“देहरादून की सड़कों पर स्टंटबाजों की सत्ता और कानून की बेबसी”

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संपादकीय | 18 जून 2025पिछले ढाई महीनों में देहरादून की शांत सड़कों पर एक शोर गूंजा है—बाइक की रफ्तार, थार की गुर्राहट और मोबाइल कैमरों की चमक। ये शोर महज़ इंजन का नहीं है, बल्कि कानून की धज्जियां उड़ाने का भी है। युवा स्टंटबाजों की ये नई पीढ़ी सोशल मीडिया पर ‘वायरल’ होने के लिए अपनी और दूसरों की जान जोखिम में डाल रही है, और हमारा तंत्र—प्रशासन और कानून—उसका मूकदर्शक बन बैठा है।

आंकड़ों की मानें तो अप्रैल से 17 जून 2025 के बीच देहरादून में ऐसे 31 मामले दर्ज हुए, जिनमें 62 आरोपियों को हिरासत में लिया गया और 31 वाहनों को सीज किया गया। देखने में तो लगता है कि पुलिस सक्रिय है, लेकिन हकीकत यह है कि इन सभी मामलों में आरोपी कुछ घंटे थाने में बिताने के बाद बाहर आ जाते हैं। उन पर मोटर वाहन अधिनियम और धारा 151 (शांतिभंग) के तहत मामूली कार्रवाई होती है, जिससे उन्हें जेल भेजने का कोई ठोस प्रावधान नहीं बनता।

गजब यह है कि जिन युवाओं की बाइक सीज की जाती है, वे थाने से बाहर निकलते ही उसी परिसर में रील बनाकर उसे सोशल मीडिया पर अपलोड कर देते हैं। एक मामले में दो युवकों ने थाने से बाइक छुड़ाने के तुरंत बाद बिना हेलमेट के स्टंट कर वीडियो बनाया और इंस्टाग्राम पर डाल दिया। पुलिस ने फिर से उन्हें पकड़ा—लेकिन क्या यह एक मजाक नहीं बन गया है?

इस सिस्टम की सबसे बड़ी विफलता यह है कि यह न अपराध को रोक पा रहा है, न ही अपराधियों को सुधार पा रहा है। कार्रवाई सिर्फ कागज़ों तक सीमित रह गई है, और अपराधी सिर्फ ‘रिलीज’ के नाम पर कुछ घंटों की असुविधा झेल कर फिर से वही हरकत दोहराते हैं।

कानून की सीमाएं और सरकार की चुप्पी

यह सही है कि मौजूदा मोटर वाहन अधिनियम और शांति भंग की धाराएं गंभीर दंड का प्रावधान नहीं देतीं, लेकिन क्या राज्य सरकार या प्रशासन चाहे तो इस पर कोई विशेष कानून या सख्त नीति नहीं बना सकता? उत्तराखंड सरकार को चाहिए कि वह ऐसे स्टंटबाजों के लिए अलग से ‘अपराध की पुनरावृत्ति’ को ध्यान में रखकर सख्त दंडात्मक प्रावधान बनाए, जिनमें न केवल जुर्माना बढ़े बल्कि सार्वजनिक सेवा दंड, ड्राइविंग लाइसेंस की स्थायी जब्ती और माता-पिता या अभिभावकों की जवाबदेही भी तय हो।

सामाजिक पहलू: ‘वायरल’ होने की भूख

इस पूरे घटनाक्रम के पीछे सिर्फ पुलिस या कानून की कमजोरी नहीं है, बल्कि सामाजिक मीडिया की विकृत भूख भी है। ‘रील बनाओ, वायरल हो जाओ’ की मानसिकता ने युवाओं को समाज से ज़िम्मेदारी छीनकर उन्हें केवल डिजिटल लाइक-फॉलो के लिए पागल बना दिया है। आश्चर्य यह है कि न तो माता-पिता, न ही स्कूल-कॉलेज इस विषय में कोई कठोर हस्तक्षेप कर रहे हैं।

समाधान की दिशा में कुछ कदम

  1. सोशल मीडिया निगरानी सेल को और सक्रिय करना होगा जो ऐसी रीलों को ट्रैक कर तुरंत FIR दर्ज करे।
  2. दुर्घटना संभावित इलाकों में CCTV निगरानी और AI आधारित कैमरे लगाए जाएं।
  3. अभिभावकों की सहमति से रिहाई न हो जब तक वे लिखित रूप में बच्चे की गतिविधियों पर ज़िम्मेदारी न लें।
  4. पुनर्वास केंद्रों या सामुदायिक सेवा की सजा, जिससे युवा सुधार की दिशा में सोचें।

अंतिम विचार

देहरादून सिर्फ उत्तराखंड की राजधानी नहीं, एक भावनात्मक पहचान भी है। उसकी सड़कों पर ऐसे स्टंटबाजों का कब्जा और कानून की लाचारी एक नवोदित सामाजिक संकट को जन्म दे रही है। अगर अब भी राज्य सरकार और पुलिस विभाग नहीं जागा, तो आने वाले समय में देहरादून की पहचान रफ्तार, स्टंट और मौत के शहर के रूप में होगी। यह वक्त है जब हम वायरल के लिए मरने को नहीं, समाज के लिए जीने को प्रेरित करें।


यदि आप चाहें तो इसी विषय पर विस्तृत ग्राउंड रिपोर्ट या युवाओं के बयान आधारित रिपोर्टिंग भी जोड़ी जा सकती है। आप आदेश दें तो मैं वह भी तैयार कर दूं।


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