
इतिहास की चेतावनी से भविष्य की रक्षा,कोरोना—यह नाम ही आज भी लाखों दिलों को सिहरन दे देता है। जो लोग 2020-2022 के बीच के भयावह दिन भूल चुके हैं, उन्हें यह लेख दोबारा याद दिलाने आया है कि लापरवाही और विकृत मानसिकता ने किस तरह मानवता को संकट में डाला। आज जबकि कोरोना वायरस दोबारा तेजी से फैल रहा है, हमारे समक्ष एक बार फिर वही चुनौती है: आत्म-संयम, सतर्कता, और समाज के प्रति उत्तरदायित्व। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती है—हमारे बीच मौजूद वे लोग जिनकी मानसिकता ही महामारी को आमंत्रित करती है।
पहली लहर की स्मृतियाँ और सबक
जब कोरोना पहली बार भारत में आया, तो पूरा देश स्तब्ध रह गया। लॉकडाउन, मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग—ये सब अचानक हमारे जीवन का हिस्सा बन गए। लेकिन इसी कालखंड में, जब हर कोई एक-दूसरे की सुरक्षा के लिए घरों में कैद था, कुछ लोग ऐसे भी थे जो संक्रमित होने के बावजूद खुलेआम लोगों से मिल रहे थे, समारोहों में शामिल हो रहे थे, और वायरस को फैलाने का कार्य कर रहे थे।


“हम तो डूबे सनम, तुम्हें भी ले डूबेंगे”: मानसिकता की महामारी,यह कोई रूपक नहीं, बल्कि वास्तविकता थी। रुद्रपुर, उत्तराखंड से लेकर देशभर में ऐसे तमाम उदाहरण सामने आए जहाँ संक्रमित लोग जानबूझकर दूसरों से हाथ मिला रहे थे, गले मिल रहे थे, और यह कहते पाए गए कि “अब तो सबको हो ही जाना चाहिए।”
इनका यह विकृत सोच—”अगर मुझे हुआ है, तो दूसरों को क्यों न हो”—न केवल असामाजिक है, बल्कि यह एक प्रकार की जैविक आतंकवाद जैसी सोच है। यही सोच दूसरी… यही सोच दूसरी लहर के दौरान पूरे देश में तबाही का कारण बनी। अस्पतालों के बाहर तड़पते लोग, ऑक्सीजन के लिए भटकते परिजन, श्मशानों की कतारें—ये सब केवल एक वायरस की शक्ति का परिणाम नहीं थे, बल्कि उस सामूहिक गैर-जिम्मेदार मानसिकता का भी दुष्परिणाम थे जिसने चेतावनियों को नजरअंदाज किया और अनुशासन को अपमानित किया।
तीसरी लहर और टीकों का बलिदान
टीकाकरण अभियान के चलते तीसरी लहर अपेक्षाकृत कमजोर रही, लेकिन तब भी लोगों की लापरवाही ने इसे पूरी तरह खत्म नहीं होने दिया। वैक्सीन से दूरी बनाकर, नकली अफवाहें फैलाकर, और सोशल मीडिया पर वैज्ञानिक तथ्यों की जगह फालतू वीडियो प्रचारित कर कुछ लोगों ने समाज के लिए खतरा बन जाना स्वीकार कर लिया।
जब “स्वतंत्रता” बन जाए “स्वेच्छाचार”
आज जब एक बार फिर कोरोना के केस बढ़ने लगे हैं, तो वही पुरानी दलीलें वापस आ रही हैं—”मास्क से दम घुटता है”, “हमें कुछ नहीं होगा”, “कोरोना अब खत्म हो गया”, “सरकार झूठ बोल रही है”। यह सोच दरअसल उस आत्ममुग्ध समाज की निशानी है जिसे अनुशासन, वैज्ञानिक चेतना और सामाजिक उत्तरदायित्व की कोई परवाह नहीं।
यह सोच केवल कोरोना तक सीमित नहीं है। यही मानसिकता यातायात नियमों को तोड़ती है, पर्यावरण की अनदेखी करती है, और चुनावों में शराब और जातिवाद पर वोट देती है। यह एक व्यापक सामाजिक बीमारी है, जो हर क्षेत्र में महामारी जैसे परिणाम देती है।
शासन, विज्ञान और समाज की तिकड़ी,इस बार अगर हम फिर चूक गए तो न दोष केवल शासन का होगा, न केवल वायरस का। जिम्मेदार हम सभी होंगे—खासतौर पर वे जो भीड़ जुटाते हैं, शादी-ब्याह को शान का विषय मानते हैं, और बुखार होते हुए भी ऑफिस और बाजारों में जाते हैं। प्रशासन को इस बार न केवल वायरस से, बल्कि अफवाहों और अराजक मानसिकताओं से भी लड़ना होगा।
सरकारों को चाहिए कि कोरोना की पुनरावृत्ति की इस लहर को हल्के में न लें। टेस्टिंग, ट्रेसिंग और ट्रीटमेंट के पुराने फॉर्मूले को फिर से क्रियान्वित करें। और समाज को चाहिए कि वह ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार करे जो दूसरों की जान से खेलने को अपना अधिकार समझते हैं।
बीमारी से पहले मानसिकता का इलाज ज़रूरी,कोरोना कोई पहला या आखिरी वायरस नहीं है, लेकिन यह जरूर पहली बार है कि हमने अपने भीतर के सामाजिक और मानसिक वायरस को इतने करीब से देखा है। जब कोई व्यक्ति कहता है कि “अब तो सबको होना ही है”, तो वह वायरस से बड़ा खतरा बन जाता है। समाज को ऐसे लोगों से सजग रहना होगा, और सरकार को सख्ती से पेश आना होगा।इस बार अगर हमें खुद को बचाना है, तो केवल मास्क पहनना काफी नहीं—हमें सोच बदलनी होगी। महामारी से बड़ी महामारी है वह सोच, जो खुद को अजेय और दूसरों की जान को तुच्छ समझती है। इस सोच का इलाज न हुआ, तो अगली महामारी केवल वायरस से नहीं, बल्कि समाज की भीतर से ही उठेगी।
संपादकीय विशेष प्रस्तुति: हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स
लेखक: अवतार सिंह बिष्ट, विशेष संवाददाता, रुद्रपुर
