
लेकिन कश्मीरी पंडितों के लिए सफा (पवित्र) का मतलब है – एक डरावनी सुबह.


सर्दियों में श्रीनगर में सूरज बहुत कम देर के लिए निकलता है. फारसी में इसे आफ़ताब कहते हैं. इसका उजाला डल झील पर दोपहर के करीब पड़ता है और फिर ज़बरवान की पहाड़ियों के पीछे दोपहर के बाद ही छुप जाता है.
संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)
लेकिन 4 जनवरी 1990 की सुबह और भी ज़्यादा अंधेरी थी. ये सुबह श्रीनगर के इतिहास की सबसे मनहूस और डरावनी सुबह थी.
सुबह के अखबारों अल सफा और आफ़ताब के पहले ही पन्नों पर एक डराने वाली चेतावनी छपी थी. ये चेतावनी कश्मीरी पंडितों के लिए थी, वो लोग जिनके पूर्वज, हिंदू पुजारी और विद्वान, तीन हजार साल पहले घाटी में बसने आए थे. उस चेतावनी में लिखा था: ‘चले जाओ, ये इस्लाम की जमीन है.’
ये फ़रमान दिया था हिजबुल मुजाहिदीन ने, जो पाकिस्तान से मदद पाने वाला एक नया आतंकी संगठन था, जिसने पहले ही टारगेट किलिंग से डर का माहौल बना दिया था.
लेकिन ज़्यादातर पंडितों ने इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया. वजह ये थी कि वो सदियों से इस्लामी शासकों के ज़ुल्म सहते आ रहे थे और फिर भी अपनी ज़मीन पर टिके रहे थे. उन्हें यक़ीन था कि वो अपनी पैतृक धरती पर पूरी तरह महफूज़ हैं.
इतिहास का श्राप
कहा जाता है कि कश्मीर घाटी का नाम ऋषि कश्यप के नाम पर पड़ा था. 14वीं सदी तक ये इलाका हिंदू और बौद्ध धर्म का गढ़ था. इस्लाम की कई लहरें आईं, लेकिन या तो घाटी को छू नहीं सकीं या फिर गंधार राज्य के हिंदू शाही शासकों ने उन्हें रोक दिया. इस राज्य के कश्मीर से मजबूत संबंध थे, खासकर लोहरा वंश की रानी दिद्दा (924-1003) के ज़माने में.
इस्लाम की पहली लहर चुपचाप घुसी, जब एक तिब्बती राजकुमार रिंचन ने कश्मीर की सत्ता हथिया ली और सूफ़ी संत बुलबुल शाह के प्रभाव में आकर इस्लाम कबूल कर लिया. रिंचन के बाद सत्ता में आया शाह मीर, जिसने रिंचन के बेटे और पत्नी को बंदी बना लिया और खुद इस्लामी शासन शुरू किया. इसके साथ ही जबरन या लालच से धर्म परिवर्तन का सिलसिला शुरू हुआ. कोई सामाजिक दर्जे के लिए, कोई ज़मीन और इनाम के लिए, तो कोई डर की वजह से.
जब इस वंश का छठा शासक सिकंदर शाह, जिसे ‘बुतशिकन’ यानी मूर्ति तोड़ने वाला कहा गया, 1413 में मरा, तब तक घाटी की करीब 60% आबादी इस्लाम अपना चुकी थी.
हिंदू आबादी में सबसे बड़ा हिस्सा ब्राह्मणों का था. इतिहासकारों के मुताबिक, ब्राह्मण घाटी में तीन अहम भूमिकाएं निभाते थे. पुजारी, ज्योतिषी और कारकुन (सरकारी कर्मचारी) के तौर पर.
सिकंदर शाह के ज़ुल्मों से परेशान होकर, कई कश्मीरी ब्राह्मण घाटी छोड़कर जम्मू के मैदानी इलाकों या दूसरे राज्यों की ओर चले गए. वहां उन्हें उनकी विद्वता, शिक्षा और प्रशासनिक योग्यता की वजह से सम्मान मिला और जगह भी.
अपने धर्म को छोड़ने के बाद भी, कई नए मुसलमान बने लोग अपने वंश और कुल परंपराओं से पूरी तरह अलग नहीं हो पाए. नामों में थोड़े बहुत फेरबदल हुए, लेकिन जड़ें वही रहीं. जैसे भट, धर और वाणिया (व्यापारी) बन गए बट, डार और वानी. धर्म बदल गया, लेकिन जातीय पहचान का एक नया रूप तैयार हो गया. ये नई पहचान उन्हें एक नई जगह तो देती थी, लेकिन उनका अतीत मिटा देती थी.
इतिहास कभी-कभी बहुत क्रूर मज़ाक करता है. कभी गंधार के हिंदू शाही शासक, महमूद ग़ज़नवी से लड़ते हुए शहीद हो गए थे, ताकि वो भारत में आसानी से न घुस सके. लेकिन उनके ही वंशज पाकिस्तान के जनजुआ कबीले के लोग, आज मुसलमान हैं और उसी भारत को ग़ज़नवी मिसाइलों से उड़ाने की तैयारी में रहते हैं. कुछ वैसा ही एक और दर्दनाक इतिहास, इस बार कश्मीर में दोहराया जा रहा था.
दोस्त बने दुश्मन
14 सितंबर की सुबह थी. मशहूर वकील और कश्मीरी पंडित टिकालाल टपलू हाई कोर्ट जा रहे थे. अपने घर के पास एक छोटी लड़की को रोते हुए देखा, तो रुक गए उससे बात करने. लेकिन तभी दो नकाबपोश लोग सामने आ गए और उन्होंने तीन गोलियां मार दीं. टपलू की मौके पर ही मौत हो गई. बाद में पता चला कि हमलावरों में एक था जावेद अहमद मीर ‘नलका’, जो जेकेएलएफ (JKLF) का एक्टिव मेंबर था. इसके बाद तो जैसे हत्याओं की श्रृंखला शुरू हो गई.
4 नवंबर को न्यायमूर्ति नीलकंठ गंजू की गोली मारकर हत्या कर दी गई. उन्होंने 1966 में सीआईडी इंस्पेक्टर की हत्या के मामले में मक़बूल भट को फांसी की सजा सुनाई थी. दिल्ली से लौटने के बाद से ही आतंकी उनका पीछा कर रहे थे. उन्हें श्रीनगर की भीड़भाड़ वाली मार्केट में घेरकर मारा गया.
27 दिसंबर को प्रेम नाथ भट, जो पत्रकार और वकील थे, को उनके अनंतनाग वाले घर से बाहर खींचकर निकाला गया. नकाबपोश आतंकियों ने उनके सीने में गोलियां भर दीं. चारों ओर खून फैल गया और साथ ही छोड़ा गया एक संदेश – दक्षिण कश्मीर में बचे कुछ पंडितों के लिए डर और धमकी.
उस सर्दी में श्रीनगर में कम से कम छह आतंकी संगठन सक्रिय थे. लेकिन ज्यादातर हत्याओं के पीछे था जेकेएलएफ, जिसे अमनुल्ला खान ने पाकिस्तानी ISI की मदद से बनाया था. इस संगठन का सबसे कुख्यात आतंकी था फारूक अहमद डार, उर्फ बिट्टा कराटे. उसने खुद माना कि 1989-90 के बीच उसने ISI के टॉप कमांडर अशफाक अहमद वानी के कहने पर कम से कम 20 पंडितों की हत्या की.
ये टारगेट किलिंग्स उस भीड़ के पहले कदम थे, जो धीरे-धीरे दरिंदगी की भीड़ में बदल रही थी.
एक बिखरता हुआ समुदाय
इतिहास की करवटों ने कभी भी कश्मीरी पंडितों को अपनी ही ज़मीन पर चैन से बसने नहीं दिया. लगातार मुस्लिम शासकों और फिर मुगलों के राज में इनकी आबादी घटकर 15% से भी कम रह गई थी. उसके बाद जब महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में सिख साम्राज्य आया, तब भी उन्हें कोई खास संरक्षण नहीं मिला. मजबूरी में पंडितों को 19वीं सदी के बीच तक घाटी से पलायन करना पड़ा.
थोड़ी राहत का दौर आया डोगरा शासन में, जब 1846 में अंग्रेजों और सिखों के युद्ध के बाद गुलाब सिंह ने 75 लाख नानकशाही रुपयों में अंग्रेजों से कश्मीर खरीद लिया. डोगरा राज में हिंदू आबादी घाटी में 5 से 6 प्रतिशत के बीच स्थिर रही.
लेकिन फिर एक और दौर आया पलायन का – 1947-48 के भारत-पाक युद्ध के बाद, जब पाकिस्तान ने कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा हड़प लिया.
1951 में भूमि सुधार लागू हुए, जिसमें ज़मीन रखने की सीमा तय कर दी गई. इससे भी कई पंडित घाटी छोड़ने पर मजबूर हो गए. 1990 का दशक आते-आते, पंडितों की आबादी चार प्रतिशत से भी कम रह गई थी – करीब 1,50,000 लोग (1981 की जनगणना के आंकड़ों से अंदाज़ा).
अब अलगाववादी ताक़तें इस छोटे से समुदाय को भी पूरी तरह ख़त्म करने की साज़िश रच रहे थे – और इसके साथ ही खत्म हो रही थी वो साझी विरासत, जो सदियों तक घाटी की पहचान रही थी.
धर्म बदलो, भागो या मर जाओ
4 जनवरी को कश्मीरी पंडितों को मिली धमकी के बाद से श्रीनगर में डर और सन्नाटा छा गया था. मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस सरकार पहले से ही डगमगाई हुई थी. एक थकी हुई और बेअसर सी दिखने वाली सरकार, जिस पर न तो लोगों का भरोसा था, न ही उसमें कोई ताकत बची थी.
18 जनवरी 1990 को फारूक अब्दुल्ला को पता चला कि जगमोहन-जो 1984 से 1989 तक राज्यपाल रह चुके थे और जिन्हें वो अपना पुराना विरोधी मानते थे, उन्हें फिर से राज्यपाल नियुक्त किया जा रहा है. वी.पी. सिंह सरकार ने उन्हें हालात संभालने के लिए वापस भेजने का फैसला लिया था.
गुस्से और विरोध में फारूक अब्दुल्ला ने फौरन इस्तीफा दे दिया. उनके हटते ही सत्ता का खालीपन आतंकियों के लिए एक मौका बन गया और उन्होंने इसका पूरा फायदा उठाया.
वो रात जब श्रीनगर कांप उठा
19 जनवरी 1990 की शाम ढलते ही श्रीनगर एक उग्र जानवर की तरह बर्ताव करने लगा. रात 9 बजे, घाटी की मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से अचानक ज़हर उगलती आवाज़ें गूंजने लगीं.
ठंडी हवा में गूंज रहे थे पहले से रिकॉर्ड किए गए नारे: ‘कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाह-ओ-अकबर कहना है.”यहां क्या चलेगा? निज़ाम-ए-मुस्तफा.’ ‘असी गछ्चि पाकिस्तान, बताव रॉस ते बतनेव सान.’ (हमें पाकिस्तान चाहिए – पंडित औरतों के साथ, उनके मर्दों के बिना)
9:30 बजे तक, ये नारे एक गूंजती हुई दहशत में बदल गए. हर पंडित घर के अंदर सारे दरवाज़े-खिड़कियां बंद, पूरा परिवार एक कोने में सिमटा हुआ. हर कदम की आहट पर दिल की धड़कन रुक रही थी, हर पल ऐसा लग रहा था जैसे कुछ भयानक होने वाला है.
बाहर गलियों में नकाबपोश लोग, हाथों में कलाईश्निकोव लिए, घूम रहे थे. वो दीवारों पर पोस्टर चिपका रहे थे, पंडितों के घरों को लाल रंग से निशान लगा रहे थे.
फरमान साफ थे, इस्लामी पहनावा अपनाओ, शराब छोड़ो, सिनेमा बंद करो, पाकिस्तान के समय के अनुसार घड़ी मिलाओ. या तो इस्लाम कबूल करो, घाटी छोड़ो, या मरने के लिए तैयार हो जाओ.
पुलिस गायब थी. प्रशासन जैसे कहीं लुप्त हो गया हो. सेना का कोई नाम-निशान नहीं. फोन उठाए नहीं जा रहे थे. मदद की पुकारें हवा में खो जाती थीं.
जब पंडित डर में सिमटे हुए थे, बाहर एक और तूफान उठ रहा था. मुस्लिम बहुल आबादी सड़कों पर उतर चुकी थी. हज़ारों की भीड़ नारे लगा रही थी: ‘इंडियन डॉग्स गो बैक!’ ‘आज़ादी का मतलब क्या? ला इलाहा इलल्लाह!’ मस्जिदों से लोगों को आवाज़ दी जा रही थी – ‘अब आखिरी बार निकलो, भारत की गुलामी की जंजीरें तोड़ दो.’
इंडिया टुडे ने इस रात को कहा: ‘खुलेआम बगावत’, भारत की ताकत और वैधता को सीधी चुनौती.
निर्गमन की सुबह
आधी रात तक पंडित समझ चुके थे. अब यहां रहना मुमकिन नहीं. धीरे-धीरे बैग पैक हुए, क्या ले जाएं और क्या छोड़ें, ये फैसले आंसुओं के बीच लिए गए.
अगली सुबह उन्होंने अपना सब कुछ पीछे छोड़कर घाटी छोड़ना शुरू कर दि. सदियों की यादें, सपने, घर, बाग-बगीचे, सब कुछ उन दरिंदों के हवाले, जो बस निगल जाने के लिए तैयार बैठे थे.
आने वाले कुछ महीनों में करीब एक लाख से डेढ़ लाख कश्मीरी पंडित, यानी लगभग पूरा समुदाय, घाटी से भाग गया. किसी ने रिफ्यूजी कैंपों में शरण ली, कोई दूर शहरों में जा बसा. और वहीं से उन्होंने फिर से अपनी जिंदगी की नई शुरुआत की.
कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के मुताबिक, 1990 से 2011 के बीच 399 पंडित मारे गए, जिनमें से तीन-चौथाई मौतें 1990 में ही हुईं. हर नाम, क्रूरता की एक कहानी है: लस्सा कौल, 13 फरवरी को गोली मारी गई. बी.के. गंजू, 19 मार्च को चावल के ड्रम में छुपे मिले और वहीं मार डाले गए. सरवनंद कौल प्रेमी और उनके बेटे को 29 अप्रैल को फांसी पर लटकाया गया, आंखें तक निकाल ली गईं. गिरिजा टिक्कू का 4 जून को गैंगरेप किया गया, फिर जिंदा हालत में आरी से काट डाला गया.
सड़कों पर भी भीड़ लगातार भारत की हार की उम्मीद में प्रदर्शन कर रही थी. 21 जनवरी को लाल चौक के पास गॉवकदल पुल पर गुस्सा फूट पड़ा. CRPF ने भीड़ पर गोली चला दी, 25 से 55 लोगों की मौत, कोई गोली से मरा, कोई झेलम में डूब गया.
कश्मीर की ये घाटी, हिंसा और बदले की आग में जलती गई, और धीरे-धीरे आतंकवाद और दमन के चक्रव्यूह में फंसती चली गई. आज भी झेलम बहती है, लेकिन अब उसके पानी में शहर के गम का बोझ है. एक ऐसा अतीत, जो आज भी भूलता नहीं, मिटता नहीं.

