जब टेंपो बना नरक का वाहन: देवभूमि की धरती पर इंसानियत की बलि!अवतार सिंह बिष्ट, संपादक, उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, संवाददाता, रुद्रपुर

Spread the love

अप्रैल माह 2025 की तड़के देवभूमि उत्तराखंड की एक सड़क पर जो घटा, उसने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया कि क्या यह वही उत्तराखंड है, जिसके लिए हमने आंदोलन किए? क्या यह वही प्रदेश है, जहाँ महिलाएं मातृशक्ति के रूप में पूजनीय मानी जाती हैं? और क्या यह वही भूमि है जहाँ “अतिथि देवो भव:” की भावना से हर आगंतुक का स्वागत होता है?

गदरपुर के पास नेशनल हाईवे पर जो कुछ हुआ, वह मात्र एक बलात्कार नहीं था—यह हमारी समूची सामाजिक चेतना, हमारी कानून व्यवस्था और हमारी नैतिकता का सामूहिक बलात्कार था। एक 50 वर्षीय महिला, जो दिल्ली से अपने मायके से लौटी थी, काशीपुर स्टेशन से घर लौटते वक्त टेंपो में सवार हुई। लेकिन इस टेंपो ने उसे घर नहीं पहुँचाया, बल्कि नरक के द्वार तक ले गया।

टेंपो नहीं, वह तो चलती जेल थी…टेंपो में चालक समेत आठ लोग सवार थे। जैसे-जैसे लोग उतरते गए, महिला अकेली होती गई। आखिर में टेंपो में सिर्फ वह, चालक और दो युवक बचे। और फिर शुरू हुआ वह अध्याय, जिसे पढ़ते हुए दिल कांप जाता है। टेंपो के पर्दे गिरा दिए गए, तेज आवाज में गाने चलाए गए, महिला की चीखें दबा दी गईं, और दो हैवानों ने बारी-बारी से उसके शरीर को कुचला, उसकी अस्मिता को रौंदा और फिर उसे सड़क किनारे फेंककर फरार हो गए।यह न केवल दुष्कर्म था, बल्कि क्रूरता की सारी हदें पार करने वाली लूट और अमानवीयता थी। उसके 10 हजार रुपये और चांदी की पायल भी छीन ली गई।

क्या यही उत्तराखंड का मैदानी क्षेत्र है?उत्तराखंड राज्य आंदोलन का सपना यह नहीं था कि पहाड़ी क्षेत्रों की शांति और संस्कृति का अनादर हो। लेकिन राज्य बनने के बाद लगातार मैदानी क्षेत्रों में जिस तरह से बाहरी अपराधियों की घुसपैठ हुई है, उसने पूरे सामाजिक ताने-बाने को हिला कर रख दिया है।उधम सिंह नगर, जो राज्य के प्रमुख जिलों में से एक है, जहाँ से देहरादून मात्र कुछ घंटों की दूरी पर है, वहाँ ऐसी घटनाएं होना बेहद शर्मनाक और निंदनीय है।

पुलिस की तत्परता काबिल-ए-तारीफ, लेकिन क्या सिर्फ गिरफ्तारी काफी है?गदरपुर पुलिस ने त्वरित कार्यवाही करते हुए टेंपो चालक गौरव रावत, अमित गुप्ता और विक्की को गिरफ्तार कर लिया। सीसीटीवी फुटेज से पहचान कर उन्हें दबोचा गया और न्यायालय में पेश कर जेल भेज दिया गया। यह पुलिस की सजगता और तकनीकी सहयोग का प्रमाण है, लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ गिरफ्तारी से ऐसे दानवों की मानसिकता बदलेगी?

क्या कानून के दायरे में रहकर ऐसे अपराधियों को सुधारना संभव है? क्या इस बार भी वही पुरानी प्रक्रिया चलेगी—मुकदमा, जमानत, सालों तक अदालतों की तारीखें, और फिर एक दिन न्याय का गला घोंट देने वाली चुप्पी?

अब वक्त है कठोर निर्णयों का:

  1. ऐसे अपराधियों का एनकाउंटर किया जाए।जब कोई जानवर पागल हो जाता है, तो उसे गोली मारनी पड़ती है ताकि समाज सुरक्षित रह सके। ठीक उसी तरह, ऐसे अपराधियों का एनकाउंटर कर एक कड़ा संदेश देना चाहिए।
  2. बुलडोजर कार्रवाई होनी चाहिए।
    इनके घरों पर बुलडोजर चलाकर यह संदेश दिया जाए कि जो समाज में दरिंदगी फैलाएगा, उसका अस्तित्व मिटा दिया जाएगा।
  3. फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई हो।
    अधिकतम छह महीने में इन मामलों में सजा सुनाई जानी चाहिए। और वह सजा ऐसी हो कि अगली पीढ़ी अपराध सोचने से पहले कांप उठे।

समाज का दायित्व क्या है?यह सिर्फ पुलिस या सरकार की जिम्मेदारी नहीं है। जब तक हम अपने बच्चों को संस्कार नहीं देंगे, जब तक समाज ऐसे लोगों से दूरी नहीं बनाएगा, और जब तक हर घर में यह चर्चा नहीं होगी कि महिलाओं का सम्मान सर्वोपरि है—तब तक यह सिलसिला थमेगा नहीं।

आज जरूरत है सामूहिक चेतना की। मोहल्ले, ग्राम सभाएं, पंचायतें, धार्मिक संस्थाएं—सबको मिलकर एक सांस्कृतिक और नैतिक जागरण अभियान चलाना चाहिए।

क्या हम भरोसा कर सकते हैं किसी पर?यह घटना इस बात का इशारा है कि आज के दौर में किसी पर भी आंख मूंदकर भरोसा नहीं किया जा सकता। एक महिला जब सफर पर निकलती है तो क्या उसे हर पुरुष में संभावित अपराधी देखना पड़ेगा? क्या यह वह समाज है जिसका हमने सपना देखा था?

नारी सम्मान की रक्षा में जुटेगा उत्तराखंड,यह संपादकीय केवल एक घटना का वर्णन नहीं है, यह एक युद्धघोष है। एक शंखनाद है उस सामाजिक युद्ध का जो हमें लड़ना है—उन मानसिक विकृतियों के विरुद्ध, उन संवेदनहीनताओं के विरुद्ध, और उस प्रशासनिक सुस्ती के विरुद्ध जो ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति का कारण बनती है।

आज जरूरत है उत्तराखंड में “नारी सुरक्षा आयोग” के गठन की, जो केवल कागजों तक सीमित न हो, बल्कि हर जिले में सक्रिय रूप से महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करे। जरूरत है हाईवे पर महिला हेल्प डेस्क, टेंपो/ऑटो में GPS अनिवार्य करने की, और रात में अकेली महिला यात्रियों के लिए सुरक्षित ट्रांसपोर्ट की।

उसकी पीड़ा केवल उसकी नहीं है—वह हर उस महिला की पीड़ा है, जो घर से निकलती है और सुरक्षित लौट आने की प्रार्थना करती है। वह हर मां की पीड़ा है जो अपनी बेटी को सफर पर भेजती है। और वह हर उस व्यक्ति की पीड़ा है, जिसकी संवेदनाएं अभी मरी नहीं हैं।

इस लेख के माध्यम से शैल ग्लोबल टाइम्स और हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स पूरे समाज, सरकार और प्रशासन से अपील करता है—अब और नहीं। अब ऐसी घटनाओं पर चुप्पी नहीं, निर्णायक कदम चाहिए।उत्तराखंड को देवभूमि बनाए रखने के लिए, पहले उसे राक्षसों से मुक्त कराना होगा।और यह जिम्मेदारी हम सबकी है।



Spread the love