
पुलस्त्यजी ने जवाब दिया- राजन, तुम अपने प्रश्न का उत्तर मुझसे सुनो। देवी लक्ष्मी के जन्म का संबंध समुद्र से है, यह बात मैंने खुद भी ब्रह्माजी के द्वारा सुनी हुई है। एक समय की बात है जब दैत्यों और दानवों ने बड़ी मात्रा में सेना लेकर देवताओं पर चढ़ाई की थी। उस समय युद्ध के दौरान देवता दैत्यों के सामने परास्त हो गए। तब इंद्र आदि सम्पूर्ण देवता अग्नि को आगे करके ब्रह्माजी की शरण में पहुंच गए। वहां जाकर उन्होंने अपना सारा हाल अच्छी तरह बताया।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी
ब्रह्माजी ने कहा- ‘आप सभी लोग मेरे साथ भगवान की शरण में चलो।’ ऐसा कहने के बाद वे सम्पूर्ण देवताओं को अपने साथ लेकर क्षीर सागर के उत्तर-तट पर पहुंच गए और भगवान वासुदेव को संबोधित करके कहा- ‘विष्णो, शीघ्र उठ जाइए और इन देवताओं का कल्याण कीजिए। आपकी सहायता न मिल पाने के कारण दानव इन्हें बार-बार परास्त करते हैं।’ ऐसा कहने पर कमल के समान नेत्र वाले भगवान अन्तर्यामी पुरुषोत्तम ने देवताओं के शरीर को अपूर्व अवस्था में देखकर कहा- ‘देवगण, मैं तुम्हारे तेज की वृद्धि करूंगा। मैं जो उपाय बताता हूं, उसे आप लोग जरूर कीजिए। दैत्यों के साथ मिलकर समस्त प्रकार की औषधियां लेकर आओ और उन्हें क्षीर सागर में डाल दो। फिर मन्दराचल को मथानी और वासुकी नाग को नेती (रस्सी) बनाकर समुद्र का मंथन करते हुए उससे अमृत निकालना शुरू कर दो। इसमें मैं आप लोगों की सहायता करूंगा। समुद्र का मंथन करने पर जो अमृत बाहर आएगा, उसका पान करने के पश्चात तुम लोग बलवान और अमर हो जाओगे।
देवाधिदेव भगवान की बात सुनने के बाद सम्पूर्ण देवता दैत्यों के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। देव, दानव और दैत्य सब मिलकर हर प्रकार की औषधियां लेकर आ गए और उन्हें क्षीर सागर में डालकर मन्दराचल को मथानी एवं वासुकि नाग को नेती बनाकर बड़े ही वेग से मंथन करने लगे। भगवान विष्णु की प्रेरणा से सभी देवता एक साथ रहकर वासुकि की पूंछ की ओर पहुंचे और दैत्यों को उन्होंने वासुकि के सिर की ओर भेज दिया। भीष्मजी, वासुकि के मुख की सांस तथा विषाग्नि से झुलसने के कारण सब दैत्य निस्तेज हो गए। क्षीर-समुद्र के बीच में ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवान ब्रह्मा तथा महातेजस्वी महादेवजी कच्छप रूपधारी श्रीविष्णु की पीठ पर खड़े होकर अपनी भुजाओं से कमल की भांति मन्दराचल को पकड़े हुए थे और स्वयं भगवान श्रीहरि कूर्म रूप धारण करके क्षीर सागर के अंदर देवताओं और दैत्यों के बीच में मौजूद थे। वे मन्दराचल को अपनी पीठ पर लिए हुए डूबने से बचा रहे थे। तदनंतर जब देवता और दानवों ने क्षीर-समुद्र का मंथन शुरू किया, तब पहले उससे देवपूजित सुरभि (कामधेनु) का आविर्भाव हुआ था, जो हविष्य (घी-दूध) की उत्पत्ति का स्थान मानी गई। तत्पश्चात वारुणी देवी प्रकट हुई, जिनके मदभरे नेत्र घूम रहे थे। वह पग-पगपर लड़खड़ाती हुई चलती थीं। जिसे अपवित्र मानकर देवताओं ने त्याग दिया। तब वह असुरों के पास गई और कहा- ‘दानवों, मैं बल प्रदान करने वाली देवी हूं, तुम मुझे ग्रहण कर लो।’ तब दैत्यों ने उसे ग्रहण कर लिया। फिर, पुनः मंथन शुरू होने पर पारिजात (कल्पवृक्ष) उत्पन्न हुआ, जो अपनी शोभा से देवताओं का आनंद बढ़ाने वाला था। तदनन्तर साठ करोड़ अप्सराएं प्रकट हुईं, वे देवता और दानवों की सामान्य रूप से भोग्या हैं। जो कोई भी पुण्य कर्म करने के बाद देवलोक में जाते हैं, उनका भी उन पर समान अधिकार रहता है। इसके बाद, शीतल किरणों वाले चन्द्रमा का प्रादुर्भाव हुआ, जो देवताओं को आनंद प्रदान करने वाले थे। उन्हें भगवान शंकर ने अपने लिए मांगते हुए कहा कि ‘देवताओं, ये चंद्रमा मेरी जटाओं के आभूषण होंगे, अतः मैंने इन्हें लेता हूं।
ब्रह्माजी ने ‘बहुत अच्छा’ कहते हुए शिवजी की बात का अनुमोदन किया। तत्पश्चात कालकूट नामक भयंकर विष प्रकट हुआ, जिससे देवता और दानव हर किसी को बहुत पीड़ा हुई। तब शंकरजी खुद की इच्छा से उस विष को लेकर पी गए। इसी के कारण उनके कंठ में काला दाग पड़ गया, तभी से वे महेश्वर नीलकंठ कहलाने लगे। क्षीर-सागर से निकले हुए विष का जो अंश पीने से बच गया था, उसे नागों ने ग्रहण कर लिया। तदनंतर अपने हाथ में अमृत से भरा हुआ कमण्डलु लिए धन्वंतरिजी प्रकट हुए। वे श्वेत वस्त्र धारण किए हुए थे। वैद्य राज के दर्शन से सभी का मन स्वस्थ और प्रसन्न हो उठा। इसके बाद, उस समुद्र से उच्चैःश्रवा घोड़ा और ऐरावत नाम का हाथी- ये दोनों क्रमशः प्रकट हुए थे। फिर, क्षीर सागर से लक्ष्मीजी का प्रादुर्भाव हुआ, जो खिले हुए कमल पर विराजमान थीं और हाथ में कमल धारण किए हुए थीं। उनका प्रकाश चारों ओर फैल रहा था। उस समय महर्षियों ने श्रीसूक्त का पाठ करते हुए बड़ी प्रसन्नता से उनका स्तवन किया। साक्षात क्षीर-समुद्र ने प्रकट होकर लक्ष्मी देवी को एक सुंदर माला भेंट में दी, जिसके कमल कभी भी मुरझाते नहीं थे। विश्वकर्माजी ने उनके समस्त अंगों में आभूषण पहना दिए। स्नान के पश्चात दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण करके जब देवी सभी प्रकार के आभूषणों से विभूषित हुईं, तब इन्द्र आदि देवता और विद्याधर आदि ने भी उन्हें प्राप्त करने की इच्छा जताई। तब ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु से कहा-‘वासुदेव, मेरे द्वारा दी हुई इन देवी लक्ष्मी को आप ही ग्रहण करें। देवताओं और दानवों को मैंने मना कर दिया है- वे इन्हें पाने की इच्छा नहीं रखेंगे। आपने जो स्थिरता पूर्वक इस समुद्र-मंथन के कार्य को संपन्न किया है, इससे मैं बहुत संतुष्ट हूं।’ ऐसा कहकर ब्रह्माजी लक्ष्मी देवी से बोले- ‘देवी, तुम भगवान केशव के पास चली जाओ। मेरे दिए हुए पति को पाकर अनन्त वर्षों तक आनन्द का उपभोग कीजिए।’
ब्रह्माजी के ऐसा कहने के बाद लक्ष्मीजी समस्त देवताओं के देखते-देखते श्रीहरि के वक्षःस्थल में चली गईं और भगवान से बोलीं- ‘देव, आप कभी मेरा परित्याग न करें। सम्पूर्ण जगत के प्रियतम! मैं सदा आपके आदेश का पालन करती हुई आपके वक्षःस्थल में निवास करूंगी।’ ऐसा कहकर लक्ष्मी देवी ने कृपा पूर्ण दृष्टि से देवताओं की तरफ देखा, जिससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। वहीं लक्ष्मी से परित्यक्त होने पर दैत्यों को बड़ा उद्वेग हुआ। उन्होंने झपटकर धन्वन्तरि के हाथ से अमृत का पात्र ले लिया। तब विष्णुजी ने माया से एक सुन्दर स्त्री का रूप धारण करके दैत्यों को लुभाया और उनके निकट जाकर बोले- ‘यह अमृत का कमण्डलु मुझे दे दो।’ उस त्रिभुवन सुन्दरी रूपवती स्त्री को देखकर दैत्यों का चित्त काम के वशीभूत हो गया। ऐसे में उन्होंने चुपचाप वह अमृत उस सुन्दरी के हाथ में पकड़ा दिया और स्वयं उसका मुंह देखने लगे। दानवों से अमृत लेकर भगवान ने देवताओं को दे दिया और इन्द्र आदि देवता तत्काल उस अमृत को पी गए। यह देख दैत्य गण अलग-अलग प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और तलवारें हाथ में लेकर देवताओं पर टूट पड़े, लेकिन सभी देवता अमृत पीकर बलवान हो चुके थे, उन्होंने दैत्य-सेना को परास्त कर दिया। देवताओं की मार पड़ने के बाद दैत्यों ने भागकर चारों दिशाओं की शरण ले ली और कितने ही पाताल में घुस गए। तब सम्पूर्ण देवता आनंदमग्न मन हो शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान विष्णु को प्रणाम करके स्वर्ग लोक में पहुंच गए।
तभी से सूर्यदेव की प्रभा स्वच्छ हो गई और वे अपने मार्ग से चलने लगे। भगवान अग्निदेव भी मनोहर दीप्ति से युक्त हो प्रज्वलित होने लगे और सब प्राणियों का मन धर्म में संलग्न रहने लगा। भगवान विष्णु से सुरक्षित होने के बाद समस्त त्रिलोकी श्री संपन्न हो गई। उस समय समस्त लोकों को धारण करने वाले ब्रह्माजी देवताओं से बोले- ‘देवगण। मैंने तुम्हारी रक्षा के लिए भगवान विष्णु को तथा देवताओं के स्वामी उमापति महादेव को नियत किया है। वे दोनों तुम्हारे योगक्षेम का निर्वाह करेंगे। तुम सदैव उनकी उपासना करते रहो क्योंकि, वे तुम्हारा कल्याण करने वाले हैं। उपासना करने से ये दोनों महानुभाव हमेशा तुम्हारे क्षेम के साधक और वर दायक होंगे।’ ऐसा कहकर भगवान ब्रह्माजी अपने धाम को चले गए। उनके जाने के पश्चात इन्द्र ने देवलोक की राह ले ली। तत्पश्चात श्रीहरि और शिवजी भी अपने-अपने धाम वैकुण्ठ एवं कैलाश में जा पहुंचे। तदनंतर देवराज इन्द्र तीनों लोकों की रक्षा करने लगे। महाभाग, इस प्रकार लक्ष्मीजी क्षीर सागर से प्रकट हुई थीं।
यह पूर्णिमा हर साल आश्विन मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है। इसलिए इस रात खुले आसमान में चंद्रमा की पूजा करना और चंद्रमा के नीचे खीर रखना बेहद शुभ माना जाता है। आइए जानें शरद पूर्णिमा की खास बातें, इसकी शुभ तिथि, शुभ मुहूर्त और इस रात चंद्रमा की पूजा क्यों की जाती है।
शरद पूर्णिमा तिथि और मुहूर्त
2025 में, शरद पूर्णिमा सोमवार, 6 अक्टूबर को मनाई जाएगी। 6 अक्टूबर को पूर्णिमा तिथि दोपहर 12:23 बजे शुरू होगी और 7 अक्टूबर को सुबह 9:16 बजे समाप्त होगी।
ऐसा माना जाता है कि इस दिन देवी लक्ष्मी पृथ्वी पर विचरण करती हैं। इसके अलावा, भगवान कृष्ण ने इसी रात गोपियों के साथ महारास रचाया था। इसलिए इस रात जागरण करके देवी लक्ष्मी और भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। ऐसा माना जाता है कि जो लोग इस रात जागरण करके पूजा करते हैं, उनके घर देवी लक्ष्मी प्रवेश करती हैं और अपना आशीर्वाद प्रदान करती हैं। ऐसा माना जाता है कि हर साल शरद पूर्णिमा की रात को चांदनी अमृत वर्षा करती है। इस रात चंद्रमा अपने पूर्ण रूप में होता है। इसलिए शरद पूर्णिमा की रात चंद्रमा की पूजा के लिए विशेष होती है।
चंद्रमा को अर्घ्य देने की विधि क्या है?
शरद पूर्णिमा की रात चंद्रमा को अर्घ्य देना शुभ माना जाता है। एक लोटे में जल भरें, उसमें थोड़ा कच्चा दूध, चावल, मिश्री, चंदन और सफेद फूल डालें। स्नान करें, स्वच्छ वस्त्र पहनें और चंद्रोदय के बाद चंद्रमा की ओर मुख करके चंद्र देव को जल अर्पित करें। चंद्र देव को धीमी धार में जल अर्पित करें। “ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं त्रिभुवन महालक्ष्म्यै अस्माकं दारिद्र्य नाशय प्रभार धनं देहि देहि क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ” मंत्र का 108 बार जाप करें।
चंद्रमा को अर्घ्य देने के लाभ
मानसिक शांति: चंद्र देव को अर्घ्य देने से मानसिक अशांति और तनाव कम होता है। यह मन को स्थिरता, शीतलता और संतुलन प्रदान करता है, जिससे व्यक्ति शांत और सकारात्मक महसूस करता है।
स्वास्थ्य लाभ: चंद्रमा शरीर में जल तत्व से संबंधित है। अर्घ्य देने से मन और शरीर दोनों पर शीतलता का प्रभाव पड़ता है, जिससे स्वास्थ्य अच्छा रहता है।
शांति और सुख: चंद्र देव को अर्घ्य देने से घर और परिवार में शांति बनी रहती है। इससे रिश्तों में मधुरता और समझ बढ़ती है, जिससे जीवन में सामंजस्य बढ़ता है।
सुख और समृद्धि: चंद्र देव को अर्घ्य देने से जीवन में धन, समृद्धि और खुशहाली आती है। यह मन से नकारात्मकता को दूर करता है और सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाता है।
चंद्र दोष: जिन लोगों की कुंडली में चंद्र दोष है, उनके लिए अर्घ्य देना विशेष रूप से लाभकारी होता है। यह दोषों को शांत करता है और मानसिक अस्थिरता व चिंता जैसी समस्याओं को कम करता है।
सौभाग्य में वृद्धि: चंद्र देव को जल अर्पित करने से जीवन में शुभता आती है। इसे सौभाग्य, प्रेम और रिश्तों में मधुरता का प्रतीक माना जाता है।✧ धार्मिक और अध्यात्मिक


