जिस रात्रि में चंद्रमा का उदय होता है, उसे चंद्ररात्रि, यानी चांद की रात कहा जाता है. सावन महीने में ये रात्रि बेहद शुभ और भगवान शिव-पार्वती के वरदान वाली रात्रि मानी जाती है.

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सावन महीने का शुक्ल पक्ष, यानी वो पखवाड़ा जिसमें चंद्रमा की कलाएं पूर्णिमा तक अपने पूर्ण आकार तक बढ़ती हैं, वो शुरु हो चुका है. ये पखवाड़ा 16 दिन का होगा. इन दिनों में भगवान शिव और चंद्रमा के मिलन का क्या महत्व है, क्या पौराणिक गाथाएं हैं और इस दौरान कौन कौन सी पावन तिथियां होती हैं, जिनके व्रत, ध्यान से भगवान शिव की कृपा दृष्टि सहज ही प्राप्त होती है. समझिए, आज की हमारी स्पेशल रिपोर्ट से.✍️ अवतार सिंह बिष्ट, विशेष संवाददाता, (हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स) उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, रूद्रपुर, उत्तराखंड!

‘वर्धमान चंद्र’ कब आता है?

अमावस की रात के बाद शुक्ल पक्ष का पहला दिन, जब चंद्रमा अंधकार पर प्रकाश के विजय की तरह आसमान में उदित होता है. प्रथम दिन का चंद्रमा सूर्यास्त के फौरन बाद उदित होता है. हालांकि प्रदूषित आसमान में आसानी से नहीं दिखाई देता, लेकिन हमारी पूरी धरती पर ये अर्धचंद्र रूप बेहद प्रभावकारी माना जाता है.

शुक्ल पक्ष की पहली तिथि का चांद ‘वर्धमान चंद्र’ कहलाता है. अमावस्या के अगले दिन दिखने वाली ये चंद्रमा की 16 में से पहली कला होती है, जिसे सनातन के ज्योतिष में पूर्णता और आनंद का कारक माना जाता है. चंद्रमा की इसी अर्ध स्थिति को भगवान शिव अपने मस्तक पर धारण करते हैं.

शिव के मस्तक पर ‘अर्धचंद्र’

वैदिक और ज्योतिष की गणनाओं के मुताबिक सावन की अमावस्या के बाद जैसे जैसे चंद्रमा का आकार पूर्णता की ओर बढ़ता है, वैसे वैसे भगवान शिव की आंतरिक प्रसन्नता बढ़ती है. अब यहां समझिए, इसका पौराणिक रहस्य…

भगवान शिव और चंद्रमा के जुड़ाव की एक पौराणिक कहानी समुद्र मंथन के दौरान की है. इससे निकले विष से सृष्टि को बचाने के लिए जब भगवान शिव ने इसे पी लिया, तब उनका कंठ नीला पड़ गया और शरीर प्रचंड रूप से गर्म.

भगवान शिव के मस्तक पर कैसे आए चंद्र?

विष की वजह से व्याग्रता इतनी थी, कि भगवान शिव कई दिनों तक मुर्छित हालत में रहे. तब देवताओं ने उनका मस्तक ठंडा करने के लिए चंद्रमा से आग्रह हुआ. चंद्रमा अपनी दूसरी कला, यानी अर्धचंद्र की स्थिति में भगवान शिव के मस्तक पर विराजमान हुए.

एक दूसरी पौराणिक कथा बताती है, कि भगवान शिव ने चंद्रमा को क्षय रोग से मुक्ति दी थी, उसके बाद उनकी रक्षा के लिए अपने मस्तक पर धारण किया था. लेकिन दोनों की कथाओं का सार यही है- धरती की रात को रौशनी से भरने वाले चंद्रमा सृष्टि के शिव तत्व के ही अंश है.

शिव के अर्धचंद्र का अध्यात्म!

शिव के मस्तक पर चंद्रमा समय चक्र का प्रतीक है. ये बताता है शिव का समय पर पूर्ण नियंत्रण है. इसके ध्यान से आध्यात्मिक ऊर्जा जागृत होती है. शिव-चंद्रमा का योग त्याग और निःस्वार्थ प्रेम का प्रतीक है. भगवान शिव और चंद्रमा के इस पावन योग के साथ अब सावन के शुक्लपक्ष को समझिए, ये कितना अहम हो जाता है. इसकी शुरुआत होती है, शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से, जब चंद्रमा की चौथी कला धरती के सम्मुख होती है. ये अमावस और पूर्णिमा के बीच की स्थिति होती है, जो भगवान गणेश को समर्पित मानी जाती है. इसके पीछे एक खास खगोलीय गणना है.

धरती और चंद्रमा के बीच पूरी दूरी और इसका प्रभाव, आज के आधुनिक विज्ञान से पहले ही हमारे ज्योतिषियों ने ज्योतिषिय गणित में उतार लिया था. चंद्रमा के प्रभाव के आधार पर ज्योतिषाचार्यों ने जो पहली महत्वपूर्ण तिथि बताई हो, चतुर्थी की है. इस दिन चंद्रमा की चौथी कला, जिसका नाम तुष्टि वो धरती पर उदित होती है.

विनायक चतुर्थी का योग क्या होता है?

ये संतुष्टि और आपके अंदर की खुशी का प्रतीक है. देवताओं की सूचि में इस भाव के प्रतीक हैं गणेश, इसलिए ये तिथि विनायक चतुर्थी के रूप में मनाई जाती है. चंद्रमा की कलाओं के हिसाब से सावन में और कौन सी तिथियां महत्वपूर्ण है, समझिए हमारी स्पेशल रिपोर्ट के इस चैप्टर से.

सावन के शुक्ल पक्ष में चंद्रमा की चौथी कला और विनायक चतुर्थी का योग क्या होता है, ये पहले ही बता दिया. अब चलते हैं इस पखवाड़े की अगली तिथि की तरफ, जब धरती के समुम्मुख होती है चंद्रमा की पांचवी कला. चंद्रमा के धृति यानी धैर्य की स्थिति में होती है नागपंचमी!

नागवंश के प्रिय देवता कौन हैं?

भगवान शिव और नागवंश के कनेक्शन में हम अपनी कई स्पेशल रिपोर्ट्स में आपको बता चुके हैं. धरती पर नागवंश के प्रिय देवता भगवान शिव ही हैं. इसलिए जब चंद्रमा की पांचवी कला धृति सावन महीने में धरती पर उदित होती है, तो इस दिन नागों की पूजा करने का चलन है.

इस बार ये पूजा 29 जुलाई को है. यहां आपको बता दें, कि नागपंचमी को शिवलिंग पर विराजित नागदेव का अभिषेक करना चाहिए। हालांकि कुछ लोग जीवित सांप की पूजा करते हैं, लेकिन पुराणों में इसकी मनाही है. इसमें ना सिर्फ खतरा है, बल्कि सांपों सीखने की शक्ति नहीं होने की वजह से वो आपके पूजा भाव को नहीं समझ सकते. इसलिए आपसे खतरा जानकर आपको डंस भी सकते हैं.

कब मनाई जाएगी पुत्रदा एकादशी?

नागपंचमी के बाद सावन की जो अगली पावन तिथि होती है, वो है एकादशी की होती है. सावन शुक्लपक्ष की 11वीं तिथी ‘पुत्रदा एकादशी’कही जाती है. ‘पुत्रदा एकादशी’ को चंद्रमा की 11वीं कला ‘प्रीति’ का उदय होता है!

इस सावन पुत्रदा एकादशी 5 अगस्त को है. इसके बारे में माना जाता है, कि इस व्रत से संतान से जुड़ी समस्याएं चंद्रमा के प्रीति योग की वजह से दूर होती है. ये तिथि वैसे तो भगवान विष्णु को समर्पित होती है, लेकिन सावन में इस दिन शिवलिंग का अभिषेक जरूर करना चाहिए.

द्वादशी तिथि को होता है सावन मास का प्रदोष व्रत

इसके अगले ही दिन, यानी द्वादशी तिथि को सावन मास का प्रदोष व्रत होता है, जो शिव पूजन के लिए बेहद खास होता है. इस दिन धरती के सम्मुख चंद्रमा की 12वीं कला अंगदा होती है. चंद्रमा की वो 16वीं कला अनंतः कही जाती है, यानी अनंत और शास्वत का प्रतीक. ये दिन पूर्ण चंद्रमा का होता है, जिस दिन रक्षाबंधन का त्योहार मनाया जाता है. इसदिन भाई को राखी बंधन के साथ गुरु को भी रक्षा सूत्र बांधने का विधान है.

सावन में सूर्य और चंद्रमा की स्थिति के हिसाब से कई सारे ग्रहदोषों से मुक्ति का भी विधान है. खासतौर पर चंद्रमा के उदित होने के बाद है. ऐसा ही एक ग्रह दोष है, कालसर्प दोष जो भगवान शिव से सीधे जुड़ा हुआ है. कालसर्प दोष से युक्त कुंडली वाले को बहुत सी परेशानियां उठानी पड़ती हैं. वो परेशानियां क्या हैं, वो कैसे दूर होंगी, समझिए हमारी स्पेशल रिपोर्ट के इस चैप्टर से.

कालसर्प दोष के निवारण का बेहतर समय

सावन का महीना है, भगवान का प्रिय मास. ज्योतिषाचार्य कहते हैं, कालसर्प दोष के निवारण का इससे बेहतर समय नहीं हो सकता, क्योंकि भगवान शिव ही हैं धरती पर नागवंश के नियंत्रक देवता.

अब सवाल है, कि सावन में तो हर कोई भगवान शिव की पूजा करता है, को जल-पुष्प अर्पण करने के साथ कांवड़ भी उठाता है, तो क्या इससे ही कालसर्प दोष का निवारण हो जाएगा…? भगवान शिव का रुद्राभिषेक और महामृत्युजय मंत्रका जाप. ये संक्षिप्त विधान है कालसर्प दोष से मुक्ति का. इससे पहले समझना होगा, कि आपकी कुंडली में ये दोष कितना विघ्नकारी है.

इन उपायों से पा सकते हैं कालसर्प दोष से मुक्ति

अब तक ज्योतिषाचार्यों ने जो दो उपाय बताए, भगवान शिव का रुद्राभिषेक और महामृत्युंजय जाप का, पहले उसे समझिए, हमारी परंपरा और ज्योतिष के विधान में ये कितने बड़े कष्ट निवारक है.

कालसर्प दोष के 2 काट

पहला- रुद्राभिषेक

ये किसी भी शिव मंदिर में किया जा सकता है. इसमें शिवलिंग की पूजा 11 वस्तुओं से की जाती है और भगवान शिव के 108 नामों का जाप होता है. रुद्र भगवान शिव का ही एक अवतार है. इससे शांति, समृद्धि और नकारात्मक ऊर्जा से राहत मिलती है

दूसरा- महामृत्युंजय जाप

इस मंत्र का उल्लेख चारों वेदों में मिलता है. इस मंत्र में मृत्यु को जीतने की शक्ति होती है. इसके जाप से जीवन शक्ति बढ़ती है. मन में भय, तनाव और आशंका दूर होती है.

कालसर्प दोष का पता कैसे करें?

ज्योतिषाचार्यों की तरफ से ये एक तरह की चेतावनी है, कि कालसर्प दोष निवारण के जो भी अनुष्ठान हों, वो शिव मंदिर में ही होना चाहिए. ये भगवान शिव को समर्पित होना चाहिए. उससे पहले आप किसी अच्छे ज्योतिषाचार्य से कुंडली जांच कराएं और समझ लें, कि आपकी कुंडली में 12 में से कौन सा कालसर्प दोष है.

कालसर्प दोष का प्रकार जानने के बाद आती है अनुष्ठान की बारी. यानी कालसर्प दोष की स्थिति कुंडली में होने पर भयभीत होने की जरूरत नहीं, बल्कि इसका निवारण खुले मन से कराया जाना चाहिए, ये ज्योतिषाचार्यों की सलाह है.


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