
साल था 1950. लोग लोकतंत्र के नए सवेरे की तैयारी कर रहे थे, लेकिन कुछ रियासतों के राजा और अमीरों को यह नया दौर पसंद नहीं आया. उन्हें डर था कि अब उनकी रियासतें और विशेषाधिकार छिन जाएंगे.

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी
इन्हीं बेचैन राजाओं की साजिश से एक नाम उभरा – भूपत सिंह, एक ऐसा डाकू जिसका आतंक पूरे सौराष्ट्र में फैल गया. कहा जाता है, भूपत कोई साधारण लुटेरा नहीं था. किसी जमाने में वह किसी छोटे राजा का नौकर हुआ करता था. वह एक बेहतरीन निशानेबाज़ और ड्राइवर भी था. लेकिन हालात और गुस्से ने उसे बंदूक उठाने पर मजबूर कर दिया.
जिसने डकैती और हत्याओं से मचा दिया कोहराम
धीरे-धीरे भूपत सिंह एक खूंखार गिरोह का सरदार बन गया. उसकी बंदूक के निशाने पर कोई भी हो सकता था- किसान, अफसर या पुलिसवाले तक. डॉन की रिपोर्ट के मुताबकि, उसने 70 से ज़्यादा लोगों की जान ली, जिससे पूरे गुजरात में दहशत का माहौल बन गया.
वह इतना खतरनाक हो चुका था कि उसे पकड़ने के लिए सरकार उसके सिर पर 50 हजार रुपये का इनाम रख चुकी थी. यह उस समय की बहुत बड़ी रकम थी. अफवाहें थीं कि कुछ रियासतों के राजा उसे छिपकर मदद दे रहे थे, जिससे लोग समझें कि लोकतंत्र आने से कानून-व्यवस्था बिगड़ गई है. उनका मकसद जनता में डर फैलाना था.
हर डकैती के बाद छोड़ता था रहस्यमयी चिट्ठी
धीरे-धीरे उन राजाओं की साजिश काम करने लगी. विदेशी अख़बारों के पत्रकार भी इस जाल में फंस गए. वे लिखने लगे कि भारत में लोकतंत्र तो आया, लेकिन वहां डाकू राज कर रहे हैं. हालांकि भूपत सिंह केवल डर का नाम नहीं था. कुछ लोग उसे ‘रॉबिन हुड’ की तरह भी देखते थे, जो अमीरों से धन लूटकर गरीबों में बांट देता था. गांवों में कहा जाता था कि वह गरीबों के लिए दूध और अनाज बांटता था. औरतों के प्रति सम्मान रखता था. कुछ लोग तो उसे हनुमान का भक्त भी मानते थे.
उसकी हर डकैती के बाद एक रहस्यमयी चिट्ठी मिलती. वह चिट्ठी नीले कागज पर लिखी जाती थी और उस पर फूलों की सजावट होती थी. इस चिट्ठी में वह सरकार को पकड़ने की चुनौती देता था.
नीले कागज़ की चिट्ठियों में क्या लिखता था भूपत?
भूपत जब भी अपने गिरोह के साथ किसी गांव में डकैती डालता था तो वह नीले रंग के कागज़ पर एक चिट्ठी छोड़ जाता था. यह चिट्ठी हमेशा साफ़-सुथरी लिखी हिंदी या गुजराती में होती थी. कभी-कभी उसके किसी साक्षर साथी द्वारा लिखवाई जाती थी. उस कागज़ पर ऊपर फूलों की हल्की सजावट होती थी और साथ ही लिखा होता था ‘मुझे मत भूलना.’
वह इन चिट्ठियों के जरिए सीधे-सीधे सरकार को चैलेंज देता था. उनमें वह लिखता था, ‘तुम्हारे सिपाही मेरे पीछे दौड़ते हैं, लेकिन मैं जहां चाहूं, वहां जाता हूं. जिस दिन मैं चाहूंगा, राजकोट के बाजार में चाय पीकर लौट आऊंगा.’
‘पुलिसवालों! मेरे पांव के निशान तक पढ़ नहीं सकते’
कभी-कभी वह अपनी कार्रवाई को न्याय का रूप देता था. यह जताते हुए कि वह अमीरों से लूटकर गरीबों को राहत दे रहा है. इसके लिए वह अपनी चिट्ठियों में लिखता, ‘जिनसे तुमने जमीन छीनी, उन्हें मैं हक वापस दिलवा रहा हूं.’ कुछ पत्रों में वह खुद को ‘धरती का मालिक भूपत’, ‘भूपत मकवाना’ या ‘न्याय का सेवक’ कहकर हस्ताक्षर करता था.
कई चिट्ठियों में उसने पुलिस की अक्षमता पर ताना मारा. उसने लिखा, पुलिसवालों! मेरे पांव के निशान तक पढ़ नहीं सकते, मुझे क्या पकड़ोगे?
पुलिस के घेरे में कैसे फंसा डकैत?
भूपत सिंह इतना निडर था कि एक बार वह राजकोट शहर में दिन-दहाड़े बाल कटवाने, सिनेमा देखने और चाय पीने गया, वो भी पुलिस थाने के पास! पुलिस उसे पकड़ने के लिए पागल थी लेकिन वह हर बार बच निकलता. आख़िरकार एक वीर पुलिस अधिकारी वी.जी. कानिटकर ने उसकी तलाश शुरू की.
कानिटकर ने रेगिस्तान में पांवों निशान पहचानने वाले पांगी ट्रैकरों की मदद ली. धीरे-धीरे वह उसके गिरोह तक पहुंच गए. इसके बाद उन्होंने भूपत के साथी देवायत का एनकाउंटर कर दिया, हालांकि भूपत बच निकला.
कानिटकर ने अपनी किताब ‘भूपत’ में लिखा है कि ये चिट्ठियां उन्हें सबसे ज़्यादा चिढ़ाती थीं क्योंकि वे दिखाती थीं कि डाकू उनसे एक कदम आगे चल रहा है. कानिटकर ने लिखा कि भूपत अक्सर पत्रों में संकेत छोड़ देता था, जिससे पुलिस गलत दिशा में चली जाए.
आखिरी चिट्ठी में भूपत ने छोड़ा बड़ा संकेत
उसने आखिरी चिट्ठी कब लिखी, इसके बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं है लेकिन एक रिपोर्ट के अनुसार उसने भागने से पहले लिखा था, ‘अब धरती छोड़कर दरिया पार जा रहा हूं. देखो, क्या तुम मुझे वहां भी पकड़ पाते हो?’ यह संकेत था कि वह सीमा पार कर पाकिस्तान की ओर जा रहा है और कुछ ही समय बाद, वही हुआ.
उस आखिरी संदेश के साथ उसकी ‘नीले कागज़ की कथा’ समाप्त हो गई. लेकिन उसका अंदाज़, उसका साहस, और उसकी भाषा आज भी इतिहास में रहस्यमय प्रतीक बन गई. इसके बाद खबर आई कि भूपत पाकिस्तान के कराची शहर में पकड़ा गया. वह वहां साधु के भेष में छिपा था. उसके पास एक अनलाइसेंसी रिवॉल्वर मिली.
वह डकैत, जिसके ऊपर बनी कई फिल्में
पर कहानी यहीं खत्म नहीं हुई. पाकिस्तान ने उसे कभी भारत को सौंपा नहीं. कुछ लोग कहते हैं कि उसने वहां पर इस्लाम मजहब कबूल कर लिया और वह डकैती छोड़कर दूध का कारोबार करने लगा. 1956 में रियासतों का गिरासीदारी प्रथा खत्म हुई और सौराष्ट्र धीरे-धीरे गुजरात का हिस्सा बन गया. लेकिन भूपत का नाम लोककथाओं में जिंदा रहा.
बाद में उसके जीवन पर फ़िल्में बनीं और कहानियां लिखी गईं. वर्ष 1960 में भूपत के ऊपर ‘डाकू भूपत’ के नाम से मूवी बनी. इसके साथ ही ‘मेरा गांव मेरा देश’ और ‘मुझे जीने दो’ मूवी भी डाकू भूपत से प्रेरित कही जाती हैं.
उसके परिवार के बारे में खास जानकारी उपलब्ध नहीं है लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि उसके दो बच्चे थे. भारत में उम्र कैद के डर से वह कभी नहीं लौटा और वहीं पर उसकी मौत हो गई. इस तरह भारत का एक खूंखार डाकू, जो कभी राजाओं की साजिश का मोहरा था, वह पाकिस्तान में एक गुमनाम मौत मर गया.


