सावन में कैसे जागृत होती है शिव शक्ति, कैसे भगवान शिव को समर्पित एक छोटी सी साधना बड़े चमत्कार कर सकती है. जैसे त्रेतायुग में लंकापति रावण को चमत्कारी शक्तियां हासिल हुईं.

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क्या है भगवान शिव की इन शक्तियों का पौराणिक रहस्य, ये आप हमारी स्पेशल रिपोर्ट में पूरे महीने में पढ़ेंगे. हमारी कोशिश होगी, आप तक वेदों, पुराणों में वर्णित ऐसी तमाम गाथाएं, जो आज भी कहीं न कहीं साक्षात होती हैं, आप तक पहुंचाएं. जैसे आज की स्पेशल रिपोर्ट है उत्तर प्रदेश के विंध्याचल धाम से. ये पवित्र नगरी वैसे तो शक्ति की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा का वरदान क्षेत्र माना जाता है. लेकिन यहां एक ऐसा शिवलिंग है, जिसे रावण ने ज्योतिष विद्या में सिद्धि प्राप्त करने के लिए स्थापित किया था. क्या है इस शिवलिंग और रावण को मिले भगवान शिव के वरदान का रहस्य, समझिए हमार इस स्पेशल रिपोर्ट से.

सनातन के शास्त्र बताते हैं, रावण असुर शक्ति था, मगर उससे बड़ा शिव भक्त कोई नहीं था. शिव ऐसे देवता, जिन्हें सिर्फ भक्ति भाती है. सुर या असुर शक्ति नहीं. वो अपने हर भक्त को वरदान देते हैं और इस तरह हर शक्ति पर नियंत्रण रखते हैं. अपनी शिव भक्ति से रावण ने 10 सिर और 20 भुजाबल वाला महाबली बन गया. उसने शिव के वरदान से आत्मलिंग प्राप्त कर अजेय होने का वरदान भी लेने वाला था. लेकिन अंतर्मन के ज्ञाता को असुरी शक्ति का ये छल कैसे न पता चलता. देवताओं के जरिए भगवान शिव ने ना सिर्फ उसे आत्मलिंग को लंका ले जाने से रोका, बल्कि अजेय होने के वरदान में बाधा डाली.

विंध्याचल में रावण ने बनाया शिवलिंग

स्पेशल रिपोर्ट की शुरुआत में हम आपको रावण की ये कहानी इसलिए बता रहे हैं, ताकि आप समझ सकें, कि कैलाश से आत्मलिंग लेकर लंका जा रहा रावण बीच के सफर में जब नाकाम हुआ, तब भगवान शिव को खुश करने के लिए कितना कठिन तप कहां कहां किया. विंध्याचल का विंध्येश्वर मंदिर
जहां रावण ने शिवलिंग बनाया! पुराणों में मणिद्वीप विंध्याचल को कहा जाता है, ये नगर देश के 51 शक्ति पीठों में से एक है. यहां का विंध्यवासिनी मंदिर देवी जगदंबा का दिव्य निवास माना जाता है.

इसी देवी मंदिर की दक्षिण दिशा में भगवान शिव का ये प्राचीन मंदिर विंध्येश्वर है. यानी देवी सती के दाईं तरफ भगवान शिव विराजते हैं. मंदिर में स्थापित शिवलिंग के इसी लोकेशन की वजह से इसे मणिद्वीप यानी विंध्याचल की चाबी कहा जाता है. क्योंकि ये पूरा क्षेत्र भगवान शिव की निगरानी में है. मान्यता है, कि देवी जगदंबा की पूजा और ध्यान बिना विंध्येश्वर शिव के दर्शन के पूरा नहीं होता.

तो क्या रावण को इस जगह का रहस्य पता चल गया था? क्या वो भगवान शिव की दी हुई विद्या से ये जान गया था, कि जंबू द्वीप का समय चक्र इसी जगह से शुरू होता है…? इसे लेकर कई मान्यताएं हैं, जिसके आधार पर मंदिर में भगवान शिव, देवी जगदंबा और नंदी की अनूठी स्थापना की गई है..

पश्चिम की ओर मुख करके बैठे हैं नंदी

विंध्येश्वर मंदिर में नंदी का पश्चिम मुखी होना एक खास वास्तु का हिस्सा है, जिसके बारे में मान्यता है, कि ये रावण ने यहां के समय चक्र को देखते हुए तय किया था. आखिर इस विधान से शिवलिंग स्थापित कर रावण कोई खास वरदान पाना चाहता था…?

भगवान शिव से प्राप्त आत्मलिंग लेकर लंका जा रहे रावण की जब कोई मंशा सफल नहीं हुई, तब कहा जाता है कि वो विंध्य पर्वत इलाके में ठहर कर ज्योतिष विद्या में पारंगत होने की सोचने लगा. इसके जरिए रावण चाहता था उसे सारे ग्रहों, नक्षत्रों और समय चक्र का पूर्वाभास, यानी पहले पता चल जाए. इसके लिए जरूरी था धरती के केन्द्र विंदु का पता लगाना, ताकि समय की सटीक गणना हो सके. रावण ने इसके लिए भगवान शिव की तपस्या शुरु की.
मान्यता है कि विंध्य क्षेत्र ही धरती की धुरी है. इस मान्यता के आधार पर बाद में वैज्ञानिकों ने भी रिसर्च किया, तो उसमें उनको विंध्याचल को लेकर चौंकाने वाले तथ्य सामने आए. क्या हैं वो तथ्य और समय चक्र का विंध्य रहस्य, समझिए हमारी रिपोर्ट के इस चैप्टर से. रावण के अंदर समय चक्र को साधने की इच्छा इतनी बलवती हो गई, कि लंका में अपने शिव मंदिर का ख्याल छोड़ विंध्याचल के इसी हिस्से में शिव की तपस्या में बैठ गया.

मान्यता है, कि विंध्येश्वर महादेव का शिवलिंग ठीक उसी जगह स्थापित है, जहां रावण को स्वप्न में धरती की धुरी होने का आभास हुआ था. ज्योतिषीय गणना के लिए धरती का केंद्र स्थान अत्यंत आवश्यक है. इसलिए रावण ने महादेव की स्थापना उसी बिंदु पर की ताकि वह अपने खगोलीय और आध्यात्मिक अनुसंधानों में केंद्र को आधार बनाकर सटीक गणनाएं कर सके.

पौराणिक गाथाओं के मुताबिक रावण को ये धरती की धुरी का आभास खुद भगवान शिव ने दिया था. मंदिर के पुजारी बताते हैं, कि रावण ने इसी वजह से यहां अनूठे शिवलिंग का निर्माण किया था.

विंध्य पर्वत में धरती की धुरी की क्या है मान्यता?

मान्यताओं के पीछे अमूमन वैज्ञानिक तथ्य नहीं होते, लेकिन विंध्याचल को लेकर कुछ तथ्य ये बताते हैं, कि ये क्षेत्र भारत की समय गणना का आधार है. विंध्य क्षेत्र में लगा सूर्य घड़ी का ये बोर्ड ऐसा ही एक तथ्य है, जो विज्ञान सम्मत है. ये क्षेत्र आज भी भारतीय मानक समय, यानी जिससे पूरे देश का समय नियत होता है, उसका आधार ये विंध्य क्षेत्र ही है.

दरअसल 2007 में साइज पॉल्यूराइजेशन एसोसिएशन ऑफ कम्यूनिकेट एंड एजुकेशन नाम की संस्था का एक खोजी दल यहां आया था. इसी टीम ने विंध्याचल के अमरावती चौराहे के पास स्थित स्थल को मानक समय स्थल के रूप में चिह्नित किया था। बोर्ड पर सूर्य एवं पृथ्वी की दूरी तथा व्यास आदि सहित भारतीय आध्यात्मिक जगत में इस स्थान के महत्व को दर्शाया गया है। मान्यता है कि कहा जाता है कि लंका का राजा रावण भी अपनी ज्योतिषगणना के लिए समय यहीं से लिया करता था.

भौगोलिक समय और आधात्मिक जगत का सूचक

मंदिर के पुजारी बताते हैं, रावण के ही ज्योतिष ज्ञान और वास्तु निर्देश की वजह से शिवलिंग और नंदी की स्थापना कुछ ऐसे की गई, कि देवी सती और भगवान शिव के वार्तालाप में कोई आड़े न आए. आज ये जगह भौगोलिक समय के साथ आधात्मिक जगत के भी मानक समय का सूचक माना जाता है. मान्यता हैं कि इस मंदिर में आकर पूजा करने से लोगों के कई रुके और फंसे हुए काम जल्दी पूरे हो जाते हैं। भक्त दर्शन पूजन कर निसंतान और गृह कलेश जैसी कई तरह की समस्याओं का निदान पाने आते हैं.

रावण तो विंध्याचल के बाद अंतर्ध्यान हो गया. उसने ज्योतिष विद्या के साथ ग्रह नक्षत्रों की चाल को साध लिया और लंका चला गया. लेकिन विंध्य क्षेत्र आज भी तमाम रहस्यमयी सिद्धियों के लिए जाना जाता है. खास तौर पर एक त्रिकोण, जो विंध्यवासिनी देवी मंदिर, काली खोह और अष्टभुजा मंदिर के साथ बनता है. ये जगह शक्तिपीठ भी है और सिद्धपीठ भी. अपनी स्पेशल रिपोर्ट के अगले चैप्टर में आपको दिखाते हैं रावण की शिवभक्ति का एक और पहलू, जो उसके जन्मस्थान से शुरू होता है. दरअसल, लंका को हासिल करने का लोभ रावण के अंदर इसी जमीन से शुरू होता है.

रच डाला शिव तांडव स्रोत

भगवान शिव का इतना प्रचंड भक्त था रावण, कि उनकी अराधना के लिए ये संस्कृत का स्त्रोत रच दिया था.

जटाकटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी

विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।

धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके

किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम:

इस शिव स्त्रोत के जरिए रावण भगवान शिव में अपनी गहरी रूचि और उनके दिव्य रूप का बखान करता है. वो कहता है, जिनके मस्तक पर चमकदार अग्नि प्रचलित है, जो अपने सिर पर अर्धचंद्र का आभूषण पहने हैं, मेरा मन उसी भगवान शिव में बसता है…

रावण को ये शिवभक्ति दरअसल उसके पुरखों से विरासत में मिली थी. रावण के दादा महर्षि पुलस्त्य और उसके पिता विश्रवा भगवान शिव के पुजारी थे. ये दोनों दिल्ली की सीमा से बाहर यूपी के बिसरख क्षेत्र के माने जाते है, जहां आज ये शिवमंदिर बना है.

रावण के शिव मंदिर के रहस्य

रहस्य-1- स्वयंभू शिवलिंग

रावण के शिव मंदिर का

रहस्य-2- गुप्त सुरंग

रावण के इस शिवमंदिर में जो भी आता है, वो ये सुरंग जरूर देखता है और ये जानना चाहता है, क्या ये सुरंग कब की है, क्या ये अब भी खुली है…? इस गुप्त सुरंग का यही रहस्य हमारे संवाददाता ने भी समझने की कोशिश की.

रावण जिस दूधेश्वर मंदिर जाने के लिए इस सुरंग का इस्तेमाल किया करता था, वो यहां से करीब 10 किलोमीटर दूर है. दूधेश्वर मंदिर भी त्रेतायुग का बताया जाएगा. इस मंदिर पर अपनी स्पेशल रिपोर्ट आपको अगली कड़ी में दिखाएंगे. उससे पहले ये समझिए, कि रावण इस मंदिर में आने के लिए इस सुरंग का इस्तेमाल क्यों करता था…?

सुरंग के जरिए मंदिर जाती थी मंदोदरी

शिवपूजा के लिए पिता और दादा के बाद रावण के साथ पत्नी मंदोदरी भी इसी सुरंग के जरिए जाया करती थी. इस सुरंग का एक रास्ता मंदोदरी के गांव मंडेरगढ़ को भी जाता था

त्रेतायुग में मेरठ, मंडेरगढ़ राज्य था. पुजारी रामदास बताते हैं, कि मंदोदरी बगल के राज्य मंडेरगढ़ की राजकुमारी थी, जिसे आज मेरठ के नाम से जाना जाता है. रावण ने शिवभक्ति के बावजूद गलतियां तो तमाम की, लेकिन पत्नी मंदोदरी ने भगवान शिव के चरित्र का हवाला देते हुए, परस्त्री हरण और अंहकार से पीछे हटने की जो सलाह दी, उसे रावण ने नहीं माना. इसलिए भगवान शिव से अजर अमर होने का वरदान पाकर भी वो श्रीराम के हाथों मारा गया.


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