“रामनगर विवाद: पत्रकारिता की आज़ादी बनाम राजनीतिक अनुशासन — सच्चाई किस ओर है?

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लोकतंत्र में पत्रकारिता और राजनीति दोनों ही जनता के प्रतिनिधि हैं — एक कलम से जनता की आवाज़ उठाता है, दूसरा निर्णयों से।
लेकिन जब दोनों के अधिकार एक-दूसरे की सीमा में प्रवेश करने लगते हैं, तब विवाद जन्म लेते हैं।
रामनगर में आयोजित उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) के अधिवेशन में ऐसा ही एक प्रकरण सामने आया, जहाँ मीडिया कवरेज को लेकर असहमति ने विवाद का रूप ले लिया।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

इस घटना को लेकर सोशल मीडिया और मुख्यधारा मीडिया में दो विरोधी कथाएँ चल रही हैं —
एक कहती है कि पत्रकारों के साथ अभद्रता हुई,
दूसरी कहती है कि पत्रकारों ने दल के नियमों की अनदेखी की।
सच शायद इन दोनों के बीच कहीं है।

पृष्ठभूमि — अधिवेशन और उसकी सीमाएँ?रामनगर में यूकेडी का अधिवेशन एक राजनीतिक संगठनात्मक बैठक थी, जिसमें पार्टी के पदाधिकारी, कार्यकर्ता और आमंत्रित सदस्य शामिल थे।
जानकारी के अनुसार, दल के संविधान के तहत मीडिया को केवल उद्घाटन सत्र और सार्वजनिक ब्रीफिंग तक सीमित रहने की अनुमति थी।
अंदरूनी चर्चा — जो रणनीतिक और संगठनात्मक थी — उसके लिए पत्रकारों का प्रवेश वर्जित रखा गया था।

ऐसे प्रावधान लगभग हर राजनीतिक दल में होते हैं — भाजपा, कांग्रेस या आम आदमी पार्टी तक अपने इन-कैमरा सत्रों में मीडिया को नहीं आने देतीं।
इसलिए यूकेडी का यह निर्णय असामान्य नहीं था।
घटना का क्रम?प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, अधिवेशन के दौरान News18 Uttarakhand के एक पत्रकार को पाँच बार कैमरा बंद करने का अनुरोध किया गया।
उनसे कहा गया कि यह सत्र मीडिया कवरेज के लिए नहीं है, बाद में अलग से बाइट और प्रेस नोट दिया जाएगा।
लेकिन वे वीडियो रिकॉर्डिंग जारी रखे रहे।
इसके बाद कुछ कार्यकर्ताओं ने उन्हें बाहर जाने को कहा, और माहौल गरमा गया।

इसी बीच यूट्यूब पत्रकार ‘रवि के बिंदास बोल’ भी वहां मौजूद थे।
जब उन्हें मना किया गया, उन्होंने कैमरा बंद कर बाहर से कवरेज करने का निर्णय लिया।
उनका व्यवहार संयमित रहा और विवाद उनसे नहीं हुआ।

घटना के तुरंत बाद कुछ मीडिया प्लेटफॉर्म ने इसे “पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार” की खबर के रूप में चलाया,
जबकि दल के नेताओं ने कहा — “हमने केवल अपने नियमों का पालन करवाया, किसी से अभद्रता नहीं की।”

पत्रकारिता की आज़ादी — क्या इसकी भी सीमा है?भारत का संविधान पत्रकारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है,
परंतु यह स्वतंत्रता संपूर्ण नहीं, बल्कि युक्तिसंगत प्रतिबंधों के अधीन है।
जहाँ प्रवेश प्रतिबंधित हो, वहाँ जबरन कैमरा चलाना न केवल अनुचित है, बल्कि कई बार गोपनीय जानकारी के दुरुपयोग का कारण भी बन सकता है।

पत्रकारों को यह समझना होगा कि हर सभा प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं होती।
राजनीतिक दलों के भीतर विचार-विमर्श और रणनीति भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा हैं।
उन पर कैमरा घुसा देना पारदर्शिता नहीं, अनुशासनभंग कहलाता है।

यूकेडी की भूमिका और जिम्मेदारी?दूसरी ओर, यूकेडी जैसी पुरानी पार्टी से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह पत्रकारों के साथ संवाद का बेहतर तंत्र बनाए।
अगर कार्यक्रम में मीडिया प्रतिबंध था, तो इसकी पूर्व जानकारी पत्र या नोटिस के रूप में दी जानी चाहिए थी।
स्पष्ट सूचना से गलतफहमी की संभावना कम होती है।

विवाद के बाद पार्टी पदाधिकारियों ने संयम दिखाया और पत्रकारों को सम्मानपूर्वक बाहर तक छोड़ा —
यह उनकी परिपक्वता दर्शाता है।
लेकिन यह भी सच है कि कार्यकर्ताओं का व्यवहार कहीं-कहीं आक्रामक प्रतीत हुआ, जिसे टाला जा सकता था।
राजनीति में संयम हमेशा शक्ति का प्रतीक होता है।

मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल
/हाल के वर्षों में मीडिया की छवि “लोकतंत्र के चौथे स्तंभ” से खिसककर “सत्ता के ठेकेदार” जैसी होती जा रही है।
विज्ञापनों और राजनीतिक निकटताओं ने कई चैनलों की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगाए हैं।
यूकेडी समर्थकों का आरोप है कि कुछ चैनल विशेष रूप से भाजपा सरकार के पक्ष में प्रचार करते हैं और क्षेत्रीय दलों की खबरों को तोड़-मरोड़कर दिखाते हैं।

ऐसे में यह आशंका निराधार नहीं कि इस प्रकरण को भी सनसनीखेज बनाने के लिए बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया।
पत्रकारिता का धर्म सूचना देना है, उत्तेजना फैलाना नहीं।

सोशल मीडिया और “तुरंत न्याय” की प्रवृत्ति?घटना के तुरंत बाद सोशल मीडिया पर वीडियो क्लिप्स वायरल होने लगे।
लेकिन उनमें से अधिकांश क्लिप संदर्भविहीन थे —
किसी में केवल बहस का हिस्सा दिखा, तो किसी में पत्रकार का विरोध।
पूरा प्रसंग न देखकर जनता को आधी सच्चाई दिखाई गई।

यह आज के समय का सबसे बड़ा खतरा है —
“सोशल मीडिया ट्रायल” में कोई भी घटना कुछ घंटों में अपराध या नायकत्व में बदल जाती है।
पत्रकारों को भी यह समझना चाहिए कि पहले सत्यापन, फिर प्रसारण ही सच्ची पत्रकारिता है।

लोकतंत्र तभी स्वस्थ रह सकता है जब पत्रकारिता और राजनीति दोनों अपनी सीमाएँ पहचानें।
राजनीतिक दलों को पत्रकारों से डरने की आवश्यकता नहीं,
और पत्रकारों को भी यह मान लेना चाहिए कि हर मंच उनके लिए खुला नहीं।
सम्मान दोनों दिशाओं से होना चाहिए।

रामनगर की यह घटना यदि दोनों पक्षों के बीच आपसी संवाद से हल की जाती,
तो यह विवाद समाचार नहीं, बल्कि सहयोग का उदाहरण बनता

भविष्य के लिए सबक

  1. राजनीतिक दलों के लिए — मीडिया संबंध नीति स्पष्ट रखें।
    प्रेस को पहले से लिखित सूचना दें कि किन सत्रों में कवरेज की अनुमति है।
  2. पत्रकारों के लिए — संगठन के नियमों और निर्देशों का सम्मान करें।
    हर वीडियो “स्टिंग” नहीं होता; कई बार वह गरिमा का उल्लंघन भी बन जाता है।
  3. जनता के लिए — सोशल मीडिया पर किसी भी एकतरफा खबर को अंतिम सत्य न मानें।
    हर घटना के दो पहलू होते हैं; निष्कर्ष संतुलित जानकारी पर ही बनाएं।

रामनगर की यह घटना यूकेडी और मीडिया दोनों के लिए एक सीख है।
पत्रकारिता की स्वतंत्रता और राजनीतिक अनुशासन — दोनों ही लोकतंत्र के आधार हैं।
किसी एक की अति दूसरे की गरिमा को चोट पहुँचाती है।

यूकेडी को बदनाम करने की साजिश हो या पत्रकारों की भूल —
सत्य यह है कि दोनों को आत्ममंथन करना चाहिए।
राजनीति को पारदर्शी रहना है और पत्रकारिता को जिम्मेदार।

केवल तभी उत्तराखंड का लोकतंत्र उस ऊँचाई को छू सकेगा,
जहाँ कलम और विचार दोनों जनसेवा का साधन बनें, न कि टकराव का मैदान।

निष्पक्षता का यही अर्थ है — न किसी का अंध समर्थन, न अंध विरोध;
केवल तथ्य और मर्यादा का पक्ष लेना।


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