सनातन परंपरा में पूर्णिमा की तिथि जहां व्रत और पर्व के लिए प्रसिद्ध तो इसके साथ ही यह तिथि संपूर्णता का प्रतीक है. चंद्रमा इस तिथि का अधिपति है और इस वजह से पूर्णिमा की तिथि को भगवान विष्णु और शिव दोनों से ही जोड़कर देखा जाता रहा है.

Spread the love

आषाढ़ माह में पड़ने वाली पूर्णिमा को आषाढ़ पूर्णिमा कहलाती है, जिसे गुरु पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है.

इस दिन आकाश में चंद्रदेव अपने पूर्ण आकार में होते हैं और धरती पर चांदनी की छटा बिखेरते हुए जिस तरह सकारात्मकता का उपहार देते हैं, उनकी यह छवि मनुष्यों को दान देने के लिए प्रेरित करती है. कहने का अर्थ यह है कि पूर्णता का अनुभव सबकुछ समेटने में नहीं है, बल्कि सभी के साथ बांटने में हैं. इसीलिए भारतीय परंपरा में दान का महत्व बताया गया है.

शास्त्रों में कहा गया है कि दान ही वह पुण्य है जो धरती से विदा लेते हुए आपके साथ जाता है. यह मृत्यु के बाद मनुष्य के साथ यमलोक तक जाता है, इसलिए जीते जी अपनी समार्थ्य के अनुसार दान जरूर करना चाहिए. दान के महत्व का उल्लेख करते हुए कूर्मपुराण में कहा गया है-

स्वर्गायुर्भूतिकामेन तथा पापोपशान्तये।
मुमुक्षुणा च दातव्यं ब्राह्मणेभ्यस्तथाअवहम्।।

यानी स्वर्ग, दीर्घायु तथा ऐश्वर्य के अभिलाषी और पाप की शांति तथा मोक्ष की प्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति को पात्र व्यक्तियों को भरपूर दान करना चाहिए. प्रयागराज स्थित विशालाक्षी शक्तिपीठ के अध्यक्ष स्वामी अखंडानंद दान की महिमा बताते हुए अलग-अलग पौराणिक ग्रंथों से संदर्भ देते हैं. वह रामचरित मानस से एक प्रसंग लेते हुए कहते हैं कि मानस में बाबा तुलसी ने कहा है –
‘प्रगट चारि पद धर्म के, कलि महुं एक प्रधान.
जेन केन विधि दीन्हे,दान‌ करे कल्याण…’

इसी तरह ऋषियों ने भी सतयुग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और कलयुग में एक मात्र दान की प्रशंसा की है. इस बारे में शास्त्र कहते हैं-
‘तप: कृते प्रशंसन्ति त्रेतायां ज्ञान कर्म च.
द्वापरे यज्ञ में बाहु दानं मेकं कलौयुगे…’

इस दान की सत्ता महत्ता को संसार के लगभग सभी धर्मावलंबी सभी देशवासी स्वीकार करते हैं. महाभारत में भी दान के महत्व का वर्णन बहुत ही विस्तार से आता है. ‘दानं‌ हि‌ महती क्रिया ‘(अनुशासन पर्व) यह कथन राजा ययाति का है, जिन्होंने दान से स्वर्ग को जीत लिया था. दान देना बहुत बड़ा कार्य है. अथर्ववेद तो दान के विषय में बिल्कुल आदेश देते हुए कहता है कि, सैकड़ो हाथों से इकट्ठा करो और हजारों से बिखेरो.

‘शतहस्त समाहार,सहस्त्र हस्तं संकिर’.

पुराणों के मुताबिक, धरती जिन सात तत्वों पर टिकी है उनमें एक तत्व दान भी है.वेद में सबसे पहले लिखे गए ऋग्वेद के अनुसार जो मनुष्य दान न देकर अपने अर्थ यानी धन का केवल अपने ही स्वार्थ के लिए खर्च करता है तो वह पाप ही खाता है- ‘केवलाद्मो भवति केवलादी’.

भगवान कृष्ण भी इस विषय में कहते हैं कि-‘योभुक्ते स्तेन‌ एव स’ .

भगवती स्तुति ने तो स्पष्ट कहा है कि व्यक्ति को श्रद्धापूर्वक दान देना चाहिए, श्रद्धा न भी हो तो भी दान कर देना चाहिए, आर्थिक स्थिति के अनुसार दान देना सबसे सुयोग्य है, लज्जा, भय, सहानुभूति और जब विवेक जगे तब भी विवेकपूर्वक दान देना चाहिए. कहने का आशय यह है कि दान की स्थिति कैसी भी हो, यदि आपके द्वारा वह दिया गया है तो कुछ न कुछ फलीभूत जरूर होता है.

हमारी संस्कृति ‘वसुधैव कुटुंबकम’ ‘मां कश्चिद दु:ख भाग भवेत्’ ‘सर्वभूत हिते रता:’ की रही है. परहित के लिए महाराजा दिलीप, राजा रंतिदेव ,महर्षि दधीचि, शिवी जैसे महापुरुषों ने तो प्राण भी न्योछावर कर दिए हैं. कुएं से जब जल निकाल कर उपयोग में लाते हैं इससे कुआं कभी सूखता नहीं, लेकिन अगर कुआं प्रयोग में न आए तो आगे चलकर वह दूषित हो जाता है और सूख जाता है. निकालते रहने से शुद्ध जल खुद ही इकट्ठा होता रहता है. यह प्राकृतिक व्यवस्था है सायास (थोड़े प्रयास) दान देने से अनायास (अचानक ही) आता है . इस बात को समझाते हुए लोक कवि और संत कबीर भी मर्म,धर्म और कर्म समझाते हुए कहते हैं कि

चिड़ी चोंच भर ले गई नदी घट्यो नहिं नीर.
दान दिए धन ना घटे कह गए दास कबीर

संत कबीर ने इसी भाव को जनमानस के समक्ष रखते हुए चेताया है-

‘कबीर यह तन जात है, सके तो राख बहोर.
खाली हाथों वे गए ,जिनके लाख कटोर’

इस मानव शरीर का निर्माण ही पंच महाभूतों के दान से हुआ है
क्षीति जल पावक गगन समीरा.
पंच रचित यह अधम सरीरा
.

इतना ही नहीं इस शरीर की रचना भी देवों के द्वारा प्रदक्त दान से ही हुई है. सूर्य आत्मा‌जग तस्तस्थुष्श्च, चन्द्रमा मनसो जात: यानी, सूर्य देवता आत्म शक्ति के, चंद्रमा मन के मंगल साहस वीरता के, बुध वाक शक्ति के, गुरु ज्ञान के शुक्र संतान प्रजनन के शनि अध्यात्म शक्ति के प्रदाता माने गए हैं.

शिव पुराण में भी आया है ‘अन्नेन सदृशं दानं‌ न भूतो न भविष्यति’. पद्म पुराण में अन्न दान की बड़ी महिमा गाई गई है. अन्नदानात परं नास्ति, प्राणीनां गति दायकम्. पद्म पुराण में महाराज श्वेत‌ की‌ कथा का जिक्र आता है. उन्हें तप के प्रभाव से ब्रह्म लोक मिला ,सभी सुख मिले लेकिन अन्न व जल नहीं मिला. भूख-प्यास से व्याकुल राजा के पूछने पर ब्रह्मा जी बोले राजन तुमने अन्न जल का दान न करके केवल देह मात्र का‌ पोषण किया, इसलिए अब केवल अपना वह शरीर ही खाओ. भूख के मारे राजा को हर दिन अपने ही शरीर का मांस खाना पड़ा और जब एक दिन अगस्त ऋषि ने उनकी पीड़ा को समझकर करुणा से अपने दान के पुण्य का अंश दिया तो उन्हें मुक्ति मिली.

कर्मात्मेकं तस्त देवस्य सेवा’. जीव का मूल स्वभाव सेवा करना है. प्रत्येक जीव प्राणी किसी ने किसी रूप से घर, परिवार, समाज और राष्ट्र की सेवा में लगा हुआ है. इसलिए ही सेवा ही परमो धर्म: कहा गया है और सेवा का दान तो और भी बड़ा दान बताया गया है. इसलिए सनातन परंपरा महाकाली की श्रमशक्ति , महालक्ष्मी की धनशक्ति और मां सरस्वती की ज्ञान शक्ति का सहारा लेकर दान की कड़ी से कड़ी जोड़ते हुए मानवता की सेवा कर सकते हैं, बल्कि ऐसा करना चाहिए. क्योंकि सेवा ही प्रार्थना है, सेवा ही साधना है, सेवा ही भक्ति है और सेवा ही परमात्मा है.

बाबा रहीम भी कहते हैं-
‘देनहार कोई और है, जो देता दिन रैन,
लोग भरम हम पै करैं, तासो नीचौ नैन.’

‘देने वाला तो कोई और है, जो दिन रात मुझे दे रहा है, लेकिन लोग मेरी बड़ाई करते हैं, जिससे मेरी आंखें शर्म से झुक जाती हैं.’

✧ धार्मिक और अध्यात्मिक

Spread the love