शीर्षक: गीता से भी घबराए शिक्षक! धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सनातन का अपमान कब तक?

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उत्तराखंड,जब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था—“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन”, तो उन्होंने न तो किसी मज़हब को ठेस पहुँचाई थी और न ही किसी पर कोई धर्म थोपने का प्रयास किया था। गीता के श्लोक केवल धार्मिक उपदेश नहीं, बल्कि नैतिकता, कर्तव्यबोध, आत्मनियंत्रण और आत्मज्ञान की सार्वकालिक शिक्षाएँ हैं, जिन्हें न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया ने सराहा है। किंतु दुर्भाग्य देखिए कि आज के कुछ “बौद्धिक शिक्षाविद” और कथित संविधान-रक्षक शिक्षक संघ स्वयं को गीता से भी असहज महसूस कर रहे हैं।

हाल ही में उत्तराखंड में प्रार्थना सभा में गीता के श्लोकों को पढ़ाए जाने के निर्देश पर एससी-एसटी शिक्षक एसोसिएशन ने आपत्ति जताई है। उनका कहना है कि यह “धार्मिक शिक्षा” है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 28(1) का उल्लंघन है। शिक्षकों ने शिक्षा निदेशक को पत्र लिखकर इस निर्णय को वापस लेने की मांग की है। उन्होंने इसे धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध बताया और सामाजिक समरसता पर प्रश्न खड़े किए।

क्या गीता केवल “हिंदू धार्मिक ग्रंथ” है?गीता को केवल एक धार्मिक ग्रंथ के रूप में देखना उसकी वैश्विक मान्यता और दार्शनिक गहराई के साथ अन्याय है। गीता विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रंथ है, जो आत्मा, मन, कर्म, और धर्म के संबंध में गहन अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। अमरीका से लेकर जापान तक कई विश्वविद्यालयों में The Bhagavad Gita को “एथिक्स”, “फिलॉसफी” और “लीडरशिप” की कक्षाओं में पढ़ाया जाता है।

क्या गांधी जी का वह कथन हमें नहीं याद, जब उन्होंने कहा था—

“When disappointment stares me in the face and all alone I see not one ray of light, I turn to the Bhagavad Gita and find a verse to comfort me.”

तो क्या अब महात्मा गांधी की आस्था भी “संविधान विरोधी” ठहरा दी जाएगी?


धर्मनिरपेक्षता या सनातन-विरोधिता?विरोध करने वाले शिक्षक संगठन संविधान की आड़ लेकर जिस “धर्मनिरपेक्षता” की दुहाई दे रहे हैं, वह वस्तुतः एकपक्षीय और सनातनविरोधी सोच को पोषित करती है। विडंबना देखिए कि जिन स्कूलों में ईद, क्रिसमस, गुरुपर्व जैसे त्यौहार बड़े धूमधाम से मनाए जाते हैं, वहाँ गीता के श्लोक सुनना “धार्मिक थोप” बन गया!क्या ये वही शिक्षक हैं जो बाबा साहब आंबेडकर को आदर्श मानते हैं? क्या वे यह भूल गए कि बाबा साहब ने स्वयं गीता पढ़ी थी, और उसमें निहित न्यायबुद्धि को अपने दृष्टिकोण से सराहा भी था?


बच्चों से डर या संस्कृति से घृणा?बच्चों को यदि ‘असतो मा सद्गमय’, ‘कर्म करो, फल की चिंता मत करो’, ‘विनम्रता और धैर्य’ जैसी शिक्षाएं दी जा रही हैं, तो उससे किस धर्म का अपमान हो रहा है? यह तो भारत की सनातन परंपरा है, जो केवल पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि एक जीवन-दर्शन है।जो शिक्षक इसे “धार्मिक भेदभाव” कह रहे हैं, उनसे पूछा जाना चाहिए:

क्या उन्होंने कभी कुरान के अंश, बाइबिल की शिक्षाएं या गुरु ग्रंथ साहिब के उपदेशों के विरोध में पत्र लिखा? नहीं। क्योंकि उनकी समस्या गीता से है, न कि धर्म से।

वास्तव में यह गीता से नहीं, बल्कि गीता के नाम पर खड़ी उस सनातनी चेतना से भय है जो भारत की आत्मा है।


संविधान की वास्तविक व्याख्या कौन करेगा?अनुच्छेद 28(1) कहता है कि “राज्य द्वारा संपूर्णतः निधिपोषित शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी”, परंतु अनुच्छेद 51A(h) भी कहता है—

“It shall be the duty of every citizen of India to develop the scientific temper, humanism and the spirit of inquiry and reform.”

क्या गीता की शिक्षाएं आत्मानुशासन, विवेक और साहस नहीं सिखातीं? क्या वे मानवतावाद को नहीं बढ़ावा देतीं?धार्मिक कट्टरता वह है जो बच्चों को यह कहने से रोकती है कि—

“हे अर्जुन, तू कर्म कर!”


गीता से डर कैसा?आज आवश्यकता इस बात की है कि विद्यालयों में गीता के श्लोकों से नैतिक शिक्षा को बढ़ावा दिया जाए। यह धार्मिक आग्रह नहीं, बल्कि संस्कृतिक उत्थान है। यदि इस देश के बच्चे कुरान, बाइबिल, गुरु ग्रंथ साहिब और तिपिटक की शिक्षाओं को पढ़ते हैं तो उन्हें गीता भी पढ़नी चाहिए। समावेशी शिक्षा का यही सही अर्थ है— सभी के ज्ञान को अपनाना, किसी को अपमानित करना नहीं।जो लोग बच्चों को गीता से दूर करना चाहते हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वही गीता इस भारत भूमि की आत्मा है। धर्मनिरपेक्षता का मतलब सनातन से विमुख होना नहीं है, बल्कि सभी परंपराओं का आदर करना है। गीता से डरने वाले लोग शायद अपने भीतर के अर्जुन को जगाना ही नहीं चाहते।


✍️ लेखक – अवतार सिंह बिष्ट

वरिष्ठ संपादक, शैल ग्लोबल टाइम्स / हिन्दुस्तान ग्लोबल टाइम्स


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