परशुराम जयंती 2025: ब्राह्मण होकर क्षत्रिय स्वभाव, और वह युग जब फल खाकर होते थे पुत्र – अब समझिए उस ‘आध्यात्मिक विज्ञान’ की हकीकत

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हर साल वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाई जाती है भगवान परशुराम की जयंती। 2025 में यह तिथि 30 अप्रैल को पड़ रही है। पंचांग के अनुसार, तृतीया तिथि का सूर्योदय इस दिन हो रहा है, इसलिए इसी दिन उनका जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया जाएगा। लेकिन आज हम सिर्फ पूजा-पाठ या कथा नहीं करेंगे, बल्कि इस कथा की तह तक जाएंगे – वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, सामाजिक परिप्रेक्ष्य से और धार्मिक आस्था की आड़ में फैली उन साजिशों की ओर भी एक कटाक्ष करेंगे, जिनका मकसद था सत्ता और स्त्रियों पर नियंत्रण।

शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)संवाददाता

ब्राह्मण का क्षत्रिय पुत्र – या सत्ता की राजनीति?

भगवान परशुराम को आमतौर पर विष्णु के छठे अवतार के रूप में पूजा जाता है, लेकिन उनकी जीवनकथा में एक ऐसा मोड़ है जो प्रश्न उठाने को मजबूर करता है। महाभारत की कथा के अनुसार, उनकी दादी यानी सत्यवती को उनके ससुर ऋषि भृगु ने एक फल दिया था, जिसे गूलर या पीपल के पेड़ के आलिंगन के बाद खाने की शर्त थी। पर गलती से वृक्ष बदल गए, फल खा लिया गया, और नतीजा – ब्राह्मण कुल में एक ऐसा पुत्र जन्मा जो क्षत्रिय स्वभाव वाला था।

अब सोचिए – क्या किसी फल में ऐसे गुण हो सकते हैं कि वह संतान के स्वभाव और कुलधर्म को बदल दे? या फिर यह एक सुव्यवस्थित तंत्र था, जिसके पीछे की सच्चाई कुछ और ही थी?

क्या यह ‘फल’ दरअसल कोई बहाना था?

हमारे यहां परंपरा रही है कि जब कोई बात समझाई नहीं जा सकती, तो उसे “आध्यात्मिक चमत्कार” का नाम दे दो। फल खा कर गर्भ धारण करना, गंगा में स्नान कर पाप धुल जाना, या किसी साधु के आशीर्वाद से पुत्र-प्राप्ति – ये कथाएं केवल भावनाओं के आधार पर जनता को समझाई गईं। असल में, कई बार यही साधु और तथाकथित ऋषि, सत्ता के लोभी राजा-महाराजाओं की रानियों तक पहुंच बना कर “ईश्वरीय संतान” की आड़ में अवैध संबंध बनाते थे।

परशुराम – पराक्रमी या पितृसत्ता के रक्षक?

परशुराम को अक्सर एक योद्धा ब्राह्मण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है – जो क्षत्रियों के अत्याचार से त्रस्त होकर उन्हें बार-बार मारते हैं। लेकिन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह कथा दरअसल समाज में ब्राह्मणवादी सत्ता की स्थापना और क्षत्रिय सत्ता के खिलाफ एक विद्रोह का संकेत भी हो सकती है।

ध्यान दें – यह वही परशुराम हैं जिन्होंने अपनी मां रेणुका का सिर काटने का आदेश अपने पिता से मिलने पर बिना सवाल माने मान लिया। क्या यह एक आदर्श पुरुष की छवि है? या फिर यह एक ऐसा प्रतीक है जो उस समय की पितृसत्ता और अनुशासन को ईश्वरीय आदेश बताकर थोपता था?

आज के बाबाओं की असलियत

यदि उस युग में फल खाकर संतानें होती थीं, तो आज के युग में चमत्कार दिखाने वाले कई बाबाओं ने ‘फल’ की जगह ‘फंडा’ पकड़ लिया है। धर्म की आड़ में चल रहे कई घोटाले, आश्रमों में स्त्रियों का शोषण, और कई बाबाओं की अवैध संतानों की कहानियाँ सामने आ चुकी हैं। उस युग के “फल-कांड” आज के “फ्लैट-कांड” बन चुके हैं। जनता तब भी अंधभक्त थी, और आज भी – फर्क बस इतना है कि तब गाथाएं महाभारत में दर्ज हुईं, आज वायरल वीडियो बनती हैं।

परशुराम जयंती एक धार्मिक अवसर है, लेकिन साथ ही यह मौका है उन कथाओं पर दोबारा विचार करने का, जो पीढ़ियों तक बिना सवाल के स्वीकार की जाती रहीं। क्या वाकई परशुराम का जन्म एक फल की वजह से हुआ था? या यह ब्राह्मण सत्ता द्वारा रचा गया एक सामाजिक ‘संकल्प’ था, जो क्षत्रियों को नियंत्रित करने के लिए कथा बनकर पीढ़ियों तक फैला?

आज जब विज्ञान और समाज विकास के नए सोपानों को छू रहा है, तो यह जरूरी है कि हम धर्म की उन कथाओं को श्रद्धा से नहीं, विवेक से पढ़ें – ताकि आने वाली पीढ़ियां अंधविश्वास नहीं, तार्किक सोच को अपनाएं।

परशुराम वह अवतार हैं जिन्होंने पृथ्वी से 21 बार क्षत्रियों का संहार किया। कारण? उनके पिता को किसी राजा ने नाराज कर दिया था। और जब मां रेणुका ने ‘संशयास्पद’ आचरण किया, तो पिता ने पुत्र से कहा – “जा, मां का सिर काट दे।” और परशुराम बिना किसी सवाल के तलवार लेकर चल पड़े।

यह कैसी सनातन मर्यादा है जहां मां के लिए दया नहीं, लेकिन अपमान का बदला लेने के लिए नरसंहार उचित है? क्या यह सच्चा धर्म है, या हिंसा को धार्मिक रंग देने का तरीका?



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