
देहरादून का गीता भवन इस जन्माष्टमी पर केवल एक पूजा स्थल नहीं, बल्कि आध्यात्मिक रंगमंच का जीवंत साक्षी बनने जा रहा है। 16 अगस्त की शाम, जब मेघदूत नाट्य संस्था के कलाकार श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के मंगल प्रसंग को मंच पर जीवंत करेंगे, तब वहां उपस्थित हर दर्शक केवल दर्शक नहीं, बल्कि एक भावयात्री होगा—जो पुराणों की गलियों से होते हुए, कृष्ण लीला के महिमामंडित संसार में प्रवेश करेगा।

निर्देशक एस.पी. ममगाईं का नाम उत्तराखंड रंगमंच की उस परंपरा से जुड़ा है, जो प्रस्तुति को मात्र अभिनय नहीं, बल्कि एक साधना मानती है। ‘रुक्मिणी मंगल’ केवल विवाह का प्रसंग नहीं—यह उन आध्यात्मिक सूत्रों का मंचन है, जिनमें भगवान कृष्ण का लोककल्याण, उत्तराखंड के आराध्य घंटाकर्ण की तपस्या, और प्रद्युम्न के जन्म की लीलाएं एक ही माला में पिरोई गई हैं। यह अद्भुत है कि हमारे पर्वतीय समाज में घंटाकर्ण की पूजा आज भी जीवित है, और इस नाटक के माध्यम से दर्शक देख सकेंगे कि कैसे स्वयं श्रीकृष्ण ने उन्हें क्षेत्रपाल का दायित्व सौंपा।
मेघदूत नाट्य संस्था की खूबी यह है कि यह केवल मंचन नहीं करती, बल्कि गहन शोध और संपूर्ण संदर्भों के साथ कथा को जीवंत करती है। यह दृष्टिकोण आज के उस समय में और भी प्रासंगिक है, जब संस्कृति अक्सर केवल तात्कालिक मनोरंजन का साधन बनकर रह जाती है। ऐसे में ‘रुक्मिणी मंगल’ हमें याद दिलाता है कि कला तभी अमर होती है, जब उसमें परंपरा की आत्मा और शोध की गहराई हो।
जन्माष्टमी, कृष्ण जन्म का पर्व है—लेकिन साथ ही यह हमारे भीतर के धर्म, नीति, और प्रेम के पुनर्जागरण का समय भी है। गीता भवन में होने वाला यह मंचन इसी पुनर्जागरण का जीवंत उदाहरण होगा, जहां कथा, संगीत, अभिनय और भक्ति—all merge into one divine experience. और सबसे सुखद बात यह है कि इस दिव्य अनुभव के द्वार सभी के लिए खुले हैं—प्रवेश निशुल्क है, आस्था अमूल्य है।
जो भी 16 अगस्त की रात गीता भवन पहुंचेगा, वह नाटक देखने नहीं, बल्कि इतिहास, संस्कृति और भक्ति के संगम में डुबकी लगाने पहुंचेगा—और लौटेगा अपने भीतर एक नई आस्था की ज्योति लेकर।
संपादकीय।✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर (उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी)सच्ची आध्यात्मिकता मंदिरों, मठों और ग्रंथों तक सीमित नहीं, बल्कि हमारे विचारों, वचनों और कर्मों में झलकती है। यह आत्मा को अहंकार, लोभ और क्रोध से मुक्त कर, प्रेम, करुणा और सत्य के मार्ग पर ले जाती है। आज भौतिकता के शोर में मनुष्य स्वयं से दूर होता जा रहा है। ऐसे समय में ध्यान, साधना और आत्मचिंतन ही आंतरिक शांति का स्रोत बन सकते हैं। आध्यात्मिक जीवन का अर्थ है – हर प्राणी में ईश्वर को देखना और सभी के प्रति समान भाव रखना। जब मन भीतर से निर्मल होगा, तभी बाहर की दुनिया भी सुंदर और संतुलित बनेगी।


