संपादकीय कौन सा मुँह लेकर वोट माँगने आते हैं नेता, और क्यों फिर वही चुनते हैं लोग?”

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क्या आपका प्रत्याशी आपके ही क्षेत्र का है? क्या कभी आपने उसे अपने गांव की गलियों में देखा (अक्सर टिकट खरीदकर आते हैं), प्रत्याशी जिसने आपके गांव की मिट्टी की खुशबू महसूस की हो।

– अवतार सिंह बिष्ट, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स,

सोचो अपने क्षेत्र की उन टूटी हुई सड़कों पर, जब निवर्तमान नेता दोबारा वोट माँगने जाते होंगे, तो किस मुँह से जाते होंगे? और अगर वापस जनता उन्हीं नेताओं को चुनती है, तो फिर गलती नेताओं की नहीं… जनता की है।”

यही सवाल आज हर गांव, हर कस्बे, हर जिले में गूंज रहा है। गाँव की टूटी सड़कों पर, गड्ढों से भरे रास्तों पर, गंदगी के अंबार पर, जलभराव की बदबू में, और उन अधूरी पड़ी सरकारी योजनाओं के ढेर पर।

आज पंचायत चुनावों का माहौल गर्म है। हर गांव में प्रेस वार्ताएँ हो रही हैं। सोशल मीडिया पर पोस्टों की बाढ़ आई है। आरोप-प्रत्यारोप के दौर में कभी नेताओं पर, तो कभी पूर्व समर्थकों पर, कीचड़ उछाला जा रहा है। पर असली सवाल यही है— क्या ये सब नाटक सिर्फ पांच साल का सत्ता का खेल है? और जनता इस खेल में मोहरे से ज़्यादा कुछ नहीं?


विकास कार्य या “व्यक्तिगत लाभ का ठेका”?कभी हैंडपंप, कभी सोलर लाइट, कभी सड़क, कभी शौचालय। हर बार सरकारी योजनाओं के नाम पर जनता को सपना दिखाया जाता है।
पर सवाल यह है:हैंडपंप सार्वजनिक जगह पर क्यों नहीं लगते?सोलर लाइट गाँव की गलियों को क्यों नहीं रोशन करती, बल्कि किसी एक व्यक्ति के घर के बाहर क्यों चमकती है?गाँव की सड़कें पाँच साल में क्यों नहीं बन पातीं?इवेंट के नाम पर हजारों-लाखों रुपये कहाँ खर्च होते हैं?जाति और धर्म के नाम पर योजनाओं का वितरण क्यों होता है?प्रधान या जनप्रतिनिधि, क्या किसी एक जाति विशेष पर बुलडोजर की धमकी देकर अपने राजनीतिक हित तो नहीं साधते?यही मुद्दे हैं, जिन पर आज गाँवों की जनता को खुद से सवाल करना चाहिए। क्योंकि वोट जनता का है, पर उस वोट की बदौलत कुर्सी और सत्ता नेताओं की है।


प्रेस वार्ता और सोशल मीडिया का नाटक?इन दिनों सोशल मीडिया और प्रेस वार्ता का नया ट्रेंड है।

पाँच साल तक जनता चुप रही। न कोई विरोध, न कोई आवाज। पर जैसे ही चुनाव आते हैं, वही लोग, जो पाँच साल तक जनप्रतिनिधि की गोदी में बैठे थे, प्रेस वार्ता कर रहे हैं, पोस्ट डाल रहे हैं, भ्रष्टाचार के पुलिंदे खोल रहे हैं।

प्रश्न उठता है:क्या उन्हें भ्रष्टाचार अब दिख रहा है?पाँच साल पहले क्यों चुप थे?चुनाव के समय ही नैतिकता क्यों जागती है?दरअसल, बहुत से लोग इस समय अपनी राजनीतिक दुकानदारी चमकाने में लगे होते हैं। पाँच साल बाद फिर वही “रुतबा” चाहिए, वही “धाक” चाहिए। इसलिए पहले प्रेस वार्ता, फिर सेटिंग-गेटिंग, और चुनाव के दिन जनप्रतिनिधि के साथ कंधे से कंधा मिलाकर वोट माँगना।


गाँव वालों की भी जिम्मेदारी है!सिर्फ नेताओं को दोष देकर हम बच नहीं सकते। जनता भी दोषी है।यही जनता पाँच साल इन नेताओं की असलियत देखती है। पर चुनाव आते ही वही नेता दूध पिलाने वाले नाग बनकर पूजे जाते हैं।हम नागों को देखकर डरते हैं, दूर भागते हैं। पर नाग पंचमी के दिन उसी नाग को दूध पिलाते हैं। यही हाल हमारे समाज का है।जनता पाँच साल इन नेताओं को गाली देती है। पर चुनाव में उसी नेता को फिर चुन लेती है। यह दोहरा रवैया ही सबसे बड़ा अपराध है।

जातिवाद, धर्मवाद और विकास का गला घोंटती राजनीति?गाँवों में प्रधान, जिला पंचायत सदस्य, ब्लॉक प्रमुख, हर कोई विकास की बात करता है। पर सच्चाई यह है कि:

जातिवाद के नाम पर बीपीएल कार्ड बनाए जाते हैं।सरकारी योजनाएँ जाति-धर्म के नाम पर बँटती हैं।एक ही गाँव में जातिवाद की दीवार खड़ी कर दी जाती है।विकास कार्य सिर्फ उसी मोहल्ले में होते हैं, जहाँ से ज़्यादा वोट मिलने की उम्मीद होती है।दूसरी जातियों के लोग उपेक्षित रहते हैं।जनता को सोचना होगा, क्या विकास जाति देखकर आता है? क्या सड़कें, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ किसी धर्म या जाति की बपौती हैं?

पत्रकारों की भूमिका पर सवाल?यह सच है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता है। पर आज की पत्रकारिता भी कहीं न कहीं सेटिंग-गेटिंग की शिकार हो गई है।

बहुत से पत्रकार सिर्फ प्रेस वार्ता कवर कर ख़बर बना देते हैं।कोई पड़ताल नहीं, कोई जाँच नहीं।बड़े-बड़े पुलिंदे प्रेस कॉन्फ्रेंस में बांटे जाते हैं, पर सच्चाई की तह में कोई नहीं जाता।कुछ पत्रकार नेताओं के प्रचारक बन गए हैं।सोशल मीडिया के “कंटेंट क्रिएटर” असल पत्रकारिता को हास्यास्पद बना रहे हैं।जनता को पत्रकारों से भी सवाल करना चाहिए— क्या आप सच दिखा रहे हैं, या सिर्फ नेताओं के इशारों पर ख़बरें चला रहे हैं?वोट की असली ताकत समझिए

जनता यह बात भूल जाती है कि नेता जनता के आगे हाथ जोड़कर वोट माँगते हैं। नेताओं को नेता जनता ही बनाती है।
अगर जनता एकजुट हो जाए, तो:जातिवाद की राजनीति खत्म हो सकती है।विकास के मुद्दे ही चुनाव में हावी होंगे।व्यक्तिगत लाभ के लिए गाँव की जनता को बाँटने वाले नेताओं का खेल खत्म होगा।पंचायती राजनीति की गंदगी साफ हो सकती है।पर इसके लिए जनता को समझना होगा कि:चुनाव सिर्फ उत्सव नहीं है, बल्कि भविष्य का फैसला है।

  • शराब, मुर्गा, पैसे, लालच पर वोट बेचना सबसे बड़ा गुनाह है।एक बार बिके हुए वोट की कीमत पाँच साल तक चुकानी पड़ती है।

दोगले प्रचारकों” से सावधान!गाँव में ऐसे लोग भी हैं, जो पाँच साल तक नेता के खिलाफ आग उगलते रहते हैं। फिर चुनाव आते ही उन्हीं नेताओं के साथ घूमते हैं। इन दोगले प्रचारकों से सबसे ज्यादा खतरा है।ये लोग जनता को भ्रमित करते हैं। कहते हैं—अबकी बार हमारे नेता जी बदल गए हैं… अब सब अच्छा करेंगे!”पर सच्चाई यह है कि:इन्हें व्यक्तिगत फायदा चाहिए।ठेके, कमीशन, पद या अन्य लाभ चाहिए।ये नेता के लिए भीड़ जुटाने वाले किराए के लोग होते हैं।गाँव वालों को ऐसे लोगों की पहचान करनी चाहिए। क्योंकि ये “नाग पंचमी” के नाग हैं, जो पांच साल फुफकारते हैं, फिर दूध पीने आ जाते हैं।पाँच साल में क्यों नहीं सवाल किए?सबसे बड़ा सवाल—क्या गाँव वालों ने पाँच साल में कभी ग्रामसभा में सवाल उठाए?क्या गाँव वालों ने कभी RTI लगाई?क्या गाँव वालों ने कभी विकास कार्यों की मॉनिटरिंग की?क्या गाँव वालों ने कभी प्रधान या जनप्रतिनिधि को कटघरे में खड़ा किया?अगर जवाब “नहीं” है, तो दोष सिर्फ नेताओं का नहीं, जनता का भी है। क्योंकि लोकतंत्र में जनता ही मालिक होती है।अब समय बदलने का है,गाँवों को, कस्बों को, जिलों को समझना होगा कि विकास की बुनियाद सत्ता के खेल पर नहीं, बल्कि जनता की सजगता पर टिकी है।

जनता को पूछना चाहिए:सड़क बनी या नहीं?हैंडपंप कहाँ लगा?सोलर लाइट कहाँ लगी?कितने इवेंट पर कितनी रकम खर्च हुई?किस जाति या धर्म के लोगों को योजनाओं का फायदा हुआ?क्या सबके लिए समान विकास हुआ?

अगर जवाब संतोषजनक नहीं है, तो ऐसे नेता को दोबारा वोट देना अपराध है।


लोकतंत्र बचाना है तो…गाँव वालों को तय करना होगा कि:“जाति” और “धर्म” पर वोट नहीं देंगे।विकास के कामों की माँग करेंगे।ग़लत को ग़लत कहने की हिम्मत दिखाएँगे।दोगले प्रचारकों” की पोल खोलेंगे।पत्रकारों से सच्चाई की माँग करेंगे।

क्योंकि लोकतंत्र बचाना है, तो जनता को ही जागना होगा। वरना नेता फिर वही नाग बनकर दूध पीते रहेंगे… और गाँव की सड़कें यूँ ही टूटी-फूटी पड़ी रहेंगी।“नेता अगर पाँच साल में गाँव में सड़क नहीं बना पाए, तो चुनाव में वोट की सड़क भी उनके लिए बंद कर दो।”

– अवतार सिंह बिष्ट, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स



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