उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी परिषद और समस्त राज्य आंदोलनकारियों की पीड़ा और प्रश्न,धरती फिर कराह उठी। उत्तरकाशी के धराली क्षेत्र में आई भीषण त्रासदी ने न सिर्फ पहाड़ों की रगों को छलनी किया, बल्कि पूरे उत्तराखंड को एक बार फिर गहरे सदमे में डुबो दिया। यह सिर्फ बादल फटने की घटना नहीं थी, यह उस लापरवाही, लालच और अव्यवस्था की परिणति थी, जो पिछले 25 वर्षों से पहाड़ों पर थोपी जा रही है।धराली की इस त्रासदी में जहां दर्जनों निर्दोष लोग लापता हो गए, वहीं कई परिवारों का जीवनकाल का सहारा भी बह गया। सेना के जवानों तक का लापता हो जाना बताता है कि पदा प्रबंधन और पूर्व सूचना तंत्र पूरी तरह फेल हो चुका है। आखिर एक ऐसी संवेदनशील घाटी में, जहां मौसम और भूगर्भीय स्थितियां पल-पल में बदल जाती हैं, वहां निर्माण कार्य, सड़कें, सुरंगें और बाँध किन मापदंडों पर हो रहे हैं?✍️अवतार सिंह बिष्ट,हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, अध्यक्ष उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी परिषद
25 वर्षों का राज्य और वही पुरानी पीड़ा,2000 में जब उत्तराखंड राज्य बना था, तब जनता को यह सपना दिखाया गया था कि अब उनकी विशिष्ट समस्याओं के समाधान स्थानीय सरकारें करेंगी। लेकिन हुआ क्या? न पहाड़ों से पलायन रुका, न स्वास्थ्य, शिक्षा, आपदा प्रबंधन, या रोजगार के हालात सुधरे। उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, चमोली, टिहरी – हर जिला हर साल किसी न किसी आपदा की चपेट में आता है। हर साल सैकड़ों लोग उजड़ते हैं, और सरकार सिर्फ मुआवजे और बयानबाज़ी तक सीमित रहती है।
किसकी जिम्मेदारी है यह मौतें?जब धराली जैसी जगहों में बिना पर्यावरणीय अध्ययन के सुरंगें खोदी जाती हैं, बिना भूगर्भीय अन्वेषण के सड़कें बनाई जाती हैं, जब नदी-नालों के प्राकृतिक प्रवाह से छेड़छाड़ होती है, तो क्या यह आकस्मिक त्रासदी कही जा सकती है? यह एक सोची-समझी हत्या है — प्रकृति की, संस्कृति की और अब इंसानों की भी। उत्तराखंड सरकार, जिला प्रशासन और निर्माण कंपनियों की त्रयी ने मिलकर इन पहाड़ों को मौत का घर बना दिया है।
लापता जवान: क्या यह भी सिर्फ आँकड़ा बनकर रह जाएगा?धराली त्रासदी में भारतीय सेना के जवानों का लापता होना केवल एक खबर नहीं, एक राष्ट्रीय आपराधिक लापरवाही है। जिन जवानों पर देश की रक्षा की जिम्मेदारी है, उन्हें इस तरह की आपदा में असुरक्षित छोड़ देना, न केवल उत्तराखंड सरकार बल्कि रक्षा मंत्रालय के लिए भी गहरी आत्ममंथन की बात होनी चाहिए।
आंदोलनकारियों की चेतावनी: अब और नहीं!उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी परिषद और समस्त राज्य आंदोलनकारी इस त्रासदी को केवल प्राकृतिक नहीं मानते। यह त्रासदी उन 25 वर्षों की सड़न का परिणाम है, जब सरकारें सिर्फ टेंडर, लूट और दलाली के लिए बनती-बिगड़ती रहीं। हम चेतावनी देते हैं कि अब यदि पहाड़ों को खुली खदान बना देने वाली कंपनियों पर रोक नहीं लगी, तो आंदोलन फिर से होगा। यह बारूद का ढेर है, जिसे सरकारें खुद जलाने पर तुली हैं।
उत्तरकाशी के धराली क्षेत्र में हालिया त्रासदी ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि हिमालय अब चेतावनी नहीं, बदला लेने पर उतर आया है। यह केवल बादल फटने की घटना नहीं, बल्कि हमारे द्वारा प्रकृति के संतुलन से लगातार की जा रही छेड़छाड़ का परिणाम है। सुरंगें, बांध, सड़कों का अंधाधुंध निर्माण, पहाड़ों का कटाव, नदियों के प्राकृतिक बहाव से खिलवाड़ — यह सब मानवजनित विनाश का आमंत्रण है।


सरकारें केवल टूरिज्म, टेंडर और चुनावी फायदे के नजरिये से विकास योजनाएं बनाती हैं। पर्यावरणीय प्रभाव आकलन या भूगर्भीय सर्वेक्षण केवल कागजों तक सीमित हैं। निर्माण कंपनियां मुनाफे के लिए संवेदनशील पर्वतीय क्षेत्रों को विस्फोटों से खोखला कर रही हैं। ऐसे में जब आपदा आती है, तो सारा दोष ‘कुदरत’ पर डाल दिया जाता है।
धराली त्रासदी केवल एक प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि वर्षों की सरकारी उपेक्षा, लालच और पर्यावरणीय अपराधों का मिला-जुला परिणाम है। आज पूरा उत्तराखंड आहत है, लेकिन क्या हम सच में सबक लेंगे? अगर नहीं, तो अगली त्रासदी दूर नहीं। इस बार हम ज़िंदा बचे हैं, अगली बार शायद प्रकृति कोई मोहलत न दे।

