
ध्वस्तीकरण पर नया आदेश?उत्तराखंड सरकार ने सार्वजनिक संपत्तियों पर अवैध कब्जों को हटाने के लिए नया शासनादेश जारी किया है। अब किसी भी ध्वस्तीकरण से पहले शहरी निकायों को कब्जे की विस्तृत रिपोर्ट तैयार करनी होगी, जिसमें संपत्ति का विवरण और दो पंचों के हस्ताक्षर शामिल होंगे। बिना कारण बताओ नोटिस दिए कोई कार्रवाई नहीं होगी। नोटिस पंजीकृत डाक से भेजा जाएगा और कब्जाई गई संपत्ति पर चस्पा करना अनिवार्य होगा।


नोटिस मिलने के बाद 15 दिनों की अवधि दी जाएगी और कब्जाधारक को निजी सुनवाई का अवसर मिलेगा। सुनवाई के बाद अंतिम आदेश पारित होगा और कब्जा हटाने के लिए अतिरिक्त 15 दिन का समय दिया जाएगा। यदि कब्जा नहीं हटाया जाता तो प्रशासन ध्वस्तीकरण कर सकेगा।
हर शहरी निकाय तीन माह के भीतर एक डिजिटल पोर्टल बनाएगा, जिसमें नोटिस, सुनवाई और आदेश से संबंधित सभी विवरण दर्ज होंगे। आदेश का उद्देश्य पारदर्शिता और न्यायपूर्ण प्रक्रिया सुनिश्चित करना है।
हालांकि, बड़ा प्रश्न यह है कि क्या यह आदेश अमीर और गरीब दोनों पर समान रूप से लागू होगा, या फिर पहले की तरह बुलडोज़र केवल गरीब की झुग्गियों और छोटे प्रतिष्ठानों तक ही सीमित रहेगा। यही इस कानून की असली परीक्षा होगी।
उत्तराखंड में शासन-प्रशासन का एक विचित्र चेहरा हर दिन सामने आता है। बुलडोज़र की राजनीति अब केवल प्रतीक नहीं रही, बल्कि व्यवस्था की सच्चाई बन चुकी है। दुर्भाग्य यह है कि यह बुलडोज़र हमेशा गरीब की झुग्गी-झोपड़ी, छोटे दुकानदार की दुकान या फिर उस परिवार के मकान पर ही टूटता है, जो कानून का पालन करते हुए भी कमजोर है।
✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी
रुद्रपुर इसका ताजा और ज्वलंत उदाहरण है। यहां 1000 करोड़ रुपये से अधिक की नजूल भूमि रसूखदारों के कब्जे में है। बड़े होटल, रिसॉर्ट, मॉल और आलीशान व्यावसायिक प्रतिष्ठान इन जमीनों पर खड़े हैं। सत्ता और नौकरशाही की मिलीभगत से नजूल की जमीनों की रजिस्ट्री तक करा दी गई। सब कुछ कागज़ पर वैध बना दिया गया, जबकि असलियत में यह अवैध कब्जा है।
विडंबना यह है कि जब किसी छोटे दुकानदार या साधारण परिवार का घर नजूल भूमि पर पाया जाता है तो प्रशासन बिजली की तेजी से सक्रिय होता है। नोटिस, पुलिस बल और बुलडोज़र तुरंत हाज़िर हो जाते हैं। लेकिन जब रसूखदारों के कब्जों की बात आती है तो सरकार और प्रशासन दोनों ही कान में तेल डालकर सो जाते हैं। यही उत्तराखंड की सबसे बड़ी त्रासदी है—यहां दो कानून चलते हैं।
एक कानून गरीब के लिए है, जो हर हाल में लागू होता है। दूसरा कानून रसूखदारों के लिए है, जो उनके इशारों पर ढल जाता है। यही वह दोहरा चरित्र है, जिसने उत्तराखंड राज्य आंदोलन की उस मूल भावना को चोट पहुंचाई है, जिसमें न्यायपूर्ण और पारदर्शी शासन की कल्पना की गई थी।
अगर सरकार वास्तव में जनता को यह संदेश देना चाहती है कि कानून सबके लिए समान है, तो उसे सबसे पहले उन रसूखदारों पर बुलडोज़र चलाना होगा, जिन्होंने नजूल भूमि को अपनी जागीर बना रखा है। जब तक बड़े-बड़े कब्जेदारों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होगी, तब तक यह बुलडोज़र गरीब के आंसुओं और व्यवस्था की नाइंसाफी का प्रतीक बनकर ही देखा जाएगा।
उत्तराखंड में ध्वस्तीकरण का नया कानून: गरीब और अमीर पर समान या अलग पैमाना?
उत्तराखंड सरकार ने हाल ही में सार्वजनिक संपत्तियों पर अवैध कब्जों को हटाने के लिए एक नया शासनादेश जारी किया है। आदेश के अनुसार अब शहरी निकायों को किसी भी ध्वस्तीकरण से पहले विस्तृत रिपोर्ट तैयार करनी होगी। इस रिपोर्ट में कब्जे की पूरी जानकारी, संपत्ति का विवरण और दो पंचों के हस्ताक्षर अनिवार्य होंगे। इसके साथ ही—
- बिना कारण बताओ नोटिस दिए कोई कार्रवाई नहीं होगी।
- नोटिस प्राप्त होने के 15 दिन बाद ही कब्जा हटाया जाएगा।
- नोटिस की प्रति पंजीकृत डाक से भेजी जाएगी और कब्जाई गई संपत्ति पर चस्पा करना भी अनिवार्य होगा।
- हर शहरी निकाय को तीन माह के भीतर एक डिजिटल पोर्टल तैयार करना होगा, जहां नोटिस से लेकर आदेश तक का पूरा विवरण सार्वजनिक रूप से उपलब्ध रहेगा।
- सुनवाई का अधिकार कब्जाधारक को दिया जाएगा और अंतिम आदेश के बाद 15 दिन का समय और मिलेगा।
कागज़ पर देखा जाए तो यह आदेश पारदर्शिता और न्याय की दिशा में एक ठोस कदम लगता है। गरीब दुकानदार से लेकर बड़े व्यवसायी तक, सभी को समान प्रक्रिया और समान अवसर मिलेगा—यही इसकी मूल भावना है।
लेकिन सवाल यहीं से शुरू होता है। उत्तराखंड में ध्वस्तीकरण की कार्रवाई अब तक एकतरफा ही दिखाई दी है। छोटे-छोटे घर, खोखे और दुकानों पर प्रशासन बिजली की तेजी से बुलडोज़र चलाता है, जबकि शहर के बीचों-बीच खड़ी करोड़ों की नजूल भूमि पर बने होटल, मॉल और रिसॉर्ट आज भी रसूखदारों के संरक्षण में सुरक्षित हैं।
तो क्या यह नया कानून वास्तव में गरीब और अमीर दोनों पर समान रूप से लागू होगा? या फिर यह भी केवल कागज़ों में पारदर्शिता का दिखावा रह जाएगा?
सरकार के आदेश में नीयत साफ दिखती है, लेकिन उसके क्रियान्वयन पर सबसे बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा है। क्या वाकई शहरी निकाय उस मॉल पर भी रिपोर्ट तैयार करेंगे, जो नजूल भूमि पर खड़ा है? क्या बड़े होटल मालिक को भी नोटिस चस्पा कर पंजीकृत डाक भेजी जाएगी? और क्या प्रशासन उन पर भी 15 दिन बाद बुलडोज़र चलाने की हिम्मत जुटा पाएगा?
उत्तराखंड में कानून की असली परीक्षा अब शुरू होती है। क्योंकि जनता की नज़र में न्याय तभी पूरा माना जाएगा जब गरीब और अमीर, दोनों पर एक ही तराजू में नापा जाएगा। अगर यह आदेश केवल कमजोर तबके पर ही लागू हुआ और रसूखदार फिर बच निकले, तो यह कानून भी केवल एक नया छलावा साबित होगा।

