
उत्तराखंड की पहचान केवल देवभूमि और पर्यटन से नहीं है, बल्कि यह सामरिक दृष्टि से भी देश का प्रहरी राज्य है। चीन और नेपाल दोनों की सीमाओं से सटे गांव न केवल भूगोल का हिस्सा हैं, बल्कि सुरक्षा और संस्कृति की अमूल्य धरोहर भी हैं। किंतु यह कटु सच्चाई है कि पलायन, अवसंरचनात्मक पिछड़ापन और अवसरों के अभाव ने इन गांवों की रौनक छीन ली थी। अब केंद्र सरकार का वाइब्रेंट विलेज कार्यक्रम 2.0 इन गांवों की किस्मत बदलने का वादा लेकर आया है।


✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर (उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी)
पहले चरण में चीन सीमा से सटे 51 गांवों को योजनाओं की सौगात मिली थी। सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा और संचार जैसे बुनियादी ढांचे का विकास वहां नई संभावनाएं खोल रहा है। अब दूसरे चरण में नेपाल सीमा से लगे चंपावत, पिथौरागढ़ और ऊधम सिंह नगर जिलों के 40 गांव शामिल किए गए हैं। यह कदम न केवल विकास का प्रतीक है, बल्कि सीमांत बस्तियों में जीवन के नये अध्याय की शुरुआत है।
इन गांवों की कार्ययोजना दस बिंदुओं पर आधारित होगी—आल वेदर रोड, 4G कनेक्टिविटी, बिजली, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यटन और आजीविका के अवसर। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि जो युवा आज रोजगार की तलाश में मैदानी शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, वे अपने गांव में ही संभावनाएं देख पाएंगे। पर्यटन, कृषि-उद्यान और स्वयं सहायता समूह स्थानीय लोगों के लिए आत्मनिर्भरता का आधार बनेंगे।
सीमा क्षेत्र के इन गांवों का सामरिक महत्व भी उतना ही बड़ा है। किसी भी हलचल की पहली खबर यही ग्रामीण सुरक्षा बलों तक पहुंचाते हैं। ऐसे में यह आवश्यक है कि इन गांवों को “खाली घरों और सूने रास्तों” की बजाय “जीवंत और आत्मनिर्भर बस्तियों” में बदला जाए। vibrant village यही संदेश देता है कि सीमाओं की असली सुरक्षा वहां के बाशिंदों की स्थिरता और समृद्धि में छिपी है।
सवाल यह है कि क्या योजनाएं केवल कागज़ पर सीमित रहेंगी या धरातल पर भी रंग दिखाएंगी? 186 करोड़ की योजनाएं पहले चरण में स्वीकृत हुई थीं, परंतु काम की रफ्तार पर अभी भी सवाल उठते रहे हैं। इसलिए ज़रूरी है कि इस बार भौतिक सत्यापन और पोर्टल पर अपलोड की जाने वाली जानकारी महज़ औपचारिकता न बने, बल्कि पारदर्शिता और जवाबदेही की मिसाल बने।
यह भी ध्यान रखना होगा कि विकास केवल सड़कों और बिजली तक सीमित न हो। गांव की संस्कृति, लोककला और सामुदायिक जीवन को भी संजोना उतना ही आवश्यक है। सीमांत समाज की जीवंत परंपराएं ही हमारी सुरक्षा और राष्ट्रीय अस्मिता का वास्तविक कवच हैं।
इसलिए यह कहना गलत न होगा कि वाइब्रेंट विलेज 2.0 केवल योजना नहीं, बल्कि एक दृष्टि है—सीमांत इलाकों को “देश की चौकी” से “देश की धड़कन” बनाने की दृष्टि। यदि इसे ईमानदारी से लागू किया गया, तो आज उपेक्षित समझे जाने वाले गांव आने वाले कल में आत्मनिर्भरता और सामरिक सजगता के आदर्श बन सकते हैं।
यही समय है—सीमांत गांवों को रौनक लौटाने का, ताकि वे केवल नक्शे पर बिंदु न रहकर भारत की असली जीवनरेखा बन सकें।

