हाईकोर्ट ने ७४ फीट चौड़ाई का दिया था स्पष्ट आदेश, पर दीपावली के बाद ६० फीट पर बनी सहमति से फिर उठा विवाद — रुद्रपुर में बड़े व्यापारियों को बचाने और छोटे दुकानदारों की बलि का आरोप, राजनीतिक समीकरणों में मचा घमासान

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काशीपुर बायपास पर ‘६० फीट’ का नया जुमला?हाईकोर्ट ने ७४ फीट चौड़ाई का दिया था स्पष्ट आदेश, पर दीपावली के बाद ६० फीट पर बनी सहमति से फिर उठा विवाद — रुद्रपुर में बड़े व्यापारियों को बचाने और छोटे दुकानदारों की बलि का आरोप, राजनीतिक समीकरणों में मचा घमासान।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

रुद्रपुर — काशीपुर बायपास के चौड़ीकरण का मामला अब सिर्फ सड़क का नहीं रहा; यह न्याय, पारदर्शिता और जनहित बनाम स्थानीय ताकतों के टकराव का प्रतीक बनता जा रहा है। हाल के दिनों में ७४ फीट के मूल प्रस्ताव, हाईकोर्ट में दायर जनहित याचिका और अचानक उठे “६० फीट” के जुमले ने यह स्पष्ट कर दिया है कि एक संवेदनशील विकास परियोजना किस तरह राजनीतिक और आर्थिक दबावों के बीच फँसकर असल उद्देश्य — जनता की सुविधा और सार्वजनिक सुरक्षा — से भटक सकती है। इस संपादकीय में मैं काशीपुर बायपास के चार प्रमुख पहलुओं — (1) हाईकोर्ट द्वारा बताए गए मानदंड और उनकी अवहेलना का प्रश्न, (2) अतिक्रमण और धनिक हितों की भूमिका, (3) लोकहित बनाम व्यापारी हितों की जटिलता और (4) इससे उत्पन्न राजनीतिक व सामाजिक परिणाम — का विश्लेषण करूँगा।

पहला बिंदु — न्यायिक आदेश और उसका सम्मान — लोकतंत्र की बुनियाद है। जब हाईकोर्ट जैसी स्वतंत्र संस्था किसी सड़क परियोजना के लिए मानक तय करती है — जैसे कि नजूल भूमि से अतिक्रमण मुक्त कराना या ७४ फीट जैसी चौड़ाई बनाम दो तरफ समान अतिक्रमणमुक्त दूरी — तो उस निर्देश का पालन केवल कानूनी दायित्व नहीं, नैतिक दायित्व भी है। हालांकि, स्थानीय प्रशासन, निगम या राजनीतिक प्रतिनिधि जब कोर्ट के निर्देशों को कमजोर कर देते हैं — उदाहरण के लिए ७४ फीट को अचानक ६० फीट में बदलने की सहमति का प्रचार — तो यह सिर्फ कागजी बदलाव नहीं; यह न्यायप्रणाली के प्रति अनादर है और सार्वजनिक विश्वास को हिला देता है। ऐसे समय में सवाल उठना स्वाभाविक है: क्या किसी विशेष समूह — बड़े व्यापारी, संपन्न दुकानदार या राजनीतिक दबाव — की हितरक्षा के लिए न्यायिक आदेशों को दरकिनार किया जा रहा है?

दूसरा बिंदु — अतिक्रमण और धनिकों की भूमिका — परियोजना के निष्पादन को जटिल बनाती है। स्थानीय रिपोर्टें बताती हैं कि बायपास मार्ग में अतिक्रमण सबसे बड़ी बाधा है; कई स्थानों पर दुकानदार, निजी संरचनाएँ और निजी हित हैं जो चौड़ीकरण को रोकते दिखते हैं। पारंपरिक रूप से यह देखा गया है कि जिन इलाकों में जमीन की कीमतें ऊँची होती हैं और जिन दुकानदारों की दुकानें पीसीआर से दशकों से जुड़ी रहती हैं, वहाँ चौड़ीकरण कठिन होता है। यदि शासन-प्रशासन या चुनावी प्रतिनिधि उन लैंड मालिकों/दुकानदारों के संरक्षण में कदम उठा रहे हैं, तो यह विकास के मूल तर्क — बेहतर यातायात प्रवाह, सुरक्षा और आर्थिक लाभ — को खोखला कर देता है। ऐसे में प्रशासन और राजनीति को यह स्पष्ट करना होगा कि किसके दबाव में बदलाव हो रहा है और किसके हितों की रक्षा प्राथमिकता बन रही है।

तीसरा बिंदु — व्यापारी हित बनाम जनहित: संतुलन आवश्यक पर असंतुलन खतरनाक। सड़क चौड़ीकरण जैसे परियोजनाओं में अक्सर छोटे-बीचले व्यापारी और कुछ बड़े दुकानदार दोनों प्रभावित होते हैं। पर समस्या तब पैदा होती है जब केवल कुछ शक्तिशाली हितधारक ही अपने पट्टे बचाने के चलते परियोजना को प्रभावित कर पाते हैं। यदि ७४ फीट की आवश्यकता इसलिए घटाकर ६० फीट कर दी जाती है ताकि बड़े दुकानदारों या किसी समूह के परिसरों को बचाया जा सके, तो परिणाम कई तरह के होंगे — यातायात की क्षमता में कमी, भविष्य में बार-बार जाम और दुर्घटनाओं का जोखिम, और सबसे बढ़कर संवैधानिक आदेशों का अपमान। न्यायालय ने अतिक्रमण हटाने और नजूल भूमि को मानकर चौड़ीकरण की शर्तें रखी होंगा; उन्हें प्रशासन किस आधार पर छाँट कर “समझौता” कर रहा है — यह स्पष्ट होना चाहिए।

चौथा बिंदु — बुलडोजर और रुद्रपुर की तस्वीर: कार्रवाई की तीव्रता और उसकी न्यायसंगतता। हालिया घटनाओं में कई स्थानों पर अचानक बुलडोजर चलाकर दशकों से खड़ी दुकानों को गिराने की खबरें आईं। प्रशासन का यह रुख कभी-कभी यह संदेश देता है कि कुछ स्थानों पर ‘अनुशासन’ लाया जा रहा है, पर यदि यही कार्रवाई बारीकियों और वैधानिक प्रक्रियाओं के बिना हो — नोटिस, वैकल्पिक व्यवस्था, प्रभावित लोगों को मुआवजा या पुनर्वास का प्रावधान — तो यह ग़लत है। साथ ही, यदि कुछ हिस्सों में कठोरता दिखाते हुए अन्य हिस्सों में “छूट” या “समझौता” की नीति अपनाई जा रही है, तो यह द्विवेधानिक तरीके से असमानता और भ्रष्टाचार के हाथों न्याय को कमजोर कर देता है। सबका एक समान व्यवहार ही प्रशासनिक निष्पक्षता की पहचान है।

इन सबका राजनीतिक असर भी गहरा होगा। रुद्रपुर की राजनीति में २०२७ जैसे चुनावों की तरफ बढ़ते समय, जहाँ स्थानीय मुद्दे निर्णायक भूमिका निभाते हैं, काशीपुर बायपास जैसा मामला मतदाता के मन में एक बड़ी स्मृति छोड़ सकता है — विशेषकर यदि लोग महसूस करें कि उनका नुकसान कुछ चुनिंदा हितों के संरक्षण के लिए ठुकराया गया। विधायक का ६० फीट का ‘ब्रह्मास्त्र’ छोड़े जाने जैसी घोषणाएँ अल्पकालीन समर्थन दिला सकती हैं, पर दीर्घकालिक भरोसा नहीं। जनता न्यायप्रिय है; वह चाहती है कि विकास पारदर्शी, नियमबद्ध और सभी के लिए समान हो। यदि न्याय और प्रशासन में यही संदेश न पहुँचे तो राजनीतिक नुकसान गहरा होगा — न केवल वर्तमान प्रतिनिधि के लिए, बल्कि पूरे स्थानीय शासन तंत्र के लिए।

तो समाधान क्या हो सकता है? तीन स्पष्ट कदम अपनाने होंगे: (1) पारदर्शिता और जानकारी: नगर निगम, पीडब्ल्यूडी और संसाधित अधिकारी खुलकर बताएँ कि ७४ फीट कैसे तय हुआ, हाईकोर्ट के निर्देशों का स्टेटस क्या है और यदि कोई समझौता हुआ है तो उसका औपचारिक दस्तावेज साझा करें। जनता का अधिकार है जानने का—किसने, कब और किस आधार पर ६० फीट पर सहमति दी। (2) वैकल्पिक मुआवजा और पुनर्वास नीति: जिन छोटे दुकानदारों और परिवारों को विस्थापित किया गया, उनके लिए शीघ्र, विश्वसनीय और उचित मुआवजा व पुनर्वास सुनिश्चित करें—बिना यह प्रक्रिया पूरी किए बुलडोजर चलाना न केवल अमानवीय है बल्कि शीघ्र न्यायिक चुनौतियाँ भी पैदा करेगा। (3) न्यायिक आदेशों का सम्मान और निष्पक्ष अनुपालन: यदि हाईकोर्ट ने निर्देश दिये हैं तो उनका पालन सुनिश्चित करने हेतु प्रशासनिक स्तर पर उच्च अधिकारियों को जवाबदेह बनाना होगा; किसी भी समझौते को कोर्ट के समक्ष पेश कर उसकी मंजूरी लेना चाहिए न कि गुप्त रूप से लागू करना चाहिए।

अन्ततः काशीपुर बायपास केवल सड़क नहीं; यह रुद्रपुर की संवैधानिक मर्यादा, प्रशासनिक जवाबदेही और लोकतांत्रिक विश्वास का परीक्षण है। यदि हम विकास को केवल कुछ दबावों के अनुरूप मोड़ दें तो खोने वालों में सामान्य नागरिक, सड़क उपयोगकर्ता और भविष्य के शहर के हित शामिल होंगे। न्यायालय ने जो मानक दिए हैं — उन्हें नजरअंदाज कर छोटे-छोटे समझौतों से समस्या को टाला नहीं जा सकता। हमारी अपेक्षा यह है कि विधायक, निगम और पीडब्ल्यूडी—तीनों—पारदर्शिता का परिचय दें, प्रभावितों का संवेदनशीलता से निपटारा करें और सबसे महत्त्वपूर्ण — हाईकोर्ट के आदेशों का सम्मान करें। वरना यह मामला केवल न्यायिक दायरों में फँस कर रह जाएगा और शहर का विकास भी विवादों के बादल में अटक जाएगा — जिसकी कीमत अंततः आम रुद्रपुरीय नागरिक को चुकानी पड़ेगी।


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