
जब आप किसी बड़े के पैर छूते हैं या उसे प्रणाम करते हैं तो उसके मुख से निकली ‘खुश रहो-प्रसन्न रहो ‘ जैसी बात आप में एक तरह से सकारात्मक ऊर्जा भर देती है.


संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट
भीष्म पितामह ने ले ली शपथ
महाभारत के युद्ध में भी ऐसे कई उदाहरण और प्रसंग शामिल हैं. ऐसा ही एक प्रसंग द्रौपदी से जुड़ा है. युद्ध के दौरान एक दिन भीष्म पितामह ने अर्जुन को मारने और युधिष्ठिर को बन्दी बनाने की शपथ ले ली थी. इस प्रतिज्ञा की कोई काट नहीं थी, क्योंकि सभी जानते थे कि अगर पितामह भीष्म ने प्रतिज्ञा ली है तो वह जरूर पूरा करेंगे. इसकी वजह से पांडव शिविर में बहुत हलचल थी. युधिष्ठिर एक स्तम्भ पर सिर टिकाए खड़े थे, अर्जुन जमीन से नज़रें नहीं हटा रहे थे, भीम की क्रोधित चहल कदमी से भूमि रह रह कर कांप जाती थी तो नकुल-सहदेव कभी बड़े भैया की तरफ देखते तो कभी एक-दूसरे को देख स्थिति को समझने की कोशिश करते. एक लंबी चुप्पी को तोड़ते हुए पांचाली सीधे केशव की ओर मुड़ कर बोली, तो क्या मधु सूदन कोई उपाय नहीं है.
कृष्ण ने बनाई ये योजना
कृष्ण के चेहरे पर उनकी चिर परचित मुस्कान बिखर गई. वह बोले, मैंने कब कहा कृष्णे, कोई उपाय नहीं है?
यह सुनकर अर्जुन आतुर हुए और इतने में चारों भाई कृष्ण के चारों ओर घेर कर खड़े गए. अर्जुन बोले, उपाय है तो बताइए न केशव, यूं ही मौन क्यों साध रखा है? जल्दी बताइए. तब श्रीकृष्ण ने एक योजना बनाई. उन्होंने द्रौपदी से कहा कि ग्वालिन के वस्त्र पहन लो और चेहरा पूरी तरह ढक लो. फिर वे द्रौपदी को ब्रह्म मुहूर्त से पहले छिपाकर भीष्म पितामह के शिविर में ले जा रहे थे. योजना ये थी कि पितामह भीष्म ब्रह्म मुहूर्त में उठकर साधना करते थे और जब पूजा समाप्ति होती थी उस दौरान द्वार पर कोई आ जाए वह खाली हाथ नहीं लौटता था.
रास्ते में बज रही थी द्रौपदी की खड़ाऊं
जब श्रीकृष्ण द्रौपदी को छिपते-छिपाते ले जा रहे थे तो रास्ते में चलते हुए द्रौपदी की खड़ाऊं बज रही थी. इससे गुप्तचरों को आभास हो जाता, इसलिए श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की खड़ाऊं निकलवाकर अपने हाथ में उठा ली. द्रौपदी छुपकर भीष्म के शिविर के बाहर पहुंची और वहीं बैठकर सुबकने लगी. जब भीष्म ने स्त्री के रोने का स्वर सुना तो बाहर आए और उनसे रोने का कारण पूछा. तब ग्वालिन बनी द्रौपदी ने कहा, मेरे पति और उनके भाई युद्ध में शामिल हैं, मुझे उनके प्राणों का संकट है. मुझे आपसे उनके लिए अभयदान चाहिए. भीष्म ने कहा कि युद्ध में प्राणहानि होने का खतरा तो रहता ही है. तब द्रौपदी ने कहा कि अगर आप आश्वासन दे देंगे तो मुझे ये डर नहीं रह जाएगा.
वचन से बंधे भीष्म पितामह ने ग्वालिन बनी द्रौपदी को उसके पति और भाइयों को अभयदान दे दिया. फिर उन्होंने पूछा कि तुम्हारे पति कितने भाई हैं. द्रौपदी ने कहा- पांच… ये सुनकर भीष्म चौंक गए. भीष्म समझ गए कि जरूर ये बुद्धि किसी और की है, उन्होंने कहा, मैं तुम्हारे पतियों को अभयदान देता हूं, लेकिन अपना परिचय दो और उसे बुलाओ जो तुम्हें लेकर आया है. ये सुनते ही द्रौपदी ने अपना पल्लू उठा लिया और इतने में ही श्रीकृष्ण अंदर आ गए.
पांडवों के बच गए प्राण
उन्होंने पितामह को प्रणाम करने के लिए जैसे ही हाथ जोड़े तो उनके दोनों हाथों में द्रौपदी की खड़ाऊं बज गई. भीष्म ने अपने आसन से उठकर कृष्ण के हाथ पकड़ लिए और बोले, जिसे बचाने के लिए तीनों लोक के अधिपति खड़ाऊं उठाने को तैयार हैं , तो उसे कौन मार सकता है. जाओ पुत्री जाओ, युद्ध के सातवें दिन भी पांडव बच निकले हैं. द्रौपदी अपने सौभाग्य का वरदान लेकर लौट आयी. इस तरह कृष्ण ने सिर्फ एक खेल के जरिए पांडवों की जान बचा ली.
