
वहीं, अमेरिका अब भी अपने पुराने, धीमे और महंगे युद्ध ढांचे से बाहर नहीं निकल पाया है.


कम लागत, ज्यादा असर
भारत अब पारंपरिक युद्ध मॉडल से हटकर एक नई राह पर चल पड़ा है – “कम लागत में उच्च प्रभाव”. पिनाका रॉकेट सिस्टम इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है जिसकी कीमत महज़ 56,000 डॉलर है. इसकी तुलना में अमेरिका का GMLRS सिस्टम 148,000 डॉलर का पड़ता है. आकाशतीर एयर डिफेंस सिस्टम भी अमेरिका के NASAMS या पैट्रियट सिस्टम के मुकाबले कहीं सस्ता और तेजी से तैयार हुआ है.
यह रणनीति सिर्फ भारत ही नहीं अपना रहा – ईरान जैसे देश ने भी अपने सस्ते शाहेद-136 ड्रोन से यह दिखाया है कि लागत प्रभावी टेक्नोलॉजी किस तरह अमेरिका के महंगे MQ-9 रीपर जैसे ड्रोन को टक्कर दे सकती है.
अमेरिकी सैन्य व्यवस्था का ठहराव
जॉन स्पेंसर और विंसेंट वियोला जैसे सैन्य रणनीतिकारों ने चेताया है कि अमेरिका की रक्षा प्रणाली मामूली सुधारों से नहीं, बल्कि पूरी तरह से नए सिरे से बनाये जाने की जरूरत में है. अमेरिका की रक्षा इंडस्ट्री अब कुछ गिनी-चुनी कंपनियों – जैसे लॉकहीड मार्टिन, बोइंग, रेथियॉन – के हाथों में सिमट गई है, जिन्होंने मिलकर एक तरह से “कार्टेल” बना लिया है. नतीजा – न इनोवेशन को बढ़ावा मिलता है, न लागत में कमी आती है.
ट्रंप ने भी मानी थी समस्या
पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने खुलकर कहा था कि रक्षा क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा खत्म हो चुकी है. बड़ी कंपनियों का आपस में विलय हो जाना इस बात का संकेत है कि बाजार में अब न तो विकल्प बचे हैं और न ही मोलभाव की गुंजाइश. रक्षा बजट तो बढ़ रहा है – जो 2025 तक 1 ट्रिलियन डॉलर के करीब पहुंच जाएगा – लेकिन इसका ज़्यादा फायदा कुछ कंपनियों तक ही सीमित है.
धीमी अमेरिकी खरीद प्रक्रिया
जब बात आधुनिक युद्ध की होती है, तो स्पीड सबसे बड़ी ताकत बन जाती है – और यहीं अमेरिका पिछड़ता दिख रहा है. नए हथियार सिस्टम को मंजूरी देने और लागू करने में उसे सालों लग जाते हैं. यूक्रेन युद्ध के दौरान जैवलिन और HIMARS जैसे हथियार तो उपयोगी साबित हुए, लेकिन उनकी उत्पादन क्षमता अमेरिकी सिस्टम की कमजोरी उजागर कर गई. सप्लाई लाइनें जर्जर हैं, फैक्ट्रियां पुरानी हैं, और फैसले लेने में समय लगता है.
लागत ही बन गई अमेरिका की कमजोरी
अमेरिकी सैन्य सिस्टम का मौजूदा ढांचा “लागत-प्लस” मॉडल पर आधारित है, जिसमें कॉन्ट्रैक्टर्स बजट से ज्यादा खर्च कर भी दंड से बच जाते हैं. इस मॉडल ने F-35 प्रोजेक्ट जैसी नाकाम कोशिशें पैदा की हैं, जिसकी अनुमानित लाइफटाइम लागत 1.7 ट्रिलियन डॉलर है और प्रदर्शन अब तक उम्मीदों से काफी नीचे रहा है.
भारत से क्या सीख सकता है अमेरिका?
भारत ने दिखाया है कि कम लागत, तेज़ डिलीवरी और स्केलेबल डिज़ाइन कैसे एक साथ काम कर सकते हैं. पिनाका और आकाशतीर जैसे सिस्टम इसका बेहतरीन उदाहरण हैं. भारत ने “तेज़ निर्माण, स्मार्ट टेक्नोलॉजी और युद्धक्षमता” के कॉम्बिनेशन पर ध्यान दिया है – जो आज के युद्धों की सबसे बड़ी मांग है.
स्पेंसर और वियोला मानते हैं कि अमेरिका के पास न तो तेज़ उत्पादन क्षमता है, न स्केलेबल मॉडल और न ही एक ऐसा नेटवर्क जो अचानक आई मांग को तुरंत पूरा कर सके. अगर अमेरिका को प्रतिस्पर्धी बने रहना है, तो उसे ये तीनों चीजें अपनानी होंगी.
अब सिर्फ रूस नहीं, चीन भी है चुनौती
चीन अब सिर्फ एक पड़ोसी नहीं, एक सामरिक प्रतिद्वंदी है. उसकी सेना दुनिया की सबसे बड़ी एक्टिव फोर्स है, जिसमें करीब 20 लाख सैनिक हैं. लेकिन आगे के युद्ध सिर्फ संख्या पर नहीं, रणनीति और टेक्नोलॉजी पर निर्भर होंगे. सवाल यह नहीं है कि किसके पास कितने हथियार हैं – सवाल यह है कि कौन उन्हें कितनी जल्दी और स्मार्टली इस्तेमाल कर सकता है.
अमेरिका को क्या करना होगा?
- रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया को तेज़ और लचीला बनाना होगा
- कार्टेल जैसे एकाधिकार को तोड़ना और नए इनोवेटर्स को बढ़ावा देना
- भारत और इज़रायल जैसे देशों को बराबरी का साझेदार मानते हुए टेक्नोलॉजी साझा करना
- लागत प्रभावी उत्पादन मॉडल को अपनाना और पुराने ढांचे से बाहर निकलना.
नई दिल्ली: भारत का हालिया सैन्य ऑपरेशन “सिंदूर” केवल एक सफल मिशन नहीं, बल्कि एक वैश्विक चेतावनी बनकर उभरा है, खासतौर पर अमेरिका के लिए. यह ऑपरेशन उस बदलाव का संकेत है जो भारत की सैन्य रणनीति में धीरे-धीरे नहीं, बल्कि तेज़ी से हो रहा है. वहीं, अमेरिका अब भी अपने पुराने, धीमे और महंगे युद्ध ढांचे से बाहर नहीं निकल पाया है.
कम लागत, ज्यादा असर
अमेरिकी सैन्य व्यवस्था का ठहराव
ट्रंप ने भी मानी थी समस्या
धीमी अमेरिकी खरीद प्रक्रिया
लागत ही बन गई अमेरिका की कमजोरी
भारत से क्या सीख सकता है अमेरिका?
अब सिर्फ रूस नहीं, चीन भी है चुनौती
अमेरिका को क्या करना होगा?
