
आप योजना बना लीजिए, आप ही हेलीकॉप्टर चला लीजिए जिसमें कोई न मरे!”


ये शब्द उत्तराखंड के प्रभारी और बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव दुष्यंत कुमार गौतम के हैं—वो भी ऐसे समय पर जब केदारनाथ में सात लोगों की दर्दनाक मौत ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है। लेकिन दुख की बात यह नहीं कि हादसा हुआ, बल्कि इससे भी बड़ा दुख है उन लोगों की शोक संवेदना में आई यह शून्यता, जिसे हमारे सत्तासीन नेता ‘व्यंग्य’ और ‘अहंकार’ के तकिए पर टिका रहे हैं।
जवाबदेही से भागती राजनीति का ‘एयरलिफ्ट’ संस्करण
राजनीति अब संवेदनाओं का क्षेत्र नहीं रही। यह ‘प्रबंधन’ का बिजनेस बन चुकी है। जब हेलीकॉप्टर हादसे पर पत्रकार ने दुष्यंत गौतम से सवाल किया कि आखिर बार-बार हो रहे हादसों के लिए जिम्मेदार कौन है, तो उनका उत्तर था—“आप ही चला लो हेलीकॉप्टर!”
क्या यही है जवाबदेही? क्या यही है वह लोकतांत्रिक संवाद जिससे जनता की जान की कीमत आँकी जाती है?
उत्तराखंड जैसे संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में जब धार्मिक पर्यटन और चारधाम यात्रा लाखों की संख्या में श्रद्धालुओं को आकर्षित करती है, तो राज्य सरकार और केंद्र के नुमाइंदों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। लेकिन जब नेता खुद को “जवाब देने से ऊपर” समझने लगें, तो समझिए कि लोकतंत्र के हेलीकॉप्टर का पंखा अब जवाबदेही के इंजन से नहीं, घमंड के ईंधन से चलने लगा है।
‘आप ही योजना बना लीजिए’ – तो फिर सत्ता किसलिए?
दुष्यंत कुमार का बयान केवल एक राजनीतिक चूक नहीं, बल्कि प्रशासनिक और मानवीय दिवालियापन का प्रतीक है।
जब कोई नेता आपसे कहे कि “आप ही योजना बना लीजिए”, तो उसे याद दिलाना चाहिए कि जनता ने योजना बनाने के लिए ही वोट देकर आपको चुना था।
आपने सत्ता इसलिए पाई थी कि आप जान बचा सकें, न कि हादसों पर तंज कस सकें।
दुखद यह है कि हर हादसे के बाद उत्तराखंड सरकार ‘बैठक’ करती है, ‘कमेटी’ बनाती है, और ‘गाइडलाइन सख्त करने’ का बयान देती है।
क्या यह सब काम पहले नहीं हो सकते थे?क्या जब 17 मई को केदारनाथ रूट पर एयर एंबुलेंस दुर्घटनाग्रस्त हुई थी, तब चेतावनी नहीं मिली थी?
सीएम धामी की सक्रियता अच्छी है, लेकिन क्या यही काफी है?
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने हादसे के तुरंत बाद उच्चस्तरीय जांच के आदेश दिए, और हेलीकॉप्टर सेवाओं को लेकर नई एसओपी बनाने की बात कही। यह स्वागतयोग्य कदम है।
लेकिन सवाल ये है:क्या पहले की सभी रिपोर्टों को सरकार ने गंभीरता से लिया?
- क्या डीजीसीए की गाइडलाइनों का वास्तव में पालन हो रहा था?
- क्यों हर सीजन में एक नया हादसा हमें याद दिलाता है कि हमारी व्यवस्थाएं कागज़ी हैं?
केवल पायलट पर दोष मढ़कर पल्ला झाड़ना अब नहीं चलेगा?हर हादसे के बाद या तो ‘पायलट की गलती’ या ‘मौसम की मार’ का बहाना बनाया जाता है। लेकिन इन दो कारणों के बीच सरकारी निगरानी तंत्र का जिक्र कोई नहीं करता।
जब यात्रियों की जान एक प्राइवेट ऑपरेटर के भरोसे छोड़ दी जाए, बिना यह जांचे कि उसके पास पर्याप्त हिमालयी उड़ान अनुभव है या नहीं, तो हादसा केवल एक दुर्घटना नहीं—बल्कि एक संवेदनहीन और लापरवाह सिस्टम की पहचान बन जाता है।
सोशल मीडिया पर जनता का गुस्सा वाजिब है?दुष्यंत गौतम के बयान के बाद सोशल मीडिया पर जनता ने जो आक्रोश व्यक्त किया, वह तात्कालिक नहीं, बल्कि सालों की निराशा का नतीजा है।
कई यूजर्स ने लिखा:
- “जब नेता संवेदना खो दें, तब सत्ता केवल सिंहासन बन जाती है।”
- “हमें जवाब चाहिए, व्यंग्य नहीं।”
यह गुस्सा अब केवल भावनात्मक नहीं, राजनीतिक चेतना का संकेत है। जनता को अब ‘ड्रामा’ नहीं, ईमानदार प्रशासन चाहिए।
अंत में एक सवाल: अगर आप नहीं चला सकते सरकार, तो फिर छोड़ क्यों नहीं देते ‘कॉकपिट’?
दुष्यंत जी, अगर आप वाकई यह मानते हैं कि “हादसे रोके नहीं जा सकते”, तो कम से कम इतना तो मानिए कि उन्हें दोहरे बयान और अहंकारी व्यवहार से और अधिक दर्दनाक न बनाएं।
जनता हेलीकॉप्टर उड़ाना नहीं चाहती, लेकिन वह चाहती है कि जिन पर उसने भरोसा किया है, वे कम से कम अपनी जिम्मेदारी निभाएं।
क्योंकि जो लोग दुर्घटनाओं में मरते हैं, वे केवल संख्या नहीं होते—वे जीते-जागते सपने होते हैं, जिन्हें सत्ता की असंवेदनशीलता ने बीच आसमान में गिरा दिया।
(यह लेख उत्तराखंड की त्रासदी में संवेदना, जवाबदेही और राजनीतिक गंभीरता की मांग करता है। यदि सत्ता के उच्च पदों पर बैठे नेता इतने गैरजिम्मेदार बयान देंगे, तो लोकतंत्र का हेलीकॉप्टर बहुत ऊंचा नहीं उड़ पाएगा।)
