बिजली निजीकरण पर बढ़ता बवंडर: यूपी से उत्तराखंड तक चिंता, जनता पर भारी पड़ेगा ‘रोशनी का दाम’?

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उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगमों के प्रस्तावित निजीकरण की आहट अब पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भी गूंज रही है। बुधवार को देहरादून में उत्तराखंड पावर इंजीनियर्स एसोसिएशन के बैनर तले अभियंताओं ने जबरदस्त प्रदर्शन किया। यह आंदोलन महज पेशेवर हितों की रक्षा नहीं, बल्कि आम उपभोक्ताओं के भविष्य की चिंता का भी इजहार था।

नेशनल कोऑर्डिनेशन कमेटी ऑफ इलेक्ट्रिसिटी इंप्लाइज एंड इंजीनियर्स के आह्वान पर हुए इस प्रदर्शन ने साफ कर दिया कि यदि निजीकरण की योजना पर अमल हुआ, तो इसका बोझ सीधे जनता पर पड़ेगा। इसी के तहत संगठन ने आगामी 9 जुलाई को हड़ताल का ऐलान किया है।

निजीकरण के फायदे – सरकार की नजर से

सरकारें आमतौर पर बिजली क्षेत्र के निजीकरण को ‘सुधार’ (Reforms) के रूप में पेश करती रही हैं। इसके पीछे मुख्य तर्क होते हैं –

  • प्रबंधन दक्षता: निजी कंपनियों के आने से कर्मचारी-व्यवस्था, बिलिंग सिस्टम, वसूली और तकनीकी नुकसान (Technical Losses) में कमी लाई जा सकती है।
  • नई पूंजी और तकनीक का निवेश: निजी कंपनियां बेहतर तकनीक और आधुनिक उपकरण लाकर बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता सुधार सकती हैं।
  • राजकोषीय बोझ में कमी: घाटे से जूझती वितरण कंपनियों पर सब्सिडी और आर्थिक मदद देने का भार सरकार पर कम होगा।
  • ग्राहक सेवा में सुधार: प्रतिस्पर्धा के चलते उपभोक्ताओं को तेज और बेहतर सेवाएं मिलने की संभावना जताई जाती है।

नुकसान – कर्मचारियों और उपभोक्ताओं की नजर से

हालांकि उत्तराखंड और यूपी के इंजीनियर्स व कर्मचारी संगठनों की दलीलें बिल्कुल अलग हैं। उनका कहना है कि निजीकरण सिर्फ कंपनियों का मुनाफा बढ़ाएगा, न कि उपभोक्ता का भला करेगा। प्रमुख चिंताएं हैं:

  • दरें होंगी महंगी: फिलहाल सरकारी वितरण कंपनियां सब्सिडी और सामाजिक जिम्मेदारियों के तहत काम कर रही हैं। निजी कंपनियां केवल लाभ देखती हैं। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि यदि निजीकरण हुआ तो बिजली की दरें 10-12 रुपये प्रति यूनिट तक पहुंच सकती हैं, जबकि आज यह दर 3-5 रुपये प्रति यूनिट के बीच है।
  • गरीब और मध्यम वर्ग पर सीधा असर: महंगे बिजली बिल निम्न और मध्यम वर्गीय उपभोक्ताओं के लिए जबरदस्त आर्थिक दबाव का कारण बनेंगे। कई लोग बिजली के सीमित उपयोग या फिर लालटेन के युग में लौटने को मजबूर हो सकते हैं।
  • सब्सिडी का अंत: निजी कंपनियां घाटे में चलने वाले उपभोक्ता वर्गों को बिजली देना पसंद नहीं करेंगी। इससे गांवों, पहाड़ों और दूरदराज के इलाकों की बिजली आपूर्ति पर संकट आ सकता है।
  • कर्मचारियों की नौकरी असुरक्षित: कर्मचारियों को डर है कि निजी कंपनियां लागत कम करने के लिए छंटनी या ठेका प्रथा लागू करेंगी।

उत्तराखंड का संदर्भ – क्या सचमुच खतरा करीब?

उत्तराखंड में बिजली क्षेत्र पहले से ही कई चुनौतियों से जूझ रहा है। पहाड़ी इलाकों में वितरण लागत ज्यादा है, लाइन लॉस अधिक है और राजस्व वसूली भी कठिन है। निजी कंपनियों के लिए ये परिस्थितियां अनुकूल नहीं।

  • ऊंची लागत: पहाड़ में ट्रांसमिशन नेटवर्क को बनाए रखना मुश्किल और खर्चीला है। निजी कंपनियां घाटे वाले इलाकों में निवेश से बच सकती हैं।
  • सरकारी देनदारियां: उत्तर प्रदेश की तरह उत्तराखंड सरकार पर भी बिजली विभाग के बकाये हैं, जिन्हें छिपाकर निजीकरण को तर्कसंगत ठहराना असंभव नहीं। यूपी के आंकड़े चौंकाते हैं — सरकारी विभागों पर 14,400 करोड़ रुपये बकाया हैं, जिन्हें चुकाए बिना घाटा दिखाया जा रहा है।
  • जनता की नाराज़गी: जैसे गैस सिलेंडर का दाम धीरे-धीरे 350 रुपये से बढ़कर 1000 रुपये तक पहुंचा, वैसे ही बिजली बिल भी 1500 से 5000 रुपये तक पहुंच सकते हैं — यह आशंका अभियंताओं की है। और जनता इस आशंका को बिल्कुल हल्के में नहीं ले रही।

निजीकरण से सरकार को क्या मिलेगा?

  • घाटे में चल रही वितरण कंपनियों के वित्तीय बोझ से राहत।
  • तकनीकी सुधार और सिस्टम लॉस कम करने की संभावना।
  • निजी निवेश से इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार।
  • संभावित रूप से कर्मचारियों के वेतन-भत्तों के बोझ में कमी।

पर आम जनता को क्या चुकाना होगा?

  • बढ़ा हुआ बिजली बिल।
  • सब्सिडी खत्म होने के कारण गरीब और ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली पहुंच में कमी।
  • उपभोक्ताओं के पास शिकायत निवारण के सीमित विकल्प, क्योंकि निजी कंपनियां मुनाफा पहले देखेंगी।
  • कर्मचारियों में असुरक्षा, जिससे काम का माहौल प्रभावित हो सकता है।

निष्कर्ष

उत्तराखंड में अभियंताओं का विरोध सिर्फ सरकारी नौकरी बचाने के लिए नहीं है। यह एक सामाजिक सवाल भी है — क्या बिजली जैसी बुनियादी सेवा को पूरी तरह बाजार के हवाले किया जा सकता है?

जिस तरह गैस के सिलेंडर की कीमतें आसमान छू गईं और आम आदमी की जेब पर बोझ पड़ा, वैसी ही स्थिति बिजली के साथ ना हो जाए, यह डर हर किसी के दिल में है। उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य में निजी कंपनियों की रुचि कमाई तक सीमित रहेगी, दूर-दराज के उपभोक्ताओं की तकलीफें कोई नहीं देखेगा।

यूपी में उठे निजीकरण के कदम भले तात्कालिक राहत दिलाने वाले दिखें, लेकिन उत्तराखंड समेत पूरे देश के लिए यह सवाल छोड़ जाते हैं – रोशनी का दाम आखिर कौन चुकाएगा?



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