
यह सिर्फ दीपों का त्योहार नहीं बल्कि इतिहास, लोककथाओं और पहाड़ी संस्कृति की आत्मा से जुड़ा पर्व है। इगास का मतलब होता है इगास बग्वाल यानी दीवाली की पुनरावृत्ति। पहाड़ों में लोग मानते हैं जब नीचे मैदानों में दीवाली खत्म हो जाती है, तब असली दीवाली हमारे पहाड़ों में शुरू होती है।

पर सवाल ये है कि उत्तराखंड में दिवाली देर से क्यों मनाई जाती है। तो आपकी जानकारी के लिए बता दें कि इसके पीछे दो कारण है। एक भगवान राम की विजय से और दूसरी गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी से। आइए फिर दोनों कारण पर जरा नजर डालते हैं।
✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी
इगास (सोर्स- गूगल)
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इगास की पहली कथा
लोकमान्यता के अनुसार, यह परंपरा रामायण काल से जुड़ी है। जब भगवान राम 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे और लंका विजय के उपलक्ष्य में दीवाली मनाई गई, तब उत्तराखंड जैसे दूर-दराज़ पहाड़ी इलाकों में उस खबर को पहुँचने में समय लगा। कहते हैं, हिमालयी गांवों तक यह शुभ समाचार 11 दिन बाद पहुंचा।
लोगों ने उसी दिन अपने घरों में दीये जलाए, पकवान बनाए और राम की विजय का स्वागत किया। उस दिन को ही इगास कहा गया। जिसका अर्थ है देरी से आई दीवाली। तब से हर साल उत्तराखंड में लोग यह पर्व उसी दिन मनाते हैं। गांव-गांव में भैलो जलाना, लोकगीत गाना और पशु पूजन इस त्योहार का अहम हिस्सा बन गया।
इगास की दूसरी कथा
दूसरी कहानी इतिहास के पन्नों से जुड़ी है। गढ़वाल के प्रसिद्ध योद्धा माधो सिंह भंडारी, जो 17वीं सदी में राजा महिपति शाह के सेनापति थे, उन्हें तिब्बत सीमा पर युद्ध के लिए जाना पड़ा। युद्ध दीवाली के समय हुआ और महीनों तक सैनिक वापस नहीं लौटे। लोगों ने यह मान लिया कि वे युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए हैं, इसलिए उस साल दीवाली नहीं मनाई गई। बुढ़ी दिवाली (सोर्स- गूगल)
लेकिन 11 दिन बाद जब माधो सिंह और उनके साथी विजयी होकर लौटे, तो गाँवों में उत्सव का माहौल छा गया। दीये जले, नृत्य-गीत हुए और लोगों ने कहा, अब आई हमारी दिवाली। वहीं से यह परंपरा इगास के रूप में स्थायी बन गई। आज भी कई गांवों में लोग जब भैलो जलाते हैं, तो वीर माधो सिंह भंडारी का नाम लेकर जयकारा लगाते हैं।
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कैसे मनाई जाती है इगास दिवाली
इगास की शाम गांवों में भैलो जलाने की परंपरा सबसे खास होती है। भैलो यानी लकड़ियों, चीड़ की छाल और घास से बने मशाल जैसी टॉर्च को जलाकर गांव के लोग ढोल-दमाऊं की थाप पर नाचते हैं। महिलाएँ पारंपरिक वेशभूषा में लोकगीत गाती हैं और “भैलो रे भैलो, ऊज्यालो आओ, अँधेरो भागालु।” कहती है।
घरों में विशेष पकवान जैसे आर्से, पूरी-भात, स्वाली और भेलो बनाए जाते हैं। साथ ही गाय-भैंस की पूजा की जाती है क्योंकि ये पर्व कृषि और पशुधन दोनों से जुड़ा है।


