रुद्रपुर उत्तराखंड भूमिका: जब गाँव ने संकेत दिया…उत्तराखंड त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव 2025 में जिस नतीजे की आहट Hindustan Global Times पहले ही दे चुका था, वही अब ज़मीन पर साफ़ नज़र आने लगा है। ग्रामसभा से लेकर जिला पंचायत तक कांग्रेस के झंडे बुलंद हैं और भाजपा नेताओं की ‘प्रतिष्ठा’ को गहरा आघात लगा है।
गढ़वाल में पंचायत चुनाव 2025: कांग्रेस बनाम भाजपा
गढ़वाल मंडल के पंचायत चुनावों में इस बार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को झटका लगा है, जबकि कांग्रेस ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन कर सभी को चौंकाया है। टिहरी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग, चमोली और उत्तरकाशी जैसे जिलों में भाजपा को कई स्थानों पर बागी प्रत्याशियों, स्थानीय असंतोष, और गठबंधन विफलता का सामना करना पड़ा।
वहीं, कांग्रेस ने स्थानीय मुद्दों और ग्रामीण संपर्क के दम पर पंचायत स्तर पर अपनी जड़ें मजबूत की हैं। पार्टी ने ऐसे प्रत्याशी उतारे जो क्षेत्र के सामाजिक ताने-बाने से जुड़े थे, जबकि भाजपा पर ऊपरी नेतृत्व के थोपे उम्मीदवारों को लेकर सवाल उठे।
गढ़वाल में कांग्रेस ने यह साबित कर दिया कि पंचायत स्तर की राजनीति को हल्के में लेना भाजपा की भारी भूल थी। भाजपा का परंपरागत गढ़ अब खिसकता नजर आ रहा है, जो 2027 के विधानसभा चुनावों से पहले पार्टी के लिए गंभीर चेतावनी है।गढ़वाल में कांग्रेस का उभार और भाजपा की फिसलन, राज्य की बदलती राजनीतिक हवा का संकेत है।
यह चुनाव केवल एक पंचायती सत्ता का हस्तांतरण नहीं है, बल्कि 2027 की विधानसभा की ओर बढ़ती राजनीतिक लहरों का जनादेश है।
कुरैया से सुनीता सिंह की जीत और तिलकराज बेहड़ का ‘किंगमेकर’ अवतार
कुरैया से कांग्रेस प्रत्याशी सुनीता सिंह की निर्णायक बढ़त और संभावित जीत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उधम सिंह नगर में तिलकराज बेहड़ फिर से कांग्रेस की रीढ़ बनकर उभरे हैं।
कांग्रेस को मिला जन समर्थन, क्यों?


1. स्थानीय नेतृत्व को कांग्रेस ने प्राथमिकता दी, जबकि भाजपा बाहरी चेहरे थोपने में लगी रही।
. जनसंवाद में सक्रियता: कांग्रेस कार्यकर्ता जमीन पर दिखे, जबकि भाजपा नेता सोशल मीडिया तक सीमित रह गए।
विकास और महंगाई जैसे मुद्दों पर सीधा फोकस: कांग्रेस ने स्थानीय मुद्दों को पकड़कर जनता का भरोसा जीता।
भाजपा की गिरती पकड़ के कारण:
. अहंकार और आत्ममुग्धता: भाजपा नेतृत्व यह मान बैठा कि चुनाव पहले से ही जीत लिए हैं।
. बाहरी प्रत्याशियों को थोपना: इससे स्थानीय कार्यकर्ता नाराज़ हुए और निष्क्रिय हो गए।
. महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार पर चुप्पी: जनता को लगा कि भाजपा सिर्फ सत्ता में रहने के लिए लड़ रही है, सेवा के लिए नहीं।
2027 विधानसभा चुनाव पर प्रभाव:
यदि यही रुझान 2027 तक जारी रहे, तो उत्तराखंड में सत्ता का परिवर्तन तय माना जा सकता है। कांग्रेस को एक नया मनोबल मिला है और जमीनी कार्यकर्ताओं में उत्साह लौटा है। भाजपा को चाहिए कि वह जनता के साथ संवाद, स्थानीय नेतृत्व को सम्मान, और युवाओं के मुद्दों पर फोकस करे, वरना आने वाले चुनावों में कांग्रेस उसे पूरी तरह राजनीतिक किनारे लगा सकती है।
पंचायत चुनाव केवल गांव की सरकार नहीं, बल्कि प्रदेश की राजनीति का आईना होते हैं। कांग्रेस की जीत एक संकेत है कि जनता ने विकल्प तलाशना शुरू कर दिया है। भाजपा यदि अब भी नहीं चेती, तो 2027 उसके लिए बड़ा झटका बन सकता है।
तिलकराज बेहड़ जो पूर्व स्वास्थ्य मंत्री रहे हैं, इस बार जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।
गुरदास कालरा की 1700 वोटों से जीत और प्रेम आर्य की ज़िला पंचायत में एंट्री – ये सब एक संगठित कांग्रेस रणनीति का हिस्सा रहे, जिसमें ग्रामीण विश्वास की झलक साफ़ है।
राजेश शुक्ला की प्रतिष्ठा क्यों दांव पर लगी?
पूर्व विधायक राजेश शुक्ला, जो कभी शिक्षा विधानसभा में भाजपा का चेहरा थे, उनकी प्रतिष्ठा अब ग्रामीण भारत के ‘मत’ से हार चुकी है।
इसका मुख्य कारण है:
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जनसमस्याओं से दूरी: शहरी राजनीति में सक्रियता, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार संवादहीनता।
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पार्टी के अंदर गुटबाज़ी: टिकट वितरण में स्थानीय नेताओं की अनदेखी और थोपे गए उम्मीदवार।
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कांग्रेस की गांव में वापसी: बेरोज़गारी, महंगाई और स्वास्थ्य सेवाओं में गिरावट ने भाजपा से मोहभंग पैदा किया।
रुद्रपुर में शिव अरोड़ा और महापौर विकास शर्मा की चुनौती
रुद्रपुर विधायक शिव अरोड़ा और नगर निगम महापौर विकास शर्मा की प्रतिष्ठा भी इन चुनावों में ज़ोरदार चुनौती के सामने बौनी साबित हुई।
कई ग्राम पंचायत क्षेत्रों में भाजपा समर्थित उम्मीदवारों की हार ने स्पष्ट किया कि शहरी चेहरे ग्रामीण राजनीति में लोकप्रिय नहीं हो पा रहे।
क्यों टूट रही है भाजपा की ग्रामीण घुसपैठ?
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विकास योजनाओं की विफलता: प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छ भारत मिशन और जल जीवन मिशन जैसी योजनाओं का ग्रामीण क्रियान्वयन बेहद कमजोर रहा।
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स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार: ग्राम पंचायत स्तर पर ठेकेदारी, आवंटन और लाभार्थी चयन में भाजपा नेताओं की भूमिका संदेह के घेरे में रही।
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दंभ और एकतरफा संवाद: भाजपा ने संवाद का विकल्प ‘प्रचार’ से बदल दिया और जमीनी कैडर उपेक्षित होता गया।
नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ और गढ़वाल में भी भाजपा का ग्राफ गिरा
गढ़वाल मंडल, जो कभी भगवा गढ़ कहलाता था, वहां अब कांग्रेस के पक्ष में बयार चलने लगी है।
नैनीताल, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा जैसे रणनीतिक जिलों में ग्राम पंचायत से लेकर जिला पंचायत तक कांग्रेस के प्रतिनिधियों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है।
भाजपा हाईकमान के लिए संकट की घंटी
भाजपा को अब मंथन करने की ज़रूरत है:
- क्या जनता बदलाव चाहती है?
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क्या भाजपा की नेतृत्व प्रणाली केवल चेहरे और मीडिया प्रबंधन पर केंद्रित रह गई है?
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क्या स्थानीय जनप्रतिनिधियों को योजनाओं की जवाबदेही दी गई या सिर्फ़ प्रचार तक सीमित रखा गया?
क्या 2027 में सत्ता परिवर्तन संभव है?
यह सवाल अब काल्पनिक नहीं, बल्कि नींव रख चुका है।
यदि कांग्रेस, तिलकराज बेहड़, जैसे ज़मीनी नेता और युवा चेहरों को संगठित रखती है, तो 2027 में भाजपा को सत्ता में वापसी के लिए रिवर्स स्विंग चाहिए होगा।
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी पर भी दबाव
हालाँकि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी सबसे लोकप्रिय चेहरा हैं, लेकिन ग्राम स्तर पर नतीजों ने दिखा दिया है कि जनता अब प्रदर्शन भी माँग रही है, केवल प्रचार नहीं।
यदि जिला पंचायत अध्यक्ष पदों की संख्या में कांग्रेस भारी पड़ती है, तो भाजपा सरकार की स्थिरता और साख दोनों पर सवाल उठ सकते हैं।
क्या भाजपा को पंचायत चुनाव हल्के में नहीं लेना चाहिए था?
केंद्र से लेकर राज्य स्तर तक भाजपा ने पंचायत चुनाव को स्थानीय मामला मानकर छोड़ दिया।
वास्तव में, ये चुनाव 2027 की राजनीति का डेमो वोटिंग था।
गांवों ने खोल दी चेतावनी की घंटी
पंचायत चुनाव 2025 का संदेश स्पष्ट है—
“गांव अब चुप नहीं हैं, गांव अब चुनते हैं।”
गांव की सत्ता में कांग्रेस की वापसी महज़ जिला पंचायत की जीत नहीं, यह आगामी विधानसभा के लिए जमीन की लड़ाई का पूर्वाभास है।
यदि भाजपा इसे गंभीरता से नहीं लेती, तो 2027 में उत्तराखंड का सत्ता समीकरण फिर बदल सकता है।
संपादकीय: देहरादून पंचायत चुनाव में कांग्रेस की वापसी की दस्तक,उत्तराखंड की राजनीति में जिस प्रकार विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने हालिया वर्षों में निर्विवाद रूप से वर्चस्व कायम किया था, वह अब धीरे-धीरे पंचायत स्तर पर चुनौतियों से घिरता दिख रहा है। देहरादून जिला पंचायत चुनाव परिणाम इसका प्रमाण हैं, जहां कांग्रेस ने जौनसार-बावर जैसे भाजपा के मजबूत गढ़ में अप्रत्याशित प्रदर्शन करते हुए 11 में से 7 सीटों पर कब्जा जमाया है।
यह नतीजे केवल स्थानीय जीत भर नहीं हैं, बल्कि कांग्रेस के लिए मनोवैज्ञानिक बूस्टर हैं। वर्ष 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 19 सीटें मिली थीं और सभी पांच लोकसभा सीटें भाजपा की झोली में गई थीं। ऐसे में यह पंचायत चुनाव कांग्रेस कार्यकर्ताओं के लिए नई ऊर्जा का संचार करते हैं। खासकर चकराता से विधायक प्रीतम सिंह के पुत्र अभिषेक सिंह की बृनाड बास्तील सीट पर विजय न केवल उनके राजनीतिक भविष्य की ओर संकेत करती है, बल्कि यह कांग्रेस की सांगठनिक पुनर्रचना की ओर भी इशारा है।
दूसरी ओर, भाजपा ने भले ही मधु चौहान जैसी मजबूत नेता को मैदान में उतारकर बढ़त बनाई हो, लेकिन उसे यह समझना होगा कि ग्राम्य भारत की नब्ज बदल रही है। गांवों की जनता अब विकास और स्थायी नेतृत्व चाहती है, न कि केवल राजनीतिक चेहरों का प्रदर्शन।
यह जीतें कांग्रेस के लिए भले ही आंशिक हों, पर यह संकेत अवश्य देती हैं कि यदि रणनीति मजबूत हो, जमीनी कार्यकर्ता सक्रिय हों और युवा नेतृत्व को प्रोत्साहन मिले, तो वह फिर से भाजपा के एकाधिकार को चुनौती देने की स्थिति में आ सकती है। भाजपा को भी अब आत्ममंथन करना चाहिए कि पंचायत स्तर पर लगातार हो रहे सेंध की जड़ें कहां हैं।
जनता ने स्पष्ट कर दिया है—लोकतंत्र में जीत स्थायी नहीं होती, मेहनत और संवाद से ही भरोसा फिर से अर्जित किया जा सकता है। पंचायत चुनावों के ये नतीजे उसी बदलाव की दस्तक हैं, जिसे नजरअंदाज करना किसी भी पार्टी के लिए राजनीतिक भूल होगी।

