संपादकीय:नैनीताल जिला पंचायत चुनाव: लोकतंत्र के पर्व पर सवालों की गूंज

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नैनीताल जिला पंचायत अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद के चुनाव के नतीजे आखिरकार घोषित हो गए। भाजपा की दीपा दर्मवाल अध्यक्ष पद पर केवल एक वोट से विजयी रहीं, जबकि उपाध्यक्ष पद पर कांग्रेस की देवकी बिष्ट का भाग्य लॉटरी के जरिये खुला। परिणाम लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत आया है, लेकिन इस चुनाव ने जिस तरह से बवाल, आरोप-प्रत्यारोप, हाथापाई और अदालत की दखल देखी, उसने लोकतंत्र की गरिमा पर गहरे सवाल खड़े कर दिए हैं।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर (उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी)

अध्यक्ष पद पर भाजपा प्रत्याशी की जीत और उपाध्यक्ष पद पर कांग्रेस की किस्मत का साथ—दोनों ही घटनाएं लोकतंत्र की विडंबना को दर्शाती हैं। एक ओर जनता के प्रतिनिधियों के मत इतने बंटे कि एक वोट ने तस्वीर बदल दी, वहीं दूसरी ओर लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे अहम पद लॉटरी से तय करना पड़ा। यह स्थिति न केवल लोकतंत्र की मजबूती बल्कि उसकी असुरक्षा की भी झलक दिखाती है।

इस पूरे घटनाक्रम के दौरान सबसे अधिक चिंता का विषय रहा—जनप्रतिनिधियों का अपहरण और वोट डालने से रोकने के आरोप। विपक्ष ने खुलेआम सत्ता पक्ष पर लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगाया। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि मतदान जैसे गंभीर अवसर पर पुलिस और प्रशासन को “मूकदर्शक” होने का आरोप झेलना पड़ा। उच्च न्यायालय को बीच में आकर जनप्रतिनिधियों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी पड़ी—यह बताता है कि चुनाव प्रक्रिया कितनी असुरक्षित और विवादित हो गई थी।

विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच हाथापाई, फेसबुक लाइव पर घटती घटनाओं का प्रसारण, और अदालत में रोक की मांग—ये सभी दृश्य लोकतांत्रिक परिपक्वता से ज्यादा राजनीतिक नाटकीयता का अहसास कराते हैं। लोकतंत्र में असहमति स्वाभाविक है, लेकिन असहमति जब अराजकता में बदल जाए, तो यह लोकतंत्र की आत्मा को कमजोर करती है।

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भाजपा प्रत्याशी को जीत की बधाई दी और इसे लोकतंत्र की जीत बताया। लेकिन सवाल यह है कि क्या वास्तव में यह लोकतंत्र की जीत है, या फिर सत्ता की बाजीगरी और किस्मत का खेल? जब वोटरों को सुरक्षित मतदान केंद्र तक पहुंचाने के लिए अदालत को आदेश देना पड़े, तो यह जीत लोकतंत्र की नहीं बल्कि लोकतंत्र की बेचारगी की गवाही देती है।

आज नैनीताल का यह चुनाव पूरे उत्तराखंड के लिए एक सबक है। यह बताता है कि स्थानीय चुनाव भी अब निष्पक्षता और गरिमा की बजाय शक्ति प्रदर्शन और जोड़ों-तोड़ की राजनीति का अखाड़ा बन चुके हैं। एक वोट से जीत और लॉटरी से फैसला लोकतंत्र की मजबूती नहीं, उसकी अस्थिरता का संकेत है।

लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब राजनीतिक दल सत्ता की भूख से ऊपर उठकर जनता की सेवा और नैतिक राजनीति को प्राथमिकता देंगे। अन्यथा, लोकतंत्र का यह पर्व केवल संख्याओं का खेल और नाटकीय घटनाओं का मंच बनकर रह जाएगा।



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