वट सावित्री व्रत: रुद्रपुर से बागेश्वर तक श्रद्धा, परंपरा और सुहाग की साधना का पर्व

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उत्तराखंड,गोलू मंदिर शैल भवन सहित कई मंदिरों में महिलाओं ने विधिवत पूजन कर पति की दीर्घायु की कामना की

रुद्रपुर,/बागेश्वर। भारतीय संस्कृति में नारी को शक्ति और श्रद्धा का प्रतीक माना गया है, और वट सावित्री व्रत इस भाव की पूर्ण अभिव्यक्ति है। सोमवार को रुद्रपुर सहित पूरे उत्तराखंड में वट सावित्री व्रत पारंपरिक श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया गया। सुहागिन महिलाओं ने वैदिक रीति से व्रत रखकर वटवृक्ष की पूजा की और सावित्री-सत्यवान की अमर कथा का स्मरण किया।

गोलू मंदिर शैल भवन बना श्रद्धा का केंद्र

रुद्रपुर शहर के गोलू मंदिर स्थित शैल भवन परिसर में सुबह से ही महिलाओं की भीड़ उमड़ पड़ी। पारंपरिक साड़ी, सिंदूर और मांग में सजावटी फूलों से सजी महिलाओं ने मंदिर परिसर को जीवंत कर दिया। पूजा स्थल को रंगोली, दीपक और वटवृक्ष के चारों ओर बांधे गए कलावे से सजाया गया था।

व्रती महिलाओं ने सबसे पहले व्रत कथा का श्रवण किया। कथा के दौरान पंडितों ने सावित्री और सत्यवान की कथा सुनाई, जिसमें बताया गया कि किस प्रकार पतिव्रता सावित्री ने यमराज से अपने पति के प्राणों की रक्षा की और उसे जीवनदान दिलाया। इस कथा को सुनते हुए अनेक महिलाओं की आंखें श्रद्धा और भावुकता से नम हो गईं।

इसके पश्चात महिलाओं ने वटवृक्ष की परिक्रमा की और अपने पति की लंबी उम्र के लिए धागा बांधा। इस दौरान पूजन संपन्न कराने वाले आचार्य विष्णु पांडे ने कहा, “वट सावित्री व्रत भारतीय नारी की शक्ति, संकल्प और त्याग का प्रतीक है। यह पर्व दर्शाता है कि नारी मात्र सहनशील नहीं, अपितु संकटों से जूझने वाली यशस्विनी है।”

सामाजिक समरसता का उदाहरण बनीं महिलाएं

पूजन के बाद महिलाओं ने एक-दूसरे को व्रत की बधाई दी और प्रसाद वितरित किया। इस अवसर पर आकांक्षा दफौटी, उमा गुरुरानी, गीता रावल, किरन पांडे, ममता रावल, भावना गड़िया, रेखा मिगलानी, सुनीता कोटनाला, मंजू भट्ट, और नीलम जोशी सहित बड़ी संख्या में श्रद्धालु महिलाएं उपस्थित रहीं।

आकांक्षा दफौटी ने कहा, “यह पर्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि परिवार को एकजुट करने का उत्सव है। हमारी संस्कृति में पति-पत्नी का रिश्ता केवल शारीरिक नहीं, आध्यात्मिक जुड़ाव भी है। व्रत उसी आत्मिक एकता की पुष्टि करता है।”

कपकोट, कांडा, गरुड़ में भी रही भक्तिमय छटा

बागेश्वर जनपद के कपकोट, कांडा, गरुड़, दुग-नाकुरी और काफलीगैर तहसील क्षेत्रों में भी यह पर्व उल्लासपूर्वक मनाया गया। महिलाओं ने सुबह से ही स्थानीय मंदिरों में जाकर वटवृक्ष की पूजा की और दिनभर उपवास रखा। जगह-जगह सामूहिक पूजन का आयोजन हुआ, जिससे सामाजिक सौहार्द और सांस्कृतिक चेतना को नया जीवन मिला।

कपकोट निवासी शकुंतला देवी ने बताया कि उन्होंने बीते 20 वर्षों से यह व्रत नहीं छोड़ा है। “इस व्रत से मन को शांति और संतोष मिलता है। यह नारी के आत्मबल को बढ़ाने वाला पर्व है,” उन्होंने कहा।

बागनाथ मंदिर परिसर में उमड़ा जनसैलाब

बागेश्वर जिला मुख्यालय स्थित प्रसिद्ध बागनाथ मंदिर परिसर में भी वट सावित्री व्रत को लेकर खासा उत्साह देखा गया। सुबह से ही महिलाएं पारंपरिक वेशभूषा में मंदिर परिसर पहुंचने लगीं। मंदिर के वटवृक्ष को फूलों, लाल धागों और दीपकों से सजाया गया था।

महिलाओं ने वैदिक मंत्रोच्चार के बीच विधिवत पूजन किया और एक-दूसरे को हल्दी-कुमकुम लगाकर सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया। बागनाथ मंदिर के पुजारी आचार्य मोहन चंद्र उपाध्याय ने बताया कि “यह पर्व हमें भारतीय संस्कृति की गहराई का अहसास कराता है, जिसमें नारी को सम्मान और सशक्तिकरण का प्रतीक माना गया है।”

प्रशासन और मंदिर समितियों ने निभाई जिम्मेदारी

पूरे आयोजन के दौरान मंदिर प्रशासन और स्थानीय समितियों ने सफाई, सुरक्षा और शांतिपूर्ण माहौल बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रुद्रपुर और बागेश्वर दोनों जगहों पर पुलिस बल तैनात रहा और महिलाओं को किसी प्रकार की असुविधा न हो, इसका ध्यान रखा गया।

धार्मिक आस्था और सामाजिक एकता का पर्व

वट सावित्री व्रत केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि यह भारतीय स्त्रीशक्ति, आत्मबल, और सामाजिक एकता का उदाहरण भी है। यह पर्व हमें यह सिखाता है कि आस्था और विश्वास से बड़ी कोई शक्ति नहीं होती। सावित्री की भांति हर स्त्री में अपने परिवार को बचाने, जोड़ने और संभालने की अपार शक्ति है।

इस अवसर पर कई सामाजिक संगठनों ने महिलाओं के सम्मान में पुष्पवर्षा की और उन्हें जलपान कराया। आयोजन में भाग लेने वाली कई युवतियों ने पहली बार व्रत में भाग लिया, जो इस पर्व की अगली पीढ़ी में स्वीकार्यता को दर्शाता है।


वट सावित्री व्रत केवल एक व्रत नहीं, बल्कि वह परंपरा है जो स्त्री को केवल गृहलक्ष्मी ही नहीं, बल्कि धर्म की रक्षक और परिवार की आधारशिला के रूप में प्रतिष्ठित करती है। रुद्रपुर से लेकर बागेश्वर तक फैली श्रद्धा की इस लहर ने यह साबित कर दिया कि आधुनिकता के दौर में भी भारतीय नारी की आस्था अडिग है और परंपराएं आज भी जीवंत हैं।



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