आपदा में गिलहरी-सा योगदान और आंदोलनकारियों की संवेदनशीलता

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उत्तराखण्ड की पहचान केवल उसकी प्राकृतिक सुंदरता और सांस्कृतिक धरोहर से नहीं है, बल्कि यहाँ के राज्य आंदोलनकारियों की त्यागमयी परंपरा और संवेदनशील चेतना से भी है। समय-समय पर यह वर्ग यह साबित करता रहा है कि वह केवल “संघर्ष” की विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि “समर्पण” और “सेवा” की भावना भी उसमें गहराई से रची-बसी है।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

ताज़ा उदाहरण है—उत्तराखण्ड राज्य आंदोलनकारी मंच द्वारा मुख्यमंत्री आपदा राहत कोष में ₹75,000 की राशि का सहयोग। पहली नज़र में यह योगदान छोटा प्रतीत हो सकता है, किंतु इसका निहितार्थ बहुत बड़ा है। यह वही आंदोलनकारी हैं, जिन्होंने कोविड-19 काल में भी अपनी एक माह की पेंशन मुख्यमंत्री राहत कोष में समर्पित कर दी थी। यह बताने के लिए काफी है कि संकट चाहे स्वास्थ्य का हो, महामारी का या प्राकृतिक आपदा का—आंदोलनकारियों ने कभी पीछे हटना नहीं सीखा।

प्रदेश प्रवक्ता व जिला अध्यक्ष प्रदीप कुकरेती का यह कहना कि “उत्तराखण्ड राज्य आंदोलनकारी मंच किसी भी संकट की स्थिति में बिना मतभेद के सरकार और शासन के साथ खड़ा मिलेगा”—वास्तव में उस परिपक्वता और जिम्मेदारी की अभिव्यक्ति है, जिसकी आज सबसे अधिक आवश्यकता है। आंदोलनकारी वर्ग भलीभांति जानता है कि उनकी भूमिका केवल विरोध दर्ज कराना नहीं है, बल्कि जनता के दुख-दर्द में सच्चा सहभागी बनना भी है।

इतिहास गवाह है कि समाज के लिए किए गए ऐसे “गिलहरी जैसे छोटे योगदान” ही समय के साथ बड़ी बाढ़ को थामने वाले तटबंध साबित होते हैं। रामसेतु के निर्माण की कथा में जिस प्रकार गिलहरी की भागीदारी का महत्व था, उसी प्रकार आंदोलनकारियों का यह सहयोग भी राहत कार्यों के लिए प्रतीकात्मक ही सही, लेकिन अत्यंत प्रेरणादायी है।

इस योगदान का एक और महत्वपूर्ण पहलू है—यह सरकार और जनता के बीच “सेतु” का काम करता है। आज जब आपदा से त्रस्त आमजन उम्मीद भरी नज़रों से शासन की ओर देख रहा है, तब आंदोलनकारियों का यह संदेश विश्वास जगाता है कि समाज के हर हिस्से से सहयोग की भावना जीवित है।

बद्री-केदार से प्रदीप कुकरेती की प्रार्थना केवल धार्मिक भाव नहीं, बल्कि उस सामूहिक आह्वान की अभिव्यक्ति है जिसमें पूरा उत्तराखण्ड शामिल है—अब बादलों का प्रकोप थमे, और प्रदेश की पीड़ा का अंत हो।

इस प्रसंग से एक बड़ी सीख मिलती है—समाज को संभालने के लिए केवल करोड़ों की घोषणाएँ नहीं, बल्कि संवेदनशील हृदय और गिलहरी जैसे छोटे-छोटे प्रयास ही सबसे बड़ा सहारा होते हैं। आंदोलनकारियों का यह योगदान उसी सच्चाई की ओर संकेत करता है। सवाल यह है कि क्या राज्य की राजनीति और सत्ता भी इस त्याग-भावना से कुछ सीख ले पाएगी?


उत्तराखण्ड राज्य आंदोलनकारी मंच द्वारा मुख्यमंत्री आपदा राहत कोष में ₹75,000 का सहयोग पहली नज़र में छोटा प्रतीत हो सकता है, परंतु इसका महत्व गिलहरी की उस कथा जैसा है जिसने रामसेतु निर्माण में अपनी भूमिका निभाई थी। समाज और शासन के बीच भरोसे का सेतु गढ़ने वाले आंदोलनकारी हर संकट में अपनी जिम्मेदारी निभाते रहे हैं—चाहे कोविड हो या वर्तमान आपदा। यह योगदान केवल राशि नहीं, बल्कि संवेदनशीलता और कर्तव्यबोध का प्रतीक है। प्रश्न यह है कि क्या सत्ता भी आंदोलनकारियों की इस गिलहरी-सी निष्ठा से प्रेरणा ले पाएगी?


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