पायलट्स को बिना पर्याप्त रेस्ट के उड़ान भरने के लिए कहा जाता है और हेलीकॉप्टर कंपनियां “स्लॉट” भरने के चक्कर में किसी भी मानक की परवाह नहीं करतीं।
स्थिति इतनी खतरनाक हो चुकी है कि कई बार हेलीपैड पर यात्रियों को दौड़ा-दौड़ा कर बैठाया जाता है, लैंडिंग पर भी भगदड़ जैसी स्थिति बनती है।
हेलीपैड पर मौत की सेल्फी, सिर कटने की खबरें
बीते वर्षों में कई घटनाएं हो चुकी हैं – कभी हेलीकॉप्टर की चपेट में आने से कर्मचारी की मौत, तो कभी हेलीपैड पर सेल्फी लेते अधिकारी की जान चली गई। लेकिन बावजूद इसके न कोई सख्त जांच, न सुरक्षा ड्रिल्स, और न ही स्पष्ट जवाबदेही।
जब सीएम कहें ‘नकेल कसो’, तब भी सिस्टम क्यों सुस्त?जब राज्य का मुखिया स्वयं लापरवाही पर सख्त रुख अपनाता है, तब सिस्टम को जागना चाहिए। लेकिन व्यवहार में ऐसा कुछ नहीं दिखता। अफसरशाही के पास पहले से ही यह जवाब तैयार रहता है — “हम तो कर रहे हैं, गड़बड़ी कंपनियों की है।”
लेकिन यह रवैया कब तक चलेगा?
गढ़वाल के साथ भेदभाव: कमिश्नरी सिस्टम की विसंगति
चारधाम यात्रा गढ़वाल मंडल में होती है। सातों जिले इस यात्रा से जुड़े हैं। लेकिन यहां पूर्णकालिक मंडलायुक्त (कमिश्नर) की अनुपस्थिति है। याद नहीं आता कि पौड़ी स्थित कमिश्नर ऑफिस में आखिरी बार कोई अफसर बैठा हो।
जब कुमाऊं को एक पूर्णकालिक कमिश्नर मिल सकता है, तो गढ़वाल के साथ यह भेदभाव क्यों?
अगर गढ़वाल के कमिश्नर को सिर्फ मंडलीय ज़िम्मेदारी दी जाए और शासन स्तर की अतिरिक्त जिम्मेदारियां हटाई जाएं, तो शायद ये तमाम व्यवस्थाएं बेहतर तरीके से संचालित हो सकें।
समाधान क्या हो सकते हैं? ‘ऑपरेशन लगाम’ जैसे अभियान हेली सेवाओं पर क्यों नहीं?
जैसे पुलिस ‘ऑपरेशन लगाम’ के तहत नियम तोड़ने वालों को सजा देती है, वैसे ही हेली सेवाओं के लिए भी एक स्पष्ट ‘नियंत्रण-अभियान’ जरूरी है जो जनता में भय नहीं, बल्कि सुरक्षा का भरोसा बनाए।
आशा की किरण: “हारिये न हिम्मत, बिसारिए न राम”
गढ़वाल की उपेक्षा और हेली कंपनियों की मुनाफाखोरी के बीच जान गंवाते श्रद्धालुओं की कहानियां बेहद पीड़ादायक हैं। लेकिन फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि सिस्टम कभी तो जागेगा।
पाठकों से अपील है – इस विषय को सिर्फ खबर मान कर न पढ़ें, बल्कि यह सोचें कि क्या हम प्रशासन और व्यवस्था से कुछ ठोस बदलाव की मांग कर सकते हैं?
(✍️ दिनेश शास्त्री लेखक वरिष्ठ पत्रकार और उत्तराखंड प्रशासनिक मामलों के गहन विश्लेषक हैं।
