उत्तराखंड में सावन और हरेला पर्व: गढ़वाल विशेष (पिंडर घाटी का संदर्भ)

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सावन और देवभूमि का आत्मा-स्पर्श

उत्तराखंड की पहाड़ियों पर जब सावन की पहली बूंदें गिरती हैं, तो ये केवल वर्षा की बूंदें नहीं होतीं—ये धरती की रगों में जीवन का संचार करती हैं। इन बूंदों के साथ बहती है देवभूमि की सांस्कृतिक विरासत, जिसमें सबसे जीवंत और आत्मीय पर्व है — हरेला

संवाददाता,हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/ अवतार सिंह बिष्ट/उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी!

हालाँकि हरेला पर्व को आम तौर पर कुमाऊं के पर्व के रूप में जाना जाता है, लेकिन गढ़वाल, विशेषकर चमोली जिले की पिंडर घाटी, में यह पर्व अद्भुत उल्लास और गहरी आस्था के साथ मनाया जाता है। यहाँ हरेला, न केवल हरियाली और कृषि से जुड़ा है, बल्कि शिव-पार्वती की आराधना, सामाजिक मेलजोल, और पर्यावरण चेतना का पर्व भी बन चुका है।


. पिंडर घाटी: प्राकृतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य

चमोली जिले की पिंडर घाटी, उत्तराखंड के सबसे सुंदर और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध क्षेत्रों में से एक है। पिंडर नदी, जो नंदा देवी पर्वत के पास ग्लेशियरों से निकलकर अलकनंदा में मिलती है, इस घाटी को सींचती है। यहाँ के गाँव — देवाल, कुलिंग, कांडा, लोहाजंग, हरसिल, सुतोल, देवल, ग्वालदम, आदि — प्राकृतिक सौंदर्य, सांस्कृतिक परंपराओं और धार्मिक आस्था का केंद्र हैं।

यह घाटी सदियों से लोककला, लोकगीत, और लोकपर्वों की जीवंत भूमि रही है। यहाँ के लोग खेतों और जंगलों के साथ अपने जीवन का गहरा संबंध महसूस करते हैं। हरेला पर्व इसी संस्कृति का जीवंत उदाहरण है।

. गढ़वाल में हरेला पर्व: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

पौराणिक संदर्भ

गढ़वाल में हरेला पर्व का संबंध मुख्यतः शिव-पार्वती विवाह कथा से जोड़ा जाता है। लोक मान्यताओं के अनुसार, सावन मास शिव और पार्वती के पुनर्मिलन का प्रतीक है। जब माता पार्वती ने कठिन तप कर शिव को पाया, तभी हिमालय क्षेत्र की धरती पर हरियाली की बहार आई। हरेला इसी प्रेम, पुनर्जन्म और जीवन की विजय का उत्सव है।

3.2 ऐतिहासिक दृष्टिकोण

गढ़वाल के ऐतिहासिक दस्तावेज़, जैसे ‘गढ़वाल गजेटियर’, में सावन और हरेला का उल्लेख कृषि और समाज की दृष्टि से महत्वपूर्ण उत्सव के रूप में मिलता है। प्राचीन समय में यह पर्व राजा-रजवाड़ों तक में मनाया जाता था। राजमहल में विशेष पूजन होता था, और किसानों को बीज व औजार दान किए जाते थे।


. पिंडर घाटी में हरेला पर्व: परंपराएँ और उत्सव

4.1 पर्व की तिथियाँपिंडर घाटी में हरेला पर्व सावन संक्रांति को मनाया जाता है। 2025 में यह 16 जुलाई को पड़ेगा। पर्व की तैयारी करीब दस दिन पहले से शुरू हो जाती है, यानी 7 जुलाई को हरेला बोया जाएगा।

4.2 हरेला बोने की अनोखी परंपराएँ

पिंडर घाटी में हरेला बोने की प्रक्रिया कुछ अनूठी होती है:

  • बर्तन का चयन: परंपरागत रूप से मिट्टी के छोटे दीये, पीतल की छोटी थाली, या तिमिला पत्ते के दोने का प्रयोग होता है।
  • मिट्टी की शुद्धता: पिंडर घाटी में खास मान्यता है कि मिट्टी को पहले नदी के किनारे से लाकर छाना जाता है।
  • सात अनाज: गढ़वाल में अक्सर सात अनाज बोए जाते हैं:
    • जौ
    • गेहूं
    • मक्का
    • धान
    • गहत
    • उड़द
    • भट्ट
  • हर रोज पानी: रोज़ सुबह थोड़ी-सी पानी की छींटें मारी जाती हैं। यह प्रकृति की नमी और देखभाल का प्रतीक है।
  • उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र, विशेषकर चमोली जिले की पिंडर घाटी में हरेला पर्व अत्यंत धूमधाम और आस्था के साथ मनाया जाता है। यहाँ यह पर्व सिर्फ हरियाली का नहीं, बल्कि शिव-पार्वती की पूजा, कृषि समृद्धि और पर्यावरण प्रेम का प्रतीक है। पिंडर घाटी के गाँवों में सावन मास की शुरुआत से ही घर-घर हरेला बोया जाता है, जिसमें जौ, गेहूं, मक्का जैसे सात अनाज डाले जाते हैं। दसवें दिन उगे हरेले को काटकर भगवान शिव-पार्वती और ग्राम देवताओं को अर्पित किया जाता है। गढ़वाल के अन्य जिलों में भी हरेला पर्व विशेष महत्व रखता है, जहाँ इसे अधिकतर शिव आराधना के रूप में मनाया जाता है। पिंडर घाटी में इस पर्व के दौरान लोग वृक्षारोपण कर पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी देते हैं। सामूहिक गीत, नृत्य और विशेष पकवान इस पर्व को जीवंत बनाते हैं। बुजुर्ग हरेले के तिनके बच्चों के सिर पर रखते हुए आशीर्वाद देते हैं, जो जीवन, सुख-समृद्धि और हरियाली की कामना का प्रतीक है। हरेला पर्व गढ़वाल की सांस्कृतिक धरोहर और प्रकृति प्रेम का जीवंत उदाहरण है, जो पर्यावरण और सामाजिक एकता दोनों को मजबूत करता है।

    धार्मिक अनुष्ठान

पिंडर घाटी में हरेला पर्व शिव-पार्वती की पूजा के बिना अधूरा है। मुख्य अनुष्ठान:

  • गौरा-मेहंत पूजा: घर के मंदिर में मिट्टी या पीतल की गौरा (पार्वती) और मेहंत (शिव) की मूर्तियाँ स्थापित की जाती हैं।
  • कथा वाचन: स्थानीय पुरोहित सावन कथा सुनाते हैं, जिसमें शिव-पार्वती विवाह, हिमालय की महिमा और नदियों का महत्त्व बताया जाता है।
  • हरेले की अर्पणा: दसवें दिन हरेला काटकर देवी-देवताओं को अर्पित किया जाता है।

सामाजिक और सांस्कृतिक स्वरूप

पिंडर घाटी में हरेला केवल घर का पर्व नहीं है। यह सामुदायिक उत्सव है:

  • ग्राम देवता पूजन: गांव के मंदिरों में सामूहिक पूजन होता है।
  • गीत-संगीत: महिलाएँ और पुरुष पारंपरिक ‘झुमेलो’, ‘थड़िया’, और ‘मांगल’ गीत गाते हैं।
  • नृत्य: ‘चौंफला’ और ‘थड़िया’ नृत्य का आयोजन होता है।
  • विशेष पकवान: हरेले पर यहाँ विशेष पकवान बनाए जाते हैं:
    • मडुए की रोटी
    • घिउ-गुड़
    • अरसे
    • सूँठ-लड्डू
    • आलू के गुटके

पिंडर घाटी में हरेले के पर्यावरणीय पहलू

5.1 वृक्षारोपण

हरेला पर्व पिंडर घाटी में पर्यावरण बचाओ अभियान बन चुका है। स्थानीय स्कूलों, गांव समितियों, और महिला मंगल दलों द्वारा वृक्षारोपण किया जाता है। विशेष पौधे लगाए जाते हैं:

  • देवदार
  • बांज
  • बुरांश
  • आंवला
  • रीठा

परंपरागत मान्यता

यहाँ मान्यता है कि हरेला जितना हरा और घना होगा, उस साल खेती उतनी ही अच्छी होगी। किसानों के लिए यह एक जैविक संकेतक की तरह है।


हरेला पर्व गढ़वाल के अन्य जिलों में

गढ़वाल का हर जिला हरेला को अपने विशेष अंदाज़ में मनाता है।

6.1 रुद्रप्रयाग

  • शिव के प्रमुख मंदिरों — केदारनाथ, त्रियुगीनारायण, अगस्त्यमुनि — में हरेला के दिन विशेष जलाभिषेक।
  • यहाँ लोग हरेला के तिनके कान के पीछे लगाते हैं, इसे जीवन-रक्षा का प्रतीक मानते हैं।

6.2 टिहरी

  • टिहरी में हरेला बोने की परंपरा धीमी होती जा रही है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में इसे अभी भी श्रद्धा से बोया जाता है।
  • यहाँ शिव-पार्वती पूजा के साथ नन्दा देवी की पूजा भी शामिल की जाती है।

6.3 पौड़ी

  • पौड़ी में हरेला के दिन गांवों में सामूहिक सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं।
  • महिलाएँ “मांगल” गीतों में शिव-पार्वती के विवाह का वर्णन करती हैं।

6.4 उत्तरकाशी

  • हरेला यहाँ शिव आराधना के रूप में ज्यादा प्रचलित है।
  • गंगोत्री और यमुनोत्री धाम में सावन महीने में भक्तों की भीड़ विशेष होती है।
  • हरेला को यहाँ भगवान भैरव के नाम पर भी चढ़ाया जाता है

6.5 देहरादून

  • शहरी प्रभाव के चलते देहरादून में हरेला शहरी पर्व के रूप में वृक्षारोपण अभियान तक सिमट गया है।
  • हालांकि, पुरानी बस्तियों में (जैसे धर्मपुर, डाकरा, राजपुर) आज भी लोग घर में हरेला बोते हैं।

. सावन में शिव आराधना: गढ़वाल का दिल

गढ़वाल में सावन का महीना शिव भक्ति के बिना अधूरा है। हरेला के साथ यह भक्ति और भी गहराती है:

  • केदारनाथ में सावन विशेष पूजा
  • जागेश्वर धाम (गढ़वाल का हिस्सा भी यहाँ जुड़ता है) में बेलपत्र चढ़ाना
  • त्रियुगीनारायण में दंपत्तियों की विशेष पूजा
  • चंद्रबदनी, कनक चौरी, धारी देवी मंदिरों में विशेष अनुष्ठान

. हरेला पर्व और समाज

8.1 पारिवारिक संबंध

हरेला पर्व पिंडर घाटी और गढ़वाल के अन्य हिस्सों में पारिवारिक जुड़ाव का पर्व है। इस दिन:

  • बुजुर्ग बच्चों के सिर पर हरेला रखते हुए आशीर्वाद देते हैं।
  • चिट्ठियों में दूर रहने वाले परिजनों को हरेला भेजा जाता है।

आर्थिक पहलू

  • बीज और कृषि उपकरणों का आदान-प्रदान — पहले राजा किसानों को बीज देते थे, अब भी गांव में एक-दूसरे को बीज देने की परंपरा है।
  • बाजारों में स्थानीय उत्पादों की बिक्री बढ़ती है — मडुवा, गुड़, शहद, मसाले।

आधुनिक चुनौतियाँ

9.1 शहरीकरण

  • पिंडर घाटी और गढ़वाल के अन्य हिस्सों में भी धीरे-धीरे लोग छोटे घरों और फ्लैटों में रहने लगे हैं।
  • हरेला बोना संभव नहीं होता, पर लोग प्रतीकात्मक रूप से पौधे लगाते हैं।

पीढ़ीगत अंतर

  • नई पीढ़ी लोकगीत और परंपराओं से दूर होती जा रही है।
  • स्कूलों में अब हरेला पर्व को पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है।

. गढ़वाल में हरेला का भविष्य

गढ़वाल में हरेला पर्व का भविष्य उज्ज्वल है, यदि हम इसे संरक्षण और नवाचार दोनों के साथ आगे बढ़ाएँ। संभव प्रयास:

  • स्कूलों में हरेला उत्सव
  • वृक्षारोपण को अनिवार्य करना
  • सांस्कृतिक मंचन और हरेला गीत प्रतियोगिता
  • सोशल मीडिया पर हरेला पर्व का प्रचार

प्रकृति और परंपरा का संगम

पिंडर घाटी में जब सावन की फुहारें गिरती हैं और गाँवों में हरेला बोया जाता है, तो लगता है जैसे धरती फिर से जीवन का संगीत गा रही है। हरेला यहाँ केवल एक पर्व नहीं, बल्कि जीवन का उत्सव है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि प्रकृति ही जीवन है, और हरियाली ही भविष्य।

गढ़वाल की आत्मा, शिव की भक्ति, और पिंडर घाटी की हरियाली — सब मिलकर कहते हैं:

“जी रया जागी रया, यो दिन यो बार भेंटने रया!” हरेला केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि गढ़वाल की संस्कृति, पर्यावरण और सामाजिक एकता का प्रतीक है। इसे बचाना, आगे बढ़ाना हमारी जिम्मेदारी है।



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