हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स पंतनगर किसान मेले में। किसान मेले में वैसे तो काफी स्टाल लगे हुए थे ।जिसमें देश-विदेश की नामी , गरामी कंपनियां ,कृषि यंत्र, अन्य खाद्य पदार्थों की भरमार थी ।हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स पूरे भ्रमण के उपरांत उत्तराखंड की लोक संस्कृति के स्टॉल पर ध्यान केंद्रित किया ।और हमें मिली नैनीताल की पूजा।। क्या कुछ कहा नैनीताल की पूजा ने आप भी सुनिए । हमारी लोक संस्कृति को आगे बढ़ाने में उत्तराखंड की यही युवापीढ़ी उत्तराखंड की संस्कृति को प्रचार प्रसार के माध्यम से आगे बढ़ाने का कार्य कर रही है। हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स की टीम ने पूजा को , ढेर सारा आशीर्वाद व साधुवाद प्रेषित किया। आओ हम सब जानते हैं,उत्तराखंड की लोक संस्कृति के बारे में।।

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Puja kotliya
Talla gethiya ( nainital) kvk jeolikote   नैनीताल
ऐंपण (अल्पना)ऐपण कला के द्वारा लक्ष्मी चौकी, गणेश चौकी और कई अन्य भगवानों की चौकियां बनाई जाती है. कुमाऊं की ऐपण कला भक्ति की कला है. और भक्ति का साधन भी है. यही वजह है कि उत्तराखंड के लोकपर्व हो या फिर कोई उत्सव इन सभी में ऐपण कला का एक विशेष स्थान है और ऐपण कला को शुभ भी माना जाता है.
Puja kotliya
Talla gethiya ( nainital) kvk jeolikote । ऐपन को मंदिर और घर की देहली से आगे बढ़ के अब दीए मोमबत्ती साड़ी चुनरी चौकी फ्रेम घड़ी आदि मैं भी बनाया जाता है जिससे ये हमारे उत्तराखंड की संस्कृति को देश विदेश मैं पहुंचा सके.
Hindustaan Global Times/प्रिंट मीडिया :शैल ग्लोबल टाइम्स /अवतार सिंह बिष्ट,रूद्रपुर उत्तराखंड

[1]उत्तराखण्ड की संस्कृति इस प्रदेश के मौसम और जलवायु के अनुरूप ही है। उत्तराखण्ड एक पहाड़ी प्रदेश है और इसलिए यहाँ ठण्ड बहुत होती है। इसी ठण्डी जलवायु के आसपास ही उत्तराखण्ड की संस्कृति के सभी पहलू जैसे रहन-सहन, वेशभूषा, लोक कलाएँ इत्यादि घूमते हैं।

रहन-सहन
त्यौहार
खानपान
वेशभूषा
लोक कलाएँ
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लोक कला की दृष्टि से उत्तराखण्ड बहुत समृद्ध है। घर की सजावट में ही लोक कला सबसे पहले देखने को मिलती है। दशहरा, दीपावली, नामकरण, जनेऊ आदि शुभ अवसरों पर महिलाएँ घर में ऐंपण (अल्पना) बनाती है। इसके लिए घर, ऑंगन या सीढ़ियों को गेरू से लीपा जाता है। चावल को भिगोकर उसे पीसा जाता है। उसके लेप से आकर्षक चित्र बनाए जाते हैं। विभिन्न अवसरों पर नामकरण चौकी, सूर्य चौकी, स्नान चौकी, जन्मदिन चौकी, यज्ञोपवीत चौकी, विवाह चौकी, धूमिलअर्ध्य चौकी, वर चौकी, आचार्य चौकी, अष्टदल कमल, स्वस्तिक पीठ, विष्णु पीठ, शिव पीठ, शिव शक्ति पीठ, सरस्वती पीठ आदि परम्परागत गाँव की महिलाएँ स्वयं बनाती है। इनका कहीं प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। हरेले आदि पर्वों पर मिट्टी के डिकारे बनाए जाते हैं। ये डिकारे भगवान के प्रतीक माने जाते हैं। इनकी पूजा की जाती है। कुछ लोग मिट्टी की अच्छी-अच्छी मूर्तियाँ (डिकारे) बना लेते हैं। यहाँ के घरों को बनाते समय भी लोक कला प्रदर्षित होती है। पुराने समय के घरों के दरवाजों व खिड़कियों को लकड़ी की सजावट के साथ बनाया जाता रहा है। दरवाजों के चौखट पर देवी-देवताओं, हाथी, शेर, मोर आदि के चित्र नक्काशी करके बनाए जाते हैं। पुराने समय के बने घरों की छत पर चिड़ियों के घोंसलें बनाने के लिए भी स्थान छोड़ा जाता था। नक्काशी व चित्रकारी पारम्परिक रूप से आज भी होती है। इसमें समय काफी लगता है। वैश्वीकरण के दौर में आधुनिकता ने पुरानी कला को अलविदा कहना प्रारम्भ कर दिया। अल्मोड़ा सहित कई स्थानों में आज भी काष्ठ कला देखने को मिलती है। उत्तराखण्ड के प्राचीन मन्दिरों, नौलों में पत्थरों को तराश कर (काटकर) विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र बनाए गए है। प्राचीन गुफाओं तथा उड्यारों में भी शैल चित्र देखने को मिलते हैं।

उत्तराखण्ड की लोक धुनें भी अन्य प्रदेशों से भिन्न है। यहाँ के बाद्य यन्त्रों में नगाड़ा, ढोल, दमुआ, रणसिंग, भेरी, हुड़का, बीन, डौंरा, कुरूली, अलगाजा प्रमुख है। यहाँ के लोक गीतों में न्योली, जोड़, झोड़ा, छपेली, बैर व फाग प्रमुख होते हैं। इन गीतों की रचना आम जनता द्वारा की जाती है। इसलिए इनका कोई एक लेखक नहीं होता है। यहां प्रचलित लोक कथाएँ भी स्थानीय परिवेश पर आधारित है। लोक कथाओं में लोक विश्वासों का चित्रण, लोक जीवन के दुःख दर्द का समावेश होता है। भारतीय साहित्य में लोक साहित्य सर्वमान्य है। लोक साहित्य मौखिक साहित्य होता है। इस प्रकार का मौखिक साहित्य उत्तराखण्ड में लोक गाथा के रूप में काफी है। प्राचीन समय में मनोरंजन के साधन नहीं थे। लाकगायक रात भर ग्रामवासियों को लोक गाथाएं सुनाते थे। इसमें मालसाई, रमैल, जागर आदि प्रचलित है। अभी गांवों में रात्रि में लगने वाले जागर में लोक गाथाएं सुनने को मिलती है। यहां के लोक साहित्य में लोकोक्तियां, मुहावरे तथा पहेलियां (आंण) आज भी प्रचलन में है। उत्तराखण्ड का छोलिया नृत्य काफी प्रसिद्ध है। इस नृत्य में नृतक लबी-लम्बी तलवारें व गेंडे की खाल से बनी ढाल लिए युद्ध करते हैं। यह युद्ध नगाड़े की चोट व रणसिंह के साथ होता है। इससे लगता है यह राजाओं के ऐतिहासिक युद्ध का प्रतीक है। कुछ क्षेत्रों में छोलिया नृत्य ढोल के साथ श्रृंगारिक रूप से होता है। छोलिया नृत्य में पुरूष भागीदारी होती है। कुमाऊँ तथा गढ़वाल में झुमैला तथा झोड़ा नृत्य होता है। झौड़ा नृत्य में महिलाएँ व पुरूष बहुत बड़े समूह में गोल घेरे में हाथ पकड़कर गाते हुए नृत्य करते हैं। विभिन्न अंचलों में झोड़ें में लय व ताल में अन्तर देखने को मिलता है। नृत्यों में सर्प नृत्य, पाण्डव नृत्य, जौनसारी, चांचरी भी प्रमुख है।

Hindustaan Global Times/प्रिंट मीडिया :शैल ग्लोबल टाइम्स /अवतार सिंह बिष्ट,रूद्रपुर उत्तराखंड

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