संपादकीय;लोकतंत्र में पारदर्शिता की कसौटी: पंचायत चुनाव खर्च और जवाबदेही

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उत्तराखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव की प्रक्रिया ज़ोरों पर है। हरिद्वार को छोड़ राज्य के शेष 12 जिलों में लोकतंत्र के इस उत्सव में हज़ारों प्रत्याशी किस्मत आज़मा रहे हैं। मगर यह केवल चुनाव जीतने या हारने की बात नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक अहम कसौटी – पारदर्शिता और जवाबदेही – की भी परीक्षा है।

संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट

राज्य निर्वाचन आयोग का सख़्त निर्देश है कि चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक प्रत्याशी – चाहे वह निर्विरोध ही क्यों न चुना गया हो – को चुनाव परिणाम घोषित होने के 30 दिनों के भीतर अपने चुनावी खर्च का पूरा ब्योरा जिला निर्वाचन अधिकारी को देना अनिवार्य है। खर्च का यह हिसाब नामांकन की तिथि से लेकर परिणाम घोषित होने तक की अवधि का होना चाहिए, और इसके समर्थन में बिल व वाउचर भी संलग्न करना ज़रूरी है।

यह कोई मामूली औपचारिकता नहीं। यदि कोई प्रत्याशी तय समय में यह लेखा-जोखा नहीं देता, या अपूर्ण अथवा त्रुटिपूर्ण विवरण दाखिल करता है, तो उसे तीन वर्षों तक चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित किया जा सकता है। यह प्रावधान अपने आप में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने का उपाय है। चुनावी पारदर्शिता ही जनविश्वास की रीढ़ है। बिना हिसाब-किताब के, चुनाव प्रणाली में काला धन, अनैतिक दबाव और ग़लत प्रलोभनों की घुसपैठ होती है, जिससे सबसे अधिक नुकसान जनता को होता है।

दूसरी ओर, इस बार का पंचायत चुनाव एक और खास बात के लिए चर्चा में है – आपदा प्रबंधन की तैयारी। राज्य निर्वाचन आयोग ने जिलाधिकारियों को निर्देश दिए हैं कि चुनाव के दौरान कोई आपदा बाधक न बने। सड़कों को खुला रखना, चिकित्सकीय सुविधाएं मुहैया कराना, एनडीआरएफ और एसडीआरएफ की तैनाती जैसे उपाय योजना में शामिल किए जा रहे हैं। नौ जुलाई को इस पर जिलाधिकारियों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग होगी। यह एक दूरदर्शी और व्यावहारिक कदम है। उत्तराखंड का भौगोलिक परिदृश्य प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज़ से संवेदनशील है। इसलिए चुनावी प्रक्रिया के साथ आपदा प्रबंधन का तालमेल अत्यंत आवश्यक है।

मगर असली सवाल यह है कि क्या ये नियम और योजनाएँ ज़मीनी हकीकत में पूरी तरह लागू हो पाती हैं? चुनावी खर्च का लेखा-जोखा जमा करने की बाध्यता एक आदर्श व्यवस्था है, परंतु अक्सर यह केवल कागज़ी औपचारिकता बनकर रह जाती है। कई बार छोटे स्तर के चुनावों में खर्च की सीमा का पालन करने के बजाय उसे कागजों में “मैनेज” कर दिया जाता है। ऐसे में यह ज़रूरी है कि जिला निर्वाचन अधिकारी और राज्य निर्वाचन आयोग पूरी सख्ती दिखाएं, और नियमों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कार्रवाई सुनिश्चित करें।

त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव लोकतंत्र की सबसे बुनियादी इकाई – ग्रामसभा – को ताकत देता है। यहां से ही लोकतंत्र की असली परख शुरू होती है। यदि ग्राम स्तर पर ही खर्च पारदर्शी और जवाबदेह नहीं रहेगा, तो ऊंचे स्तर पर सुधार की अपेक्षा करना बेमानी है।

राज्य निर्वाचन आयोग के दिशा-निर्देशों का पालन कराना केवल प्रशासन की ज़िम्मेदारी नहीं है, बल्कि जनता, मीडिया और हर जागरूक नागरिक की भी जिम्मेदारी है। लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए हमें चाहिए कि हम न सिर्फ अपने मताधिकार का प्रयोग करें, बल्कि चुनाव प्रक्रिया को ईमानदारी और पारदर्शिता की कसौटी पर कसें।

अंततः, चुनावी खर्च का लेखा-जोखा जमा कराने की बाध्यता और आपदा प्रबंधन की तैयारी दोनों ही लोकतंत्र के लिए आवश्यक कदम हैं। इनका सख़्ती से पालन ही उत्तराखंड के पंचायत चुनावों को न केवल सफल, बल्कि विश्वसनीय और आदर्श बना सकता है। उम्मीद है कि न केवल प्रत्याशी, बल्कि प्रशासन भी इस कसौटी पर खरा उतरेगा।



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