वर्तमान लखनपुर पांडव लोक अज्ञातवास के दौरान यहां पर रहे इस दौरान रानी द्रोपती राजा बिराठ की महारानी की सेवा मे तैनात थी,जहा बिराठ केसेनापति व महारानी के भाई महाबली कीचक ने रानी द्रोपती से दुर्व्यवहार किया था,जिस कारन् महबली भीम ने किचक का बध कर दिया था,पूरे बैराठ मे बडा आश्चर्य हुआ की महाबली कीचक को कोंन मार् सकता है, इस बात् का पता हि नही लग सका की कीचक को किसने मारा,जिस स्थान पर मारा राम गंगा नदी के किनारे कीचक घाट है और वहां पर के खेतों का नामकीचकसेरा,हैसेरा मैदान खेत को कहते हैंमेरे गांव का मुकुट यानी सिर्फ असुरकोट मैं कीचक का महल था मेरे घर से दूरी 4 किलोमीटर हैंपांडव कल में स्थान का नाम विराट नगर था फिर बाद में ब्रह्मपुरी कहलाया और जब कस्तूरी लोग स्वतंत्र प्रशासन करने लगे इसका नाम लखनपुर पड़ा जो राम गंगा नदी के किनारे बसा है, विराट नगरी के दक्षिणी छोर के तरफ राम पादुका मंदिर है मंदिर लगभग 12वीं शताब्दी के हैं वहां पर मंदिर में शिव की मूर्ति तथा रामचंद्र जी के चरण विराजमान है कहते हैं बद्रीनाथ और देवप्रयाग जाते समय वे इसी मार्ग से गए मैदानी क्षेत्र से जोशीमठ बद्रीनाथ देवप्रयाग केदारनाथ जाने का मार्ग पहले से यही था हल्द्वानी और रामनगर मोटर मार्ग बद्रीनाथ को इसी स्थान से गुजरते हैंआने वाले यात्रियों का मार्ग भीयहां से चारों दिशाओं को मार्ग सुलभ है यह Hindustan Global Times: विराटनगर वर्तमान लखनपुर पांडव लोक अज्ञातवास के दौरान यहां पर रहे इस दौरान रानी द्रोपती राजा बिराठ की महारानी की सेवा मे तैनात थी,जहा बिराठ के सेनापति व महारानी के भाई महाबली कीचक ने रानी द्रोपती से दुर्व्यवहार किया था,जिस कारन् महबली भीम ने किचक का बध कर दिया था,पूरे बैराठ मे बडा आश्चर्य हुआ की महाबली कीचक को कोंन मार् सकता है, इस बात् का पता ही नही लग सका की कीचक को किसने मारा,जिस स्थान पर मारा राम गंगा नदी के किनारे कीचक घाट है और वहां पर के खेतों का नामकीचकसेरा,है सेरा मैदान खेत को कहते हैं।मेरे गांव का मुकुट यानी सिर्फ असुरकोट मैं कीचक का महल था मेरे घर से दूरी 4 किलोमीटर हैं।पांडव कल में स्थान का नाम विराट नगर था। फिर बाद में ब्रह्मपुरी कहलाया और जब कस्तूरी लोग स्वतंत्र प्रशासन करने लगे इसका नाम लखनपुर पड़ा जो राम गंगा नदी के किनारे बसा है, विराट नगरी के दक्षिणी छोर के तरफ राम पादुका मंदिर है ।मंदिर लगभग 12वीं शताब्दी के हैं ।वहां पर मंदिर में शिव की मूर्ति तथा रामचंद्र जी के चरण विराजमान है ।कहते हैं बद्रीनाथ और देवप्रयाग जाते समय वे इसी मार्ग से गए मैदानी क्षेत्र से जोशीमठ बद्रीनाथ देवप्रयाग केदारनाथ जाने का मार्ग पहले से यही था हल्द्वानी और रामनगर मोटर मार्ग बद्रीनाथ को इसी स्थान से गुजरते हैंआने वाले यात्रियों का मार्ग भीयहां से चारों दिशाओं को मार्ग सुलभ है यह क्षेत्र वर्तमान चौखुटिया शहर के अंदर आता है जिसका एक नाम गनाई भी है जो गणेश मंदिर के अनुसार पड़ा इसके बारे में मैंने पहले ग्रुप में एक लिख डाला था गणेश मंदिर संबंधी इतिहास!

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हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/ प्रिंट मीडिया: शैल ग्लोबल टाइम्स/ अवतार सिंह बिष्ट रूद्रपुर ,(उत्तराखंड) अध्यक्ष: उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी परिषद

विराटनगर वर्तमान लखनपुर पांडव लोक अज्ञातवास के दौरान यहां पर रहे इस दौरान रानी द्रोपती राजा बिराठ की महारानी की सेवा मे तैनात थी,जहा बिराठ केसेनापति व महारानी के भाई महाबली कीचक ने रानी द्रोपती से दुर्व्यवहार किया था,जिस कारन् महबली भीम ने किचक का बध कर दिया था,पूरे बैराठ मे बडा आश्चर्य हुआ की महाबली कीचक को कोंन मार् सकता है, इस बात् का पता हि नही लग सका की कीचक को किसने मारा,
जिस स्थान पर मारा राम गंगा नदी के किनारे कीचक घाट है और वहां पर के खेतों का नाम
कीचकसेरा,है
सेरा मैदान खेत को कहते हैं
मेरे गांव का मुकुट यानी सिर्फ असुरकोट मैं कीचक का महल था मेरे घर से दूरी 4 किलोमीटर हैं
पांडव कल में स्थान का नाम विराट नगर था फिर बाद में ब्रह्मपुरी कहलाया और जब कस्तूरी लोग स्वतंत्र प्रशासन करने लगे इसका नाम लखनपुर पड़ा जो राम गंगा नदी के किनारे बसा है, विराट नगरी के दक्षिणी छोर के तरफ राम पादुका मंदिर है मंदिर लगभग 12वीं शताब्दी के हैं वहां पर मंदिर में शिव की मूर्ति तथा रामचंद्र जी के चरण विराजमान है कहते हैं बद्रीनाथ और देवप्रयाग जाते समय वे इसी मार्ग से गए मैदानी क्षेत्र से जोशीमठ बद्रीनाथ देवप्रयाग केदारनाथ जाने का मार्ग पहले से यही था हल्द्वानी और रामनगर मोटर मार्ग बद्रीनाथ को इसी स्थान से गुजरते हैं
आने वाले यात्रियों का मार्ग भी
यहां से चारों दिशाओं को मार्ग सुलभ है यह[

हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/ प्रिंट मीडिया: शैल ग्लोबल टाइम्स/ अवतार सिंह बिष्ट रूद्रपुर ,(उत्तराखंड) अध्यक्ष: उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी परिषद

विराटनगर वर्तमान लखनपुर पांडव लोक अज्ञातवास के दौरान यहां पर रहे इस दौरान रानी द्रोपती राजा बिराठ की महारानी की सेवा मे तैनात थी,जहा बिराठ केसेनापति व महारानी के भाई महाबली कीचक ने रानी द्रोपती से दुर्व्यवहार किया था,जिस कारन् महबली भीम ने किचक का बध कर दिया था,पूरे बैराठ मे बडा आश्चर्य हुआ की महाबली कीचक को कोंन मार् सकता है, इस बात् का पता हि नही लग सका की कीचक को किसने मारा,
जिस स्थान पर मारा राम गंगा नदी के किनारे कीचक घाट है और वहां पर के खेतों का नाम
कीचकसेरा,है
सेरा मैदान खेत को कहते हैं
मेरे गांव का मुकुट यानी सिर्फ असुरकोट मैं कीचक का महल था मेरे घर से दूरी 4 किलोमीटर हैं
पांडव कल में स्थान का नाम विराट नगर था फिर बाद में ब्रह्मपुरी कहलाया और जब कस्तूरी लोग स्वतंत्र प्रशासन करने लगे इसका नाम लखनपुर पड़ा जो राम गंगा नदी के किनारे बसा है, विराट नगरी के दक्षिणी छोर के तरफ राम पादुका मंदिर है मंदिर लगभग 12वीं शताब्दी के हैं वहां पर मंदिर में शिव की मूर्ति तथा रामचंद्र जी के चरण विराजमान है कहते हैं बद्रीनाथ और देवप्रयाग जाते समय वे इसी मार्ग से गए मैदानी क्षेत्र से जोशीमठ बद्रीनाथ देवप्रयाग केदारनाथ जाने का मार्ग पहले से यही था हल्द्वानी और रामनगर मोटर मार्ग बद्रीनाथ को इसी स्थान से गुजरते हैं
आने वाले यात्रियों का मार्ग भी
यहां से चारों दिशाओं को मार्ग सुलभ है यह क्षेत्र वर्तमान चौखुटिया शहर के अंदर आता है जिसका एक नाम गनाई भी है जो गणेश मंदिर के अनुसार पड़ा इसके बारे में मैंने पहले ग्रुप में एक लिख डाला था गणेश मंदिर संबंधी इतिहास

यहां से करण प्रयाग 89 किमी,रानीखेत 56 किमी,द्वराहाट 19 की,मी, गैरसैण 34 की,मी,मासी 11 किमी,बद्रिनाथ् धाम 216 किमी,,की दूरी पर स्तिथ है,यहां से इन सभी जगहों के लिए सरल व सुगम मार्ग सुलभ है, मेरे गांव की दूरी मोटर मार्ग से 14 किलोमीटर पैदल 5 किलोमीटर है
सन् 1960 रामनगर बदरीनाथ हाईवे बना जो इसी विराटनगर होते हुए जाता है जहां पर कीचक मारा वहां पर बहुत बड़ा नदी के अंदर एक तालाब है जिसको स्थानीय भाषा में तितिनियां रौ कहते हैं मोटर बना मार्ग बनाते समय एक बड़ा पत्थर मिला जिस पर लिखा था कीचक को किसने मारा फिर आगे लिखा था मैंने मारा मैंने मारा भीमशेन योर पत्थर का शिलालेख मोटर निर्माण मार्ग के भेंट चढ़ गया इसी प्रकार लखनपुर कोर्ट से सन 1960 में ही मोटर मार्ग मेरे गांव के तरफ हो गई पहाड़ी पर उसे स्थान पर असुरकोट जौरासी है और मोटर मार्ग में लखनपुर महल के खंडहर पत्थर के अवशेष मोटर मार्ग के भेंट चढ़ गए ठेकेदार ने उसके पत्थर चुराकर मोटर मार्ग के दीवाल बनाने में प्रयोग कर दिए लोगों में जागरूकता की कमी थी मोटर मार के पास से अभी भी एक गुफा नदी की ओर जाती हैं तथा एक पानी की बावड़ी वर्तमान में भी विद्यमान है जो उसे जमाने के हॉट बाजार के शीर्ष में है,

हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/ प्रिंट मीडिया: शैल ग्लोबल टाइम्स/ अवतार सिंह बिष्ट रूद्रपुर ,(उत्तराखंड) अध्यक्ष: उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी परिषद

यह गेवाड घाटी को रंगीली बैराठ घाटी भी कहा जाता है,इसका तहसील व ब्लॉक चखुटिया मे हे,गेवाद् के बीचो बिच रामगँगा नदी बहती है,यह बैराठ घाटी काफी समतल व विस्तृत है जिस कारण यह बहुत उपजाऊ घाटी है,हम कत्युरियो के लिए यह बहुत पवित्र तीर्थ स्थान की तरह है की तरह है, वर्तमान में यहां पर भारत सरकार ने जमीन को समतल देखते हुए एयर फोर्स के लिए एयरपोर्ट बनाने हेतु जमीन का अधिग्रहण कर लिया गया है जिसका विरोध स्थानी लोग कर रहे हैं यह क्षेत्र लगभग 20 किलोमीटर मैदान घटी है और बीच में नदी बहती है तथा घाटी के दोनों तरफ से सुंदर हरे भरे जंगल और गांव ह,
पाली पछम खली में को को राजा!
बुढा राजा सासन्दी को पाट
गोराराई को पाट, सांवलाराई को पाट
नीली चौरी, उझाना को पाट
मानचवाणी कौ घट लगयों
दौराहाट में दौरा मंडल चिणों
खिमसारी हाट में खेल लगयों
रणचुलिहाट में राज रमायो आसन्ती देव
आसन्ती को बासन्ती देव

अजोपिथा, गजोपिथा ,नरपिथा ,प्रथीरजन, प्रथ्वीपाल, सुर्य तपनी बालक राजा धाम देव जय हो

उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास में मध्य हिमालय क्षेत्र के तीन राज्यों स्रुघ्न, गोविषाण और ब्रह्मपुर का विशेष उल्लेख किया गया है। चीनी यात्री ह्वैनसांग के यात्रा विवरण में भी इन तीन राज्यों का उल्लेख किया गया है। चीनी यात्री के यात्रा विवरणानुसार वह स्रुघ्न से मतिपुर, मतिपुर से ब्रह्मपुर तथा ब्रह्मपुर से गोविषाण गया था। स्रुघ्न की पहचान अम्बाला, मतिपुर की हरिद्वार और गोविषाण की पहचान काशीपुर के रूप में हो चुकी है। लेकिन ब्रह्मपुर की पहचान करने में विद्वानों में मतभेद है। यद्यपि सातवीं शताब्दी के भूगोल को समझना और चीनी यात्री ह्वैनसांग के यात्रा विवरण का सटीक विश्लेषण करना कठिन कार्य है। यात्रा विवरण का विश्लेषण भी विद्वानों के तथ्यों में विविधता उत्पन्न करता है। अतः कतिपय इतिहासकारों ने ब्रह्मपुर की पहचान भिन्न-भिन्न स्थानों से की है।

1- ’’एटकिंसन, ओकले तथा राहुल के अनुसार- बाड़ाहाट (उत्तरकाशी)।’’

2- ’’कनिंघम और गुप्ते के अनुसार- लखनपुर वैराटपट्टन।’’

3- ’’सेंट मार्टिन और मुकन्दीलाल के अनुसार- श्रीनगर।’’

4- ’’फूरर के अनुसार- लालढांग के पास पाण्डुवालासोत।’’

5- अन्य- ’’बढ़ापुर, नजीबाबाद।’’

उपरोक्त सभी विद्वानों के मत ’ब्रह्मपुर’ नामक प्राचीन स्थल की पहचान के संबंध में अत्यधिक विरोधाभाषी है। ब्रह्मपुर जनपद के भौगोलिक सीमांकन के अनुसार बाड़ाहाट (उत्तरकाशी नगर) तो ब्रह्मपुर राज्य की अंतः सीमा में ही नहीं था। ह्वैनसांग के यात्रा विवरणानुसर यमुना नदी ‘सु्रघ्न’ जनपद के मध्य में और गंगा नदी पूर्ववर्ती सीमा थी। इस आधार पर विद्वानों ने भागीरथी से काली नदी मध्य पर्वतीय भू-भाग को ‘ब्रह्मपुर’ राज्य के रूप में चिह्नित किया। अतः एटकिंसन, ओकले और राहुल आदि के मत को विद्वानों द्वारा सीमांकित ब्रह्मपुर का भूगोल निरस्त कर देता है।

इसी प्रकार सेंट मार्टिन और मुकन्दीलाल का ब्रह्मपुर ’श्रीनगर’ ऐसा स्थान है, जो भौगोलिक दृष्टि से इस राज्य की परिधि पर स्थित था। इसलिए श्रीनगर राजधानी के लिए उपयुक्त स्थान प्रतीत नहीं होता है। अन्य मतों में एक बढ़ापुर, नजीबाबाद भी विद्वानों द्वारा सीमांकित ब्रह्मपुर के वाह्य क्षेत्र में स्थित है। ब्रह्मपुर की सीमा के भीतर लालढांग के पास पाण्डुवालासोत और लखनपुर (वैराटपट्टन) भी दो महत्वपूर्ण विकल्प हैं, जिनका विश्लेषण आवश्यक है।

चीनी यात्री के विवरणानुसार मतिपुर और स्थाण्वीश्वर की जलवायु समान थी और मतिपुर से गोविषाण की स्थिति दक्षिणपूर्व में लगभग 66 मील दूर थी। इस आधार पर गोविषाण (काशीपुर) और मतिपुर (हरिद्वार) की पहचान स्पष्ट होती है। ह्वैनसांग स्रुघ्न जनपद से 50 मील उत्तर में ब्रह्मपुर राज्य में गया था। अर्थात ब्रह्मपुर के दक्षिण में 50 मील दूर स्रुघ्न जनपद की सीमा थी, जहाँ से ह्वैनसांग ब्रह्मपुर को गये थे। पाण्डुवालासोत को ब्रह्मपुर मान लें तो, हरिद्वार से लालढांग लगभग पैदल मार्ग से मात्र 14 मील ही दूर पूर्व दिशा में स्थित है।

स्रुघ्न जनपद की सीमा से मात्र 14 मील दूरी पर एक शक्तिशाली राज्य ब्रह्मपुर की राजधानी होना संदेहास्पद प्रतीत होता है। जबकि चीनी यात्री ह्वैनसांग के विवरणाधार पर कनिंघम ने ब्रह्मपुर राज्य का घेरा लगभग 666 वर्ग मील निर्धारित किया। पाण्डुवालासोत नामक स्थान एक विशाल जनपद सु्रघ्न के सीमावर्ती क्षेत्र पर था, जो सुरक्षा के दृष्टिकोण से ब्रह्मपुर राज्य की राजधानी के लिए उचित स्थान नहीं हो सकता था। ब्रह्मपुर की पहचान का सर्वाधिक मान्य मत कनिंघम और गुप्ते का है, जिन्होंने पश्चिमी रामगंगा घाटी में स्थित लखनपुर-वैराटपट्टन को ‘ब्रह्मपुर’ कहा।

अलेक्जैंडर कनिंघम भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रथम महानिदेशक सन् 1861 से 1865 ई. तक रहे। इस दौरान उन्होंने तक्षशिला, नालन्दा जैसे प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों का अन्वेषण कार्य अपने निर्देशन में करवाया। उत्तराखण्ड में उन्होंने रामगंगा घाटी में स्थिल वैराटपट्टन के अन्वेषण का कार्य किया। ब्रिटिश शासन काल में यह अन्वेषण स्थल परगना पाली-पछाऊँ में का एक गांव था।

ब्रिटिश कालीन परगना पाली-पछाऊँ के प्राचीन इतिहास के संबंध में बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘गिंवाड़ पट्टी में रामगंगा किनारे एक पुराना नगर टूटा पड़ा है, यहाँ ईंटें भी मिलती हैं। इसका नाम विराटनगरी है। वहीं पर रामगंगा के किनारे कीचकघाट भी है। वहीं पर एक दुर्ग का नाम लखनपुर कोट है। इसको इस समय आसन-वासन-सिंहासन के नाम से पुकारा जाता है।’’ कनिंघम ने पाली-पछाऊँ परगने की पट्टी गिंवाड़ के दो निकटवर्ती स्थलों विराटनगरी और लखनपुर कोट को ‘लखनपुर वैराटपट्टन’ कहा। कुमाऊँ क्षेत्र में गाये जाने वाले एक कुमाउनी लोक-कथा गीत में बैराठ के राजा मालूशाही का उल्लेख भी आता है, जिसे कत्यूरी शासक कहा जाता है।

कत्यूरी शासक आसन्तिदेव और वासन्तिदेव के नाम से लखनपुर कोट को आसन-वासन भी कहा जाता है। ऐतिहासिक तथ्यानुसार आसन्तिदेव कत्यूर घाटी (गोमती घाटी, बागेश्वर) के प्रथम राजा थे, जो जोशीमठ से कत्यूर आये और कत्यूरी कहलाये। कत्यूरी वंशावली के अनुसार आसन्तिदेव के वंश मूल पुरुष सूर्यवंशी ‘शालिवाहन’ थे, जो अयोध्या से उत्तराखण्ड आये थे। कत्यूर घाटी पर अधिकार करने के पश्चात आसन्तिदेव ने अपने पुत्र वासन्तिदेव की सहायता के निकटवर्ती चौखुटिया और द्वाराहाट पर भी अधिकार कर लिया था। कत्यूरी स्थापत्य कला के भग्नावशेषों का एक नगर ‘द्वाराहाट’ भी है, जिसके उत्तर-पश्चिम में ‘कोटलार घाटी’ है, जो चौखुटिया नामक स्थान को द्वाराहाट से संबंध करती है। चौखुटिया में ही ‘कोटलार’ नदी और रामगंगा का संगम है।

वर्तमान में कोटलार घाटी से ही होकर राष्ट्रीय राजमार्ग 109, द्वाराहाट को चौखुटिया से संबद्ध करता है। चौखुटिया से एक सड़क मासी-भिकियासैंण-भतरौजखान होते हुए लखनपुर-रामनगर को जाती है। इस सड़क पर चौखुटिया के निकवर्ती स्थल गणाई, भाटकोट और भगोटी हैं। ‘‘गणाई से करीब दो मील दूरी पर लखनपुर या बैराट है, जो कुमाऊँ के प्राचीन राजाओं की राजधानी मानी जाती है।’’ जहाँ अब मां लख्नेश्वरी मंदिर स्थापित है। ‘‘इस लखनपुर के निकट कलिरौ-हाट नामक बाजार था। अब निशान भी बाकी न रहा, नाम बाकी है।’’

चौखुटिया-रामनगर सड़क पर भागोटी के निकट जहाँ लखनपुर नाम से लख्नेश्वरी मंदिर है, वहीं चौखुटिया के निकटवर्ती वैराठेश्वर महादेव को वैराटपट्टन कह सकते हैं। पश्चिमी रामगंगा के बायें तटवर्ती इन दोनों मंदिरों के मध्य लगभग 5 किलोमीटर की दूरी है। ब्रह्मपुर के स्थान पर लखनपुर और वैराटपट्टन नाम कैसे प्रचलन में आ गया ? कत्यूरी शासक आसन्तिदेव के वंशज कालान्तर में धीरे-धीरे अपने राज्य का विस्तार सम्पूर्ण कुमाऊँ में करने में सफल रहे। विस्तृत राज्य को सुरक्षित रखने हेतु इस सूर्यवंशी राजवंश ने राम के अनुज ‘लखन’ नाम से कुमाऊँ के भिन्न-भिन्न स्थानों पर ‘लखनपुर’ नामक उप राजधानियां स्थापित कीं। रामनगर का लखनपुर, चौखुटिया का लखनुपर, जागेश्वर क्षेत्र का लखनुपर, अस्कोट का लखनुपर और सीमान्त भोट क्षेत्र का लखनपुर इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। कत्यूरी राजा मालूशाही को बैराठ या वैराट का राजा कहा जाता है। इस प्रकार ब्रह्मपुर का नाम परिवर्तन कत्यूरी कालखण्ड में हुआ।

अलेक्जैंडर कनिंघम ने लखनपुर वैराटपट्टन की पहचान ब्रह्मपुर से की, जो सही तथ्य प्रतीत होता है। इसी लखनपुर वैराटपट्टन के पश्चिम में स्थित देघाट के निकट तालेश्वर गांव से ही सन् 1915 ई. में ब्रह्मपुर के महान राजवंश ‘पौरव’ वंश के दो शासकों का एक-एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ। इन ताम्रपत्रों में राज्य वर्ष तिथि अंकित है। अर्थात राजा के सिंहासन पर विराजमान होने के वर्ष से ताम्रपत्र निर्गत किये जाने वाले वर्ष की गणना। तालेश्वर ताम्रपत्रों में राज्य का नाम ‘पर्वताकार’ तथा राजधानी ब्रह्मपुर उत्कीर्ण है, जो सर्वश्रेष्ठ नगरी थी। चौखुटिया क्षेत्र के निकटवर्ती तालेश्वर गांव से प्राप्त ब्रह्मपुर नरेशों के ताम्रपत्र, कनिंघम (1814-1893) के अभ्युक्ति की पुष्टि करते हैं। अतः प्राचीन ब्रह्मपुर को वर्तमान चौखुटिया से संबंध कर सकते हैं।

डॉ. शिवप्रसाद डबराल ‘ह्वैनसांग’ के यात्रा विवरणानुसार तर्क प्रस्तुत करते हैं कि यात्री मतिपुर (हरिद्वार) से ब्रह्मपुर, ब्रह्मपुर से मतिपुर और मतिपुर से गोविषाण (काशीपुर) की यात्रा पर गया। अतः ब्रह्मपुर को लखनपुर वैराटपट्टन (चौखुटिया) या लखनपुर (रामनगर) माने तो यात्री इस स्थान से सीधे गोविषाण क्यों नहीं गया ? वापस हरिद्वार आकर गोविषाण की यात्रा को क्यों गया ? इस आधार पर डॉ. शिवप्रसाद डबराल ब्रह्मपुर के लखनपुर वैराटपट्टन के मत पर संदेह करते हैं।

हरिद्वार प्राचीन काल से प्रसिद्ध तीर्थ स्थल रहा था। संभवतः ह्वैनसांग के ब्रह्मपुर यात्रा के दौरान हरिद्वार में कोई महत्वपूर्ण उत्सव/पर्व हो, जिसके कारण ह्वैनसांग गोविषाण के स्थान पर पुनः वापस हरिद्वार गया और उसके पश्चात गोविषाण। संभवतः उस वर्ष हरिद्वार में कुम्भ पर्व आयोजित किया गया हो।

ब्रह्मपुर (पौरव वंश) के ताम्रपत्रों की प्राप्ति चौखुटिया के निकटवर्ती गांव तालेश्वर से और ह्वैनसांग के यात्रा विवरण तथा अलेक्जैंडर कनिंघम के मत के आधार पर कह सकते हैं कि प्राचीन ब्रह्मपुर राज्य ही आज का चौखुटिया है, जो पश्चिमी रामगंगा घाटी का प्रमुख कस्बा है। ‘चौखुटिया’ का शाब्दिक अर्थ ‘चार-खुट’, जहाँ कुमाउनी में ‘खुट’ का अर्थ ‘पद’ (पैर) होता है। चौखुटिया की भौगोलिक स्थिति देखें तो यह पर्वतीय स्थल चारों दिशाओं से नदी घाटियों से संबद्ध है।
तालेश्वर ताम्रपत्र और ब्रह्मपुर का इतिहाससातवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास को देखें तो, उत्तर भारत पर कैनन के शक्तिशाली राजा हर्ष का शासन था। वह उत्तर भारत का सर्वमान्य राजा था। मध्य हिमालय के ब्रह्मपुर राज्य में सातवीं शताब्दी के क्वार्टर से ही हर्ष का उत्तरदायित्व चुकाया गया था। इस तथ्य की पुष्टि हर्ष के साहित्यिक कवि बाणभट्ट करते हैं, जिन्होंने 'हर्षचरित' नामक काव्य संग्रह की रचना की थी। मध्य हिमालय के राज्यों पर हर्ष के नेतृत्व में कैनन का जो प्रभाव पड़ा, उसकी झलक लहरों तक दिखलाई रही। हर्ष के प्रसिद्ध कालों के प्रसिद्ध शासकों यशोवर्मन (आठवीं शताब्दी) और जयचंद गढ़वाल (बारहवीं शताब्दी) का भी प्रभाव मध्य हिमालय पर पड़ता है। इसी कारण से उत्तराखंड के विभिन्न इतिहासकार सातवीं से बारहवीं शताब्दी तक कुमाऊं के इतिहास को प्राचीन काल से देखते हैं। विशेषतः कुमाऊँ के 'चंद' राजवंश। सातवीं शताब्दी के आस-पास ब्रह्मपुर जिलाएक पर्वताकार राज्य था। इस जिले की उत्तरी सीमा पर महाहिमालय की मंजिल के लिए सुवर्णगोत्र नामक देश था। इस तथ्य की पुष्टि हर्षचरित्र नामक पुस्तक से होती है। हर्ष विजयों के संबंध में हर्षचरित में एक विशेष श्लेषयुक्त पद उल्लेखनीय है, जिसमें बाण का सबसे छोटा भाई श्यामल, हर्ष विषयक कुछ सहजता प्रदान करता है। इस पद में कुल नौ वाक्य हैं। नौ वाक्यों के श्लेषपद का आठवां वाक्य हिमालय से संबंधित है, जो इस प्रकार है- ''परमेश्वर ने हिमाचल प्रदेश के दुर्गम प्रदेश के शासक से प्राप्त किया।'' यहां पर केन के राजा हर्ष को भगवान ने कहा है। सातवीं शताब्दी में कैनाल राज्य के भूतपूर्व हिमाचल प्रदेश दुर्गम प्रदेश नेपाल से कश्मीर तक जाना था। मूलतः हर्षचरित के श्लेषयुक्त श्लेष वाक्य में आए प्रदेश को ठीक से देखने में भी समानता है-

1- बुलर और राधाकुमुद मुखर्जी का मत हिमाचल प्रदेश-नेपाल।

2- गौरी शंकर चटर्जी का मत- ब्रह्मपुर।

3- आर.एस.सी. त्रि का मत- पहाड़ी राजकुल।

4- लेवी का मत- तुर्क प्रदेश।

बुलर और राधाकुमुद मुकर्जी का मत कान की भौगोलिक सीमा के आधार पर होता है। जबकि आर. एस. त्रिपहाड़ी राजकुल अर्थात हिमाचल प्रदेश के भू-भाग को हिमाचल प्रदेश के दक्षिण में आकर्षित करते हैं। लेवी का मत तुर्क प्रदेश (कन्नौज राज्य से सदूर उत्तर-पश्चिमी प्रदेश) नहीं था, जो कि कनौज राज्य की सीमा से बहुत दूर था। प्राचीन सिद्धांतों पर ध्यान करें तो हिमालय के पार कैलास-मानसरोवर यात्रा प्राचीन काल से चली आ रही है। अर्थात् सुवर्णगोत्र देश और कैनेडियन राज्य के मध्य कैलास-मानसरोवर की धार्मिक यात्रा से एक संबंध स्थापित हुआ था। भोट व्यापार दूसरा कारण हो सकता है। गौरी शंकर चटर्जी का मत है कि ब्रह्मपुर उत्तर में सुवर्णगोत्र देश हिमाच्छादित विशाल पर्वतों में स्थित था, जहाँ अफ़सर का राज्य था। गौरी शंकर चटर्जी सुवर्णगोत्र देश (तिब्बत) के आधार पर हिमाच्छादित दुर्गम प्रदेश के दक्षिण में ब्रह्मपुर राज्य को प्रतिष्ठित करते हैं।

मध्य हिमालय के प्राचीन राज्य ‘ब्रह्मपुर’ के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तालेश्वर ताम्रपत्रों से प्राप्त होते हैं। तालेश्वर गांव से ये दोनों ताम्रपत्र बीसवीं शताब्दी के छठे दशक में प्राप्त हुए थे। ये दो ताम्रपत्र उत्तराखंड के इतिहास से एक और राजवंश ‘पौरव’ से जुड़े हुए हैं। इस राजवंश की राजधानी ‘ब्रह्मपुर’ थी और राज्य का नाम ‘पर्वताकर’ था। इस राजवंश के पांच शासकों के नाम प्रचलित हैं- विष्णुवर्म, वृषभवर्म, अग्निवर्म, द्युतिवर्म और विष्णुवर्म द्वितीय। इनमें से अंतिम दो पौरव शासकों के ताम्रपत्र तालेश्वर गांव, तहसील स्याल्दे, जनपद से प्राप्त हुए हैं। पौरव वंश के चौथे राजा द्युतिवर्मा का राज्य वर्ष 5 और पंचम राजा विन्नुवर्मा का 28 राज्य वर्ष में निर्गत ताम्रपत्र इस प्राचीन राज्य के आदेश और कर व्यवस्था के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं।

ब्रह्मपुर के ताम्रपत्र-

1- ‘द्युतिवर्म के ताम्रपत्र’ का आरंभिक अंश-

” स्वस्ति (।।) पुरंदरपुरप्रतिमाद्-वृ(ब्र)ह्मपुरात्

सकल जगन्मूलोर्बविचक्क-महाभार-वहन (गुण-वमन-फण-सहस्रान्त)-

मुदत्तरकर्न्दरभगवद्-व ( i) र (नेश्वरस्वामी-श्चरण)।

कमलानुध्यातः सोमदिवाकरण्वयो गो व्रा(ब्रा)

हम्मन-हितैषी श्रीपुरूरवः प्रभृत्यविच्छिद्यमान्

-सौ (पौ) रव-राज वंशोग्निरिव वैपक्ष-कक्ष-

दहनो (भू) श्र्याग्निवर्मा (।) तस्य पुत्रस्तत्पदा

-प्रसादादर्वाप्त-राज्य-महिमा द्युतिमदहित,

पक्षद्यु तिहारो विवस्वानिव द्वितीयः

परम भट्टरक-महाराजाधिर(।) ज-श्री-

द्युतिवर्मा कुशली पर्वकार-राज्ये (ऽ)

स्मद-वंशयानमहाराज-विशेष-नप्रतिमान्य-

दण्डोपरिके-प्रमातर-प्रतिहार-कुमारमाप्य पीलुपतिश्वपति-।

2- ‘विष्णुवर्मन द्वितीय के ताम्रपत्र’ का अरंभिक अंश –

” स्वस्ति (।।) पुरोत्तमाद्-व्र (बृ) ह्मपुरात् सकलभुवन

-भव-भंग-विभागकारिनो (ऽ)नन्त-मूर्तेरनाद्या

-वेद्याचिन्त्यद्भुतोद्भूत-प्रभूत-प्रभावति-शयस्य-

क्षमातल -विपुल-विकट-स्फटा-निकट-प्ररूढ़

मणिगण-किरणारुणित-पाताल-तलस्य(-)धारणि-धारण

-योग्य-धारणा-धार (रिनो)भुजाराजरूपस्य

(स्या) भगवदविरणेश्वर स्वामिनश्चरण-कमलानुध्यातः,

सोमदिवाकर-प्रांशु-वंश-वेश्म-प्रदीपः सर्वप्रजानुग्र (ए)

याभ्युदितप्रभावः परमभट्टारक-महाराजाधिराज श्र्याष्णि (ग्नि) वर्म्मा(।)

तदात्मजस्तत्पाद-प्रसादवाप्त-प्रराज्य-

राज्यक्षपित-महापक्ष-विपक्षकक्ष-द्युतिर्ममहाराजाधिराज श्री द्युतवर्मा(।।)

तन्ननयो (तत्तनयो)नय-विनय-

शौर्य-धैर्य-स्थिर्य-गंभीर्यौदार्य-गुणाधिष्ठित-मूर्ति शक्क्रधर(ः)इव

पेजनामार्तिहरः परमपितृभक्तः

परमभट्टारक-महाराजाधिराज श्री विष्णुवर्मा

समुपचित-कुशल-व (बी)ल-वीर्यः पर्वतकार’

द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र का हिंदी अनुवाद-

” स्वस्ति। धरती पर इंद्र की नगरी के समान ब्रहपुर से।

धरती पर इंद्र की नगरी ब्रह्मपुर से जो संपूर्ण भूमंडल के भार को वहन करने वाले सहस्र प्रशंसकों से युक्त अपरिमित गुण पूर्ण अनंत के आराध्य भगवान वीरणेश्वर स्वामी के चरण-कमलों में लीन सोमसूर्य वंश में उत्पन्न हुए, श्रीपुरवा आदि पौर्वानरेशों के वंशज, गौ और ब्राह्मणों के हितैषी ,शत्रुओं को शुष्क तृणवत दग्घ करने में अग्नि के समान समर्थ थे श्री अग्निवर्मन् उनके पुत्र, उनकी कृपा से राज्यमहिमा को प्राप्त करने वाला द्वितीय दिवाकर के समान, शत्रुओं की द्युतियों का अपमान करने वाले परम भट्टार्क महाराजाधिराज श्री द्युतिवर्मन अपने पर्वताकार राज्य में कुशल से हैं। और अपने भूतपूर्व मनेर नरेशों की प्रतिमूर्ति नक्षत्र है। तथा अपने दण्डधर, प्रमातार, प्रतिहार, कुमारामात्य तथा हस्ति-अश्वशाला।”

तालेश्वर ताम्रपत्रों का विश्लेषण-

इतिहासकार डॉ. शिवप्रसाद डबराल द्वारा रचित ‘उत्तराखंड के अभिलेख एवं मुद्रा’ नामक पुस्तक में प्रकाशित तालेश्वर एवं पांडुकेश्वर ताम्रपत्रों (तथकथित कत्यूरी) के आधार पर तालेश्वर ताम्रपत्रों का विश्लेषण इस प्रकार है-

तालेश्वर ताम्रपत्रों का आरंभ पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों (कार्तिकेयपुर के नरेश, जिसमें इतिहासकार कत्यूरी भी कहते हैं) की तरह ‘स्वस्ति’ से किया गया है। मध्य काल में कुमाऊँ के चन्द्रमा ने भी अपने ताम्रपत्रों में ‘ओम स्वस्ति’ का अर्थ किया, जिसका अर्थ ‘कल्याण हो’ है। तालेश्वर ताम्रपत्रों के नगर उद्घोष, कार्तिकेयपुर में ताम्रपत्रों की भाँति अभिलेखों के पुरातात्विक वाक्यांश दिये गये हैं। पूर्व ताम्रपत्र में नगर उद्घोष ‘ब्रह्मपुर’ है, जिसे इन्द्रनगरी और पुरों में सर्वोत्तम रूप से वर्णित किया गया है। पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों के नगर उद्घोष ‘श्रीकार्तिकेयपुर’ में धूम मची हुई है। ब्रह्मपुर कहाँ था? इस संबंध में भी धार्मिक मान्यता है, जिसमें अलेक्जेंडर कनिंघम का मत सर्वोच्च है। आर्किलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के प्रथम वैज्ञानिक अलेक्जेंडर कनिंघम (1861-1865) ने पश्चिमी रामगंगा के तट वेराटपटन को ब्रह्मपुर के रूप में पहचाना। वैराटपट्टन नामक स्थान विकासखंड चौखुटिया, जिला बस्ती में है। पश्चिमी रामगंगा घाटी में नदी तटवर्ती उच्चतम विस्तृत क्षेत्र चौखुटिया के निकट 'लखनपुर-बैराट' को ही कनिंघम ने ब्रह्मपुर कहा है। बीसवीं शताब्दी में ब्रह्मपुर के पूर्व ताम्रपत्र तालेश्वर नामक गांव से प्राप्त हुआ है, जो चौखुटिया के पश्चिम में गढ़वाल सीमा पर स्थित है। तालेश्वर से प्राप्त ताम्रपत्र कनिंघम के मैट की पुष्टि करता है, जिसके बाद उनकी मृत्यु की जानकारी प्राप्त हुई। चौखुटिया से तालेश्वर गांव की हवाई दूरी 16 किलोमीटर है। ब्रह्मपुर प्राचीन मध्यकालीन हिमाचली क्षेत्र का एक प्रमुख नगर था, जिसका वर्णन चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अपनी यात्रा का विवरण में किया था। इस चीनी यात्री ने ब्रह्मपुर को ''पो-लो-कि-मो'' कहा। यह चीनी यात्री सन् 629 ई. से 643 ई. तक भारत की यात्रा की थी। चीनी यात्री की यात्रा-वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि ब्रह्मपुर की झलक सातवीं शताब्दी में मिलती है। इतिहासकारों में ब्रह्मपुर के पौरव शासकों के कालखंड को शामिल किया गया है। कुछ विद्वान इस राजवंश के कैनन किंगजी हर्ष के पूर्वज और कुछ परविद्या बतलाते हैं। तालेश्वर और राजा हर्ष के मधुवन - बांसुरी वादक और कार्तिकेयपुर तामपत्रों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि पौरव शासक हर्ष (606-647 ई.) के पूर्वज थे।

श्रीपुरवा नामक राजा के वंश अर्थात् पौरव वंश (सोम-दिवाकर वंश) का उल्लेखित तालेश्वर ताम्रपत्रों में किया गया है। राजा हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ट ने सूर्य और चन्द्र नामक दो क्षत्रिय राजवंशों का उल्लेख किया है। संभवतः सोम-दिवाकर का संयोजन मध्य हिमालय में पौरव राजवंश में हुआ। सोम प्रथम का अर्थ है पिता चन्द्रवंशी और माता सूर्यवंशी। पांडुकेश्वर मंदिर से प्राप्त ललित शूरदेव के ताम्रपत्रों में उनके वंश का उल्लेख नहीं है। लेकिन ‘कार्तिकेयपुर’ उद्घोष वाले एक अन्य ताम्रपत्र, जो पांडुक मंदिर से ही प्राप्त है, जिसमें राजा का नाम पद्मदेव दर्शन हुआ है और उनके वंश का स्थान सागर, दिलीप, मांधात्री, भगीरथ आदि सतयुगी राजा बताया गया है।

पौरव ताम्रपत्रों में ‘वीरनेश्वर भगवान’ तथा कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेवताम्रपत्रों में शिव की कृपा से ‘भगवती नंदा’ को कुल देवता के रूप में वर्णित किया गया है। वीरानेश्वर भगवान को धरणी-धरण और भुजंगराज कहा गया है। मूलतः वीरानेश्वर का ही दूसरा नाम ‘शेषनाग’ था। मध्य हिमालय के कई नाग मंदिर पूर्व शासन की पुष्टि करते हैं। नागबेरी या बेदीनाग, वीरान क्षेत्र वर्तमान चौखुटिया शहर के अंदर आता है जिसका एक नाम गनाई भी है जो गणेश मंदिर के अनुसार पड़ा इसके बारे में मैंने पहले ग्रुप में एक लिख डाला था गणेश मंदिर संबंधी इतिहास

यहां से करण प्रयाग 89 किमी,रानीखेत 56 किमी,द्वराहाट 19 की,मी, गैरसैण 34 की,मी,मासी 11 किमी,बद्रिनाथ् धाम 216 किमी,,की दूरी पर स्तिथ है,यहां से इन सभी जगहों के लिए सरल व सुगम मार्ग सुलभ है, मेरे गांव की दूरी मोटर मार्ग से 14 किलोमीटर पैदल 5 किलोमीटर है
सन् 1960 रामनगर बदरीनाथ हाईवे बना जो इसी विराटनगर होते हुए जाता है जहां पर कीचक मारा वहां पर बहुत बड़ा नदी के अंदर एक तालाब है जिसको स्थानीय भाषा में तितिनियां रौ कहते हैं मोटर बना मार्ग बनाते समय एक बड़ा पत्थर मिला जिस पर लिखा था कीचक को किसने मारा फिर आगे लिखा था मैंने मारा मैंने मारा भीमशेन योर पत्थर का शिलालेख मोटर निर्माण मार्ग के भेंट चढ़ गया इसी प्रकार लखनपुर कोर्ट से सन 1960 में ही मोटर मार्ग मेरे गांव के तरफ हो गई पहाड़ी पर उसे स्थान पर असुरकोट जौरासी है और मोटर मार्ग में लखनपुर महल के खंडहर पत्थर के अवशेष मोटर मार्ग के भेंट चढ़ गए ठेकेदार ने उसके पत्थर चुराकर मोटर मार्ग के दीवाल बनाने में प्रयोग कर दिए लोगों में जागरूकता की कमी थी मोटर मार के पास से अभी भी एक गुफा नदी की ओर जाती हैं तथा एक पानी की बावड़ी वर्तमान में भी विद्यमान है जो उसे जमाने के हॉट बाजार के शीर्ष में है,

यह गेवाड घाटी को रंगीली बैराठ घाटी भी कहा जाता है,इसका तहसील व ब्लॉक चखुटिया मे हे,गेवाद् के बीचो बिच रामगँगा नदी बहती है,यह बैराठ घाटी काफी समतल व विस्तृत है जिस कारण यह बहुत उपजाऊ घाटी है,हम कत्युरियो के लिए यह बहुत पवित्र तीर्थ स्थान की तरह है की तरह है, वर्तमान में यहां पर भारत सरकार ने जमीन को समतल देखते हुए एयर फोर्स के लिए एयरपोर्ट बनाने हेतु जमीन का अधिग्रहण कर लिया गया है जिसका विरोध स्थानी लोग कर रहे हैं यह क्षेत्र लगभग 20 किलोमीटर मैदान घटी है और बीच में नदी बहती है तथा घाटी के दोनों तरफ से सुंदर हरे भरे जंगल और गांव ह,
पाली पछम खली में को को राजा!
बुढा राजा सासन्दी को पाट
गोराराई को पाट, सांवलाराई को पाट
नीली चौरी, उझाना को पाट
मानचवाणी कौ घट लगयों
दौराहाट में दौरा मंडल चिणों
खिमसारी हाट में खेल लगयों
रणचुलिहाट में राज रमायो आसन्ती देव
आसन्ती को बासन्ती देव

अजोपिथा, गजोपिथा ,नरपिथा ,प्रथीरजन, प्रथ्वीपाल, सुर्य तपनी बालक राजा धाम देव जय हो

उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास में मध्य हिमालय क्षेत्र के तीन राज्यों स्रुघ्न, गोविषाण और ब्रह्मपुर का विशेष उल्लेख किया गया है। चीनी यात्री ह्वैनसांग के यात्रा विवरण में भी इन तीन राज्यों का उल्लेख किया गया है। चीनी यात्री के यात्रा विवरणानुसार वह स्रुघ्न से मतिपुर, मतिपुर से ब्रह्मपुर तथा ब्रह्मपुर से गोविषाण गया था। स्रुघ्न की पहचान अम्बाला, मतिपुर की हरिद्वार और गोविषाण की पहचान काशीपुर के रूप में हो चुकी है। लेकिन ब्रह्मपुर की पहचान करने में विद्वानों में मतभेद है। यद्यपि सातवीं शताब्दी के भूगोल को समझना और चीनी यात्री ह्वैनसांग के यात्रा विवरण का सटीक विश्लेषण करना कठिन कार्य है। यात्रा विवरण का विश्लेषण भी विद्वानों के तथ्यों में विविधता उत्पन्न करता है। अतः कतिपय इतिहासकारों ने ब्रह्मपुर की पहचान भिन्न-भिन्न स्थानों से की है।

1- ’’एटकिंसन, ओकले तथा राहुल के अनुसार- बाड़ाहाट (उत्तरकाशी)।’’

2- ’’कनिंघम और गुप्ते के अनुसार- लखनपुर वैराटपट्टन।’’

3- ’’सेंट मार्टिन और मुकन्दीलाल के अनुसार- श्रीनगर।’’

4- ’’फूरर के अनुसार- लालढांग के पास पाण्डुवालासोत।’’

5- अन्य- ’’बढ़ापुर, नजीबाबाद।’’

उपरोक्त सभी विद्वानों के मत ’ब्रह्मपुर’ नामक प्राचीन स्थल की पहचान के संबंध में अत्यधिक विरोधाभाषी है। ब्रह्मपुर जनपद के भौगोलिक सीमांकन के अनुसार बाड़ाहाट (उत्तरकाशी नगर) तो ब्रह्मपुर राज्य की अंतः सीमा में ही नहीं था। ह्वैनसांग के यात्रा विवरणानुसर यमुना नदी ‘सु्रघ्न’ जनपद के मध्य में और गंगा नदी पूर्ववर्ती सीमा थी। इस आधार पर विद्वानों ने भागीरथी से काली नदी मध्य पर्वतीय भू-भाग को ‘ब्रह्मपुर’ राज्य के रूप में चिह्नित किया। अतः एटकिंसन, ओकले और राहुल आदि के मत को विद्वानों द्वारा सीमांकित ब्रह्मपुर का भूगोल निरस्त कर देता है।

इसी प्रकार सेंट मार्टिन और मुकन्दीलाल का ब्रह्मपुर ’श्रीनगर’ ऐसा स्थान है, जो भौगोलिक दृष्टि से इस राज्य की परिधि पर स्थित था। इसलिए श्रीनगर राजधानी के लिए उपयुक्त स्थान प्रतीत नहीं होता है। अन्य मतों में एक बढ़ापुर, नजीबाबाद भी विद्वानों द्वारा सीमांकित ब्रह्मपुर के वाह्य क्षेत्र में स्थित है। ब्रह्मपुर की सीमा के भीतर लालढांग के पास पाण्डुवालासोत और लखनपुर (वैराटपट्टन) भी दो महत्वपूर्ण विकल्प हैं, जिनका विश्लेषण आवश्यक है।

चीनी यात्री के विवरणानुसार मतिपुर और स्थाण्वीश्वर की जलवायु समान थी और मतिपुर से गोविषाण की स्थिति दक्षिणपूर्व में लगभग 66 मील दूर थी। इस आधार पर गोविषाण (काशीपुर) और मतिपुर (हरिद्वार) की पहचान स्पष्ट होती है। ह्वैनसांग स्रुघ्न जनपद से 50 मील उत्तर में ब्रह्मपुर राज्य में गया था। अर्थात ब्रह्मपुर के दक्षिण में 50 मील दूर स्रुघ्न जनपद की सीमा थी, जहाँ से ह्वैनसांग ब्रह्मपुर को गये थे। पाण्डुवालासोत को ब्रह्मपुर मान लें तो, हरिद्वार से लालढांग लगभग पैदल मार्ग से मात्र 14 मील ही दूर पूर्व दिशा में स्थित है।

स्रुघ्न जनपद की सीमा से मात्र 14 मील दूरी पर एक शक्तिशाली राज्य ब्रह्मपुर की राजधानी होना संदेहास्पद प्रतीत होता है। जबकि चीनी यात्री ह्वैनसांग के विवरणाधार पर कनिंघम ने ब्रह्मपुर राज्य का घेरा लगभग 666 वर्ग मील निर्धारित किया। पाण्डुवालासोत नामक स्थान एक विशाल जनपद सु्रघ्न के सीमावर्ती क्षेत्र पर था, जो सुरक्षा के दृष्टिकोण से ब्रह्मपुर राज्य की राजधानी के लिए उचित स्थान नहीं हो सकता था। ब्रह्मपुर की पहचान का सर्वाधिक मान्य मत कनिंघम और गुप्ते का है, जिन्होंने पश्चिमी रामगंगा घाटी में स्थित लखनपुर-वैराटपट्टन को ‘ब्रह्मपुर’ कहा।

अलेक्जैंडर कनिंघम भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रथम महानिदेशक सन् 1861 से 1865 ई. तक रहे। इस दौरान उन्होंने तक्षशिला, नालन्दा जैसे प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों का अन्वेषण कार्य अपने निर्देशन में करवाया। उत्तराखण्ड में उन्होंने रामगंगा घाटी में स्थिल वैराटपट्टन के अन्वेषण का कार्य किया। ब्रिटिश शासन काल में यह अन्वेषण स्थल परगना पाली-पछाऊँ में का एक गांव था।

ब्रिटिश कालीन परगना पाली-पछाऊँ के प्राचीन इतिहास के संबंध में बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘गिंवाड़ पट्टी में रामगंगा किनारे एक पुराना नगर टूटा पड़ा है, यहाँ ईंटें भी मिलती हैं। इसका नाम विराटनगरी है। वहीं पर रामगंगा के किनारे कीचकघाट भी है। वहीं पर एक दुर्ग का नाम लखनपुर कोट है। इसको इस समय आसन-वासन-सिंहासन के नाम से पुकारा जाता है।’’ कनिंघम ने पाली-पछाऊँ परगने की पट्टी गिंवाड़ के दो निकटवर्ती स्थलों विराटनगरी और लखनपुर कोट को ‘लखनपुर वैराटपट्टन’ कहा। कुमाऊँ क्षेत्र में गाये जाने वाले एक कुमाउनी लोक-कथा गीत में बैराठ के राजा मालूशाही का उल्लेख भी आता है, जिसे कत्यूरी शासक कहा जाता है।

कत्यूरी शासक आसन्तिदेव और वासन्तिदेव के नाम से लखनपुर कोट को आसन-वासन भी कहा जाता है। ऐतिहासिक तथ्यानुसार आसन्तिदेव कत्यूर घाटी (गोमती घाटी, बागेश्वर) के प्रथम राजा थे, जो जोशीमठ से कत्यूर आये और कत्यूरी कहलाये। कत्यूरी वंशावली के अनुसार आसन्तिदेव के वंश मूल पुरुष सूर्यवंशी ‘शालिवाहन’ थे, जो अयोध्या से उत्तराखण्ड आये थे। कत्यूर घाटी पर अधिकार करने के पश्चात आसन्तिदेव ने अपने पुत्र वासन्तिदेव की सहायता के निकटवर्ती चौखुटिया और द्वाराहाट पर भी अधिकार कर लिया था। कत्यूरी स्थापत्य कला के भग्नावशेषों का एक नगर ‘द्वाराहाट’ भी है, जिसके उत्तर-पश्चिम में ‘कोटलार घाटी’ है, जो चौखुटिया नामक स्थान को द्वाराहाट से संबंध करती है। चौखुटिया में ही ‘कोटलार’ नदी और रामगंगा का संगम है।

वर्तमान में कोटलार घाटी से ही होकर राष्ट्रीय राजमार्ग 109, द्वाराहाट को चौखुटिया से संबद्ध करता है। चौखुटिया से एक सड़क मासी-भिकियासैंण-भतरौजखान होते हुए लखनपुर-रामनगर को जाती है। इस सड़क पर चौखुटिया के निकवर्ती स्थल गणाई, भाटकोट और भगोटी हैं। ‘‘गणाई से करीब दो मील दूरी पर लखनपुर या बैराट है, जो कुमाऊँ के प्राचीन राजाओं की राजधानी मानी जाती है।’’ जहाँ अब मां लख्नेश्वरी मंदिर स्थापित है। ‘‘इस लखनपुर के निकट कलिरौ-हाट नामक बाजार था। अब निशान भी बाकी न रहा, नाम बाकी है।’’

चौखुटिया-रामनगर सड़क पर भागोटी के निकट जहाँ लखनपुर नाम से लख्नेश्वरी मंदिर है, वहीं चौखुटिया के निकटवर्ती वैराठेश्वर महादेव को वैराटपट्टन कह सकते हैं। पश्चिमी रामगंगा के बायें तटवर्ती इन दोनों मंदिरों के मध्य लगभग 5 किलोमीटर की दूरी है। ब्रह्मपुर के स्थान पर लखनपुर और वैराटपट्टन नाम कैसे प्रचलन में आ गया ? कत्यूरी शासक आसन्तिदेव के वंशज कालान्तर में धीरे-धीरे अपने राज्य का विस्तार सम्पूर्ण कुमाऊँ में करने में सफल रहे। विस्तृत राज्य को सुरक्षित रखने हेतु इस सूर्यवंशी राजवंश ने राम के अनुज ‘लखन’ नाम से कुमाऊँ के भिन्न-भिन्न स्थानों पर ‘लखनपुर’ नामक उप राजधानियां स्थापित कीं। रामनगर का लखनपुर, चौखुटिया का लखनुपर, जागेश्वर क्षेत्र का लखनुपर, अस्कोट का लखनुपर और सीमान्त भोट क्षेत्र का लखनपुर इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। कत्यूरी राजा मालूशाही को बैराठ या वैराट का राजा कहा जाता है। इस प्रकार ब्रह्मपुर का नाम परिवर्तन कत्यूरी कालखण्ड में हुआ।

अलेक्जैंडर कनिंघम ने लखनपुर वैराटपट्टन की पहचान ब्रह्मपुर से की, जो सही तथ्य प्रतीत होता है। इसी लखनपुर वैराटपट्टन के पश्चिम में स्थित देघाट के निकट तालेश्वर गांव से ही सन् 1915 ई. में ब्रह्मपुर के महान राजवंश ‘पौरव’ वंश के दो शासकों का एक-एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ। इन ताम्रपत्रों में राज्य वर्ष तिथि अंकित है। अर्थात राजा के सिंहासन पर विराजमान होने के वर्ष से ताम्रपत्र निर्गत किये जाने वाले वर्ष की गणना। तालेश्वर ताम्रपत्रों में राज्य का नाम ‘पर्वताकार’ तथा राजधानी ब्रह्मपुर उत्कीर्ण है, जो सर्वश्रेष्ठ नगरी थी। चौखुटिया क्षेत्र के निकटवर्ती तालेश्वर गांव से प्राप्त ब्रह्मपुर नरेशों के ताम्रपत्र, कनिंघम (1814-1893) के अभ्युक्ति की पुष्टि करते हैं। अतः प्राचीन ब्रह्मपुर को वर्तमान चौखुटिया से संबंध कर सकते हैं।

डॉ. शिवप्रसाद डबराल ‘ह्वैनसांग’ के यात्रा विवरणानुसार तर्क प्रस्तुत करते हैं कि यात्री मतिपुर (हरिद्वार) से ब्रह्मपुर, ब्रह्मपुर से मतिपुर और मतिपुर से गोविषाण (काशीपुर) की यात्रा पर गया। अतः ब्रह्मपुर को लखनपुर वैराटपट्टन (चौखुटिया) या लखनपुर (रामनगर) माने तो यात्री इस स्थान से सीधे गोविषाण क्यों नहीं गया ? वापस हरिद्वार आकर गोविषाण की यात्रा को क्यों गया ? इस आधार पर डॉ. शिवप्रसाद डबराल ब्रह्मपुर के लखनपुर वैराटपट्टन के मत पर संदेह करते हैं।

हरिद्वार प्राचीन काल से प्रसिद्ध तीर्थ स्थल रहा था। संभवतः ह्वैनसांग के ब्रह्मपुर यात्रा के दौरान हरिद्वार में कोई महत्वपूर्ण उत्सव/पर्व हो, जिसके कारण ह्वैनसांग गोविषाण के स्थान पर पुनः वापस हरिद्वार गया और उसके पश्चात गोविषाण। संभवतः उस वर्ष हरिद्वार में कुम्भ पर्व आयोजित किया गया हो।

ब्रह्मपुर (पौरव वंश) के ताम्रपत्रों की प्राप्ति चौखुटिया के निकटवर्ती गांव तालेश्वर से और ह्वैनसांग के यात्रा विवरण तथा अलेक्जैंडर कनिंघम के मत के आधार पर कह सकते हैं कि प्राचीन ब्रह्मपुर राज्य ही आज का चौखुटिया है, जो पश्चिमी रामगंगा घाटी का प्रमुख कस्बा है। ‘चौखुटिया’ का शाब्दिक अर्थ ‘चार-खुट’, जहाँ कुमाउनी में ‘खुट’ का अर्थ ‘पद’ (पैर) होता है। चौखुटिया की भौगोलिक स्थिति देखें तो यह पर्वतीय स्थल चारों दिशाओं से नदी घाटियों से संबद्ध है।
तालेश्वर ताम्रपत्र और ब्रह्मपुर का इतिहाससातवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास को देखें तो, उत्तर भारत पर कैनन के शक्तिशाली राजा हर्ष का शासन था। वह उत्तर भारत का सर्वमान्य राजा था। मध्य हिमालय के ब्रह्मपुर राज्य में सातवीं शताब्दी के क्वार्टर से ही हर्ष का उत्तरदायित्व चुकाया गया था। इस तथ्य की पुष्टि हर्ष के साहित्यिक कवि बाणभट्ट करते हैं, जिन्होंने 'हर्षचरित' नामक काव्य संग्रह की रचना की थी। मध्य हिमालय के राज्यों पर हर्ष के नेतृत्व में कैनन का जो प्रभाव पड़ा, उसकी झलक लहरों तक दिखलाई रही। हर्ष के प्रसिद्ध कालों के प्रसिद्ध शासकों यशोवर्मन (आठवीं शताब्दी) और जयचंद गढ़वाल (बारहवीं शताब्दी) का भी प्रभाव मध्य हिमालय पर पड़ता है। इसी कारण से उत्तराखंड के विभिन्न इतिहासकार सातवीं से बारहवीं शताब्दी तक कुमाऊं के इतिहास को प्राचीन काल से देखते हैं। विशेषतः कुमाऊँ के 'चंद' राजवंश। सातवीं शताब्दी के आस-पास ब्रह्मपुर जिलाएक पर्वताकार राज्य था। इस जिले की उत्तरी सीमा पर महाहिमालय की मंजिल के लिए सुवर्णगोत्र नामक देश था। इस तथ्य की पुष्टि हर्षचरित्र नामक पुस्तक से होती है। हर्ष विजयों के संबंध में हर्षचरित में एक विशेष श्लेषयुक्त पद उल्लेखनीय है, जिसमें बाण का सबसे छोटा भाई श्यामल, हर्ष विषयक कुछ सहजता प्रदान करता है। इस पद में कुल नौ वाक्य हैं। नौ वाक्यों के श्लेषपद का आठवां वाक्य हिमालय से संबंधित है, जो इस प्रकार है- ''परमेश्वर ने हिमाचल प्रदेश के दुर्गम प्रदेश के शासक से प्राप्त किया।'' यहां पर केन के राजा हर्ष को भगवान ने कहा है। सातवीं शताब्दी में कैनाल राज्य के भूतपूर्व हिमाचल प्रदेश दुर्गम प्रदेश नेपाल से कश्मीर तक जाना था। मूलतः हर्षचरित के श्लेषयुक्त श्लेष वाक्य में आए प्रदेश को ठीक से देखने में भी समानता है-

1- बुलर और राधाकुमुद मुखर्जी का मत हिमाचल प्रदेश-नेपाल।

2- गौरी शंकर चटर्जी का मत- ब्रह्मपुर।

3- आर.एस.सी. त्रि का मत- पहाड़ी राजकुल।

4- लेवी का मत- तुर्क प्रदेश।

बुलर और राधाकुमुद मुकर्जी का मत कान की भौगोलिक सीमा के आधार पर होता है। जबकि आर. एस. त्रिपहाड़ी राजकुल अर्थात हिमाचल प्रदेश के भू-भाग को हिमाचल प्रदेश के दक्षिण में आकर्षित करते हैं। लेवी का मत तुर्क प्रदेश (कन्नौज राज्य से सदूर उत्तर-पश्चिमी प्रदेश) नहीं था, जो कि कनौज राज्य की सीमा से बहुत दूर था। प्राचीन सिद्धांतों पर ध्यान करें तो हिमालय के पार कैलास-मानसरोवर यात्रा प्राचीन काल से चली आ रही है। अर्थात् सुवर्णगोत्र देश और कैनेडियन राज्य के मध्य कैलास-मानसरोवर की धार्मिक यात्रा से एक संबंध स्थापित हुआ था। भोट व्यापार दूसरा कारण हो सकता है। गौरी शंकर चटर्जी का मत है कि ब्रह्मपुर उत्तर में सुवर्णगोत्र देश हिमाच्छादित विशाल पर्वतों में स्थित था, जहाँ अफ़सर का राज्य था। गौरी शंकर चटर्जी सुवर्णगोत्र देश (तिब्बत) के आधार पर हिमाच्छादित दुर्गम प्रदेश के दक्षिण में ब्रह्मपुर राज्य को प्रतिष्ठित करते हैं।

मध्य हिमालय के प्राचीन राज्य ‘ब्रह्मपुर’ के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तालेश्वर ताम्रपत्रों से प्राप्त होते हैं। तालेश्वर गांव से ये दोनों ताम्रपत्र बीसवीं शताब्दी के छठे दशक में प्राप्त हुए थे। ये दो ताम्रपत्र उत्तराखंड के इतिहास से एक और राजवंश ‘पौरव’ से जुड़े हुए हैं। इस राजवंश की राजधानी ‘ब्रह्मपुर’ थी और राज्य का नाम ‘पर्वताकर’ था। इस राजवंश के पांच शासकों के नाम प्रचलित हैं- विष्णुवर्म, वृषभवर्म, अग्निवर्म, द्युतिवर्म और विष्णुवर्म द्वितीय। इनमें से अंतिम दो पौरव शासकों के ताम्रपत्र तालेश्वर गांव, तहसील स्याल्दे, जनपद से प्राप्त हुए हैं। पौरव वंश के चौथे राजा द्युतिवर्मा का राज्य वर्ष 5 और पंचम राजा विन्नुवर्मा का 28 राज्य वर्ष में निर्गत ताम्रपत्र इस प्राचीन राज्य के आदेश और कर व्यवस्था के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं।

ब्रह्मपुर के ताम्रपत्र-

1- ‘द्युतिवर्म के ताम्रपत्र’ का आरंभिक अंश-

” स्वस्ति (।।) पुरंदरपुरप्रतिमाद्-वृ(ब्र)ह्मपुरात्

सकल जगन्मूलोर्बविचक्क-महाभार-वहन (गुण-वमन-फण-सहस्रान्त)-

मुदत्तरकर्न्दरभगवद्-व ( i) र (नेश्वरस्वामी-श्चरण)।

कमलानुध्यातः सोमदिवाकरण्वयो गो व्रा(ब्रा)

हम्मन-हितैषी श्रीपुरूरवः प्रभृत्यविच्छिद्यमान्

-सौ (पौ) रव-राज वंशोग्निरिव वैपक्ष-कक्ष-

दहनो (भू) श्र्याग्निवर्मा (।) तस्य पुत्रस्तत्पदा

-प्रसादादर्वाप्त-राज्य-महिमा द्युतिमदहित,

पक्षद्यु तिहारो विवस्वानिव द्वितीयः

परम भट्टरक-महाराजाधिर(।) ज-श्री-

द्युतिवर्मा कुशली पर्वकार-राज्ये (ऽ)

स्मद-वंशयानमहाराज-विशेष-नप्रतिमान्य-

दण्डोपरिके-प्रमातर-प्रतिहार-कुमारमाप्य पीलुपतिश्वपति-।

2- ‘विष्णुवर्मन द्वितीय के ताम्रपत्र’ का अरंभिक अंश –

” स्वस्ति (।।) पुरोत्तमाद्-व्र (बृ) ह्मपुरात् सकलभुवन

-भव-भंग-विभागकारिनो (ऽ)नन्त-मूर्तेरनाद्या

-वेद्याचिन्त्यद्भुतोद्भूत-प्रभूत-प्रभावति-शयस्य-

क्षमातल -विपुल-विकट-स्फटा-निकट-प्ररूढ़

मणिगण-किरणारुणित-पाताल-तलस्य(-)धारणि-धारण

-योग्य-धारणा-धार (रिनो)भुजाराजरूपस्य

(स्या) भगवदविरणेश्वर स्वामिनश्चरण-कमलानुध्यातः,

सोमदिवाकर-प्रांशु-वंश-वेश्म-प्रदीपः सर्वप्रजानुग्र (ए)

याभ्युदितप्रभावः परमभट्टारक-महाराजाधिराज श्र्याष्णि (ग्नि) वर्म्मा(।)

तदात्मजस्तत्पाद-प्रसादवाप्त-प्रराज्य-

राज्यक्षपित-महापक्ष-विपक्षकक्ष-द्युतिर्ममहाराजाधिराज श्री द्युतवर्मा(।।)

तन्ननयो (तत्तनयो)नय-विनय-

शौर्य-धैर्य-स्थिर्य-गंभीर्यौदार्य-गुणाधिष्ठित-मूर्ति शक्क्रधर(ः)इव

पेजनामार्तिहरः परमपितृभक्तः

परमभट्टारक-महाराजाधिराज श्री विष्णुवर्मा

समुपचित-कुशल-व (बी)ल-वीर्यः पर्वतकार’

द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र का हिंदी अनुवाद-

” स्वस्ति। धरती पर इंद्र की नगरी के समान ब्रहपुर से।

धरती पर इंद्र की नगरी ब्रह्मपुर से जो संपूर्ण भूमंडल के भार को वहन करने वाले सहस्र प्रशंसकों से युक्त अपरिमित गुण पूर्ण अनंत के आराध्य भगवान वीरणेश्वर स्वामी के चरण-कमलों में लीन सोमसूर्य वंश में उत्पन्न हुए, श्रीपुरवा आदि पौर्वानरेशों के वंशज, गौ और ब्राह्मणों के हितैषी ,शत्रुओं को शुष्क तृणवत दग्घ करने में अग्नि के समान समर्थ थे श्री अग्निवर्मन् उनके पुत्र, उनकी कृपा से राज्यमहिमा को प्राप्त करने वाला द्वितीय दिवाकर के समान, शत्रुओं की द्युतियों का अपमान करने वाले परम भट्टार्क महाराजाधिराज श्री द्युतिवर्मन अपने पर्वताकार राज्य में कुशल से हैं। और अपने भूतपूर्व मनेर नरेशों की प्रतिमूर्ति नक्षत्र है। तथा अपने दण्डधर, प्रमातार, प्रतिहार, कुमारामात्य तथा हस्ति-अश्वशाला।”

तालेश्वर ताम्रपत्रों का विश्लेषण-

इतिहासकार डॉ. शिवप्रसाद डबराल द्वारा रचित ‘उत्तराखंड के अभिलेख एवं मुद्रा’ नामक पुस्तक में प्रकाशित तालेश्वर एवं पांडुकेश्वर ताम्रपत्रों (तथकथित कत्यूरी) के आधार पर तालेश्वर ताम्रपत्रों का विश्लेषण इस प्रकार है-

तालेश्वर ताम्रपत्रों का आरंभ पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों (कार्तिकेयपुर के नरेश, जिसमें इतिहासकार कत्यूरी भी कहते हैं) की तरह ‘स्वस्ति’ से किया गया है। मध्य काल में कुमाऊँ के चन्द्रमा ने भी अपने ताम्रपत्रों में ‘ओम स्वस्ति’ का अर्थ किया, जिसका अर्थ ‘कल्याण हो’ है। तालेश्वर ताम्रपत्रों के नगर उद्घोष, कार्तिकेयपुर में ताम्रपत्रों की भाँति अभिलेखों के पुरातात्विक वाक्यांश दिये गये हैं। पूर्व ताम्रपत्र में नगर उद्घोष ‘ब्रह्मपुर’ है, जिसे इन्द्रनगरी और पुरों में सर्वोत्तम रूप से वर्णित किया गया है। पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों के नगर उद्घोष ‘श्रीकार्तिकेयपुर’ में धूम मची हुई है। ब्रह्मपुर कहाँ था? इस संबंध में भी धार्मिक मान्यता है, जिसमें अलेक्जेंडर कनिंघम का मत सर्वोच्च है। आर्किलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के प्रथम वैज्ञानिक अलेक्जेंडर कनिंघम (1861-1865) ने पश्चिमी रामगंगा के तट वेराटपटन को ब्रह्मपुर के रूप में पहचाना। वैराटपट्टन नामक स्थान विकासखंड चौखुटिया, जिला बस्ती में है। पश्चिमी रामगंगा घाटी में नदी तटवर्ती उच्चतम विस्तृत क्षेत्र चौखुटिया के निकट 'लखनपुर-बैराट' को ही कनिंघम ने ब्रह्मपुर कहा है। बीसवीं शताब्दी में ब्रह्मपुर के पूर्व ताम्रपत्र तालेश्वर नामक गांव से प्राप्त हुआ है, जो चौखुटिया के पश्चिम में गढ़वाल सीमा पर स्थित है। तालेश्वर से प्राप्त ताम्रपत्र कनिंघम के मैट की पुष्टि करता है, जिसके बाद उनकी मृत्यु की जानकारी प्राप्त हुई। चौखुटिया से तालेश्वर गांव की हवाई दूरी 16 किलोमीटर है। ब्रह्मपुर प्राचीन मध्यकालीन हिमाचली क्षेत्र का एक प्रमुख नगर था, जिसका वर्णन चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अपनी यात्रा का विवरण में किया था। इस चीनी यात्री ने ब्रह्मपुर को ''पो-लो-कि-मो'' कहा। यह चीनी यात्री सन् 629 ई. से 643 ई. तक भारत की यात्रा की थी। चीनी यात्री की यात्रा-वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि ब्रह्मपुर की झलक सातवीं शताब्दी में मिलती है। इतिहासकारों में ब्रह्मपुर के पौरव शासकों के कालखंड को शामिल किया गया है। कुछ विद्वान इस राजवंश के कैनन किंगजी हर्ष के पूर्वज और कुछ परविद्या बतलाते हैं। तालेश्वर और राजा हर्ष के मधुवन - बांसुरी वादक और कार्तिकेयपुर तामपत्रों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि पौरव शासक हर्ष (606-647 ई.) के पूर्वज थे।

श्रीपुरवा नामक राजा के वंश अर्थात् पौरव वंश (सोम-दिवाकर वंश) का उल्लेखित तालेश्वर ताम्रपत्रों में किया गया है। राजा हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ट ने सूर्य और चन्द्र नामक दो क्षत्रिय राजवंशों का उल्लेख किया है। संभवतः सोम-दिवाकर का संयोजन मध्य हिमालय में पौरव राजवंश में हुआ। सोम प्रथम का अर्थ है पिता चन्द्रवंशी और माता सूर्यवंशी। पांडुकेश्वर मंदिर से प्राप्त ललित शूरदेव के ताम्रपत्रों में उनके वंश का उल्लेख नहीं है। लेकिन ‘कार्तिकेयपुर’ उद्घोष वाले एक अन्य ताम्रपत्र, जो पांडुक मंदिर से ही प्राप्त है, जिसमें राजा का नाम पद्मदेव दर्शन हुआ है और उनके वंश का स्थान सागर, दिलीप, मांधात्री, भगीरथ आदि सतयुगी राजा बताया गया है।

पौरव ताम्रपत्रों में ‘वीरनेश्वर भगवान’ तथा कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेवताम्रपत्रों में शिव की कृपा से ‘भगवती नंदा’ को कुल देवता के रूप में वर्णित किया गया है। वीरानेश्वर भगवान को धरणी-धरण और भुजंगराज कहा गया है। मूलतः वीरानेश्वर का ही दूसरा नाम ‘शेषनाग’ था। मध्य हिमालय के कई नाग मंदिर पूर्व शासन की पुष्टि करते हैं। नागबेरी या बेदीनाग, वीरानेश्वर का अपभ्रंश होता है। नागबेरी तहसील का भूतपूर्व गांव प्राचीन काल से ही पाताल गुला के लिए प्रसिद्ध है। इस गुला के द्वार पर फेन में फैली ये नाग की प्राकृत मूर्ति है, जिसे शेषनाग कहा जाता है। नागबेरी के जंगलों में पिंगलनाग, वासुकिनाग, धौलीनाग, फणीनाग, हरिनाग आदि प्रसिद्ध नाग मंदिर हैं, जो स्थानीय क्षेत्र के इष्ट देवता के रूप में स्थापित हैं। गढ़वाली हिमालय भी नाग चित्र के लिए प्रसिद्ध है। कुमाऊं में नाकुरी (तहसील दुग नाकुरी, बागेश्वर) तथा गढ़वाल में नागपुर नामक स्थान वीरणेश्वर भक्त ‘पौरव वंश’ के सम्मिलित क्षेत्र की पुष्टि करते हैं।तालेश्वर से प्राप्त द्युतिवर्मा और विष्णुवर्मा के ताम्रपत्र में 'कुशली' शब्द का प्रयोग ताम्रपत्र निर्गत करने वाले राजा के नाम और राज्य के नाम के मध्य में किया गया है। जैसे कि-''परम भट्टार्क, महाराजाधिराज श्री द्युतिवर्मा कुशल पर्वताकार राज्ये।'' इसी प्रकार विष्णुवर्मा के ताम्रपत्र में उनका नाम और पर्वताकार राज्य के मध्य में 'कुशली' शब्द दिया गया है। कार्तिकेयपुर ताम्रपत्रों में इसी प्रकार से ' कुशल' शब्द का प्रयोग किया गया है, लेकिन ताम्रपत्रों में 'राज्य' के स्थान पर 'विषय' का उल्लेख किया गया है। कुशली शब्द का शाब्दिक अर्थ है- अच्छे हैं या ठीक-ठाक हैं। 'विषय' को 'जनपद' का उपनाम दिया गया है। 'राज्य' शब्द राजा द्वारा शासित प्रदेशों के लिए नियुक्त किया जाता था। ताल ताम्रपत्रों में राज्य रत्नेश्वर के निवास क्रम में राजा के द्वितीय उपरिक का उल्लेख है। गुप्त काल में जंक्शन को देश, अवनी या भुक्ति कहा जाता था। भुक्ति के शासक को 'उपरिक' कहा जाता था।'' मूल रूप से ब्रह्मपुर राज्य भुक्तियों (प्रान्तानं) में विभाजित था और उनके राज्य में भुक्ति-शासक (उपरिक) को सर्वोच्च राज्य के अधिकारी का सम्मान प्राप्त था।

पौरव ताम्रपत्रों में शासकों को ‘गौ-ब्राह्मण हितैषी’ के रूप में वर्णित किया गया है और उन्होंने केवल ‘परम भट्टारक-महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी। भट्टार्क का अर्थ- सूर्य, राजा और विशेष अर्थ- पूज्य और उद्गम होता है। मूलतः परम भट्टार्क का अर्थ- परम पूजनीय। आज भी पत्र में परम पूजनीय शब्द का प्रयोग लाया गया है, जो सम्मान सूचक विशेष शब्द है। जबकि पाण्डुकेश्वर/कार्तिकेयपुर नरेशों ने ‘परमब्रह्मण’ के साथ-साथ ‘परमेश्वर’, ‘परममहेश्वर’, ‘परम भट्टार्क महाराजाधिराज’ आदि उपाधियां धारण की थीं। संभावित कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव और भूदेवदेव ने मध्य हिमालय में बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव के प्रत्युतर ‘परमब्रह्मण’ की उपाधि धारण की। जबकि इन राजाओं में भगवान (शिव) या परममहेश्वर (शिव) की डिग्री धारण करना स्थानीय प्रभाव (किरात/शिव) प्रकट करता है। इसलिए पुराण में शिवत्व के प्रभाव के कारण गढ़वाल को केदारखंड और कुमाऊं को मानसखंड कहा गया है।

पांडुक मंदिर से प्राप्त ताम्रपत्र में कत्युरी राजा का नाम पद्मदेव दर्शन हुआ है वंश के स्थान पर सागर ,दिलीप, मांधात्री ,राजा भागीरथ, आदि सतयुगी राजा बताया गया है, इससे साफ संकेत मिलते हैं यह लोग सूर्यवंशी राजा थे,

यहां से करण प्रयाग 89 किमी,रानीखेत 56 किमी,द्वराहाट 19 की,मी, गैरसैण 34 की,मी,मासी 11 किमी,बद्रिनाथ् धाम 216 किमी,,की दूरी पर स्तिथ है,यहां से इन सभी जगहों के लिए सरल व सुगम मार्ग सुलभ है, मेरे गांव की दूरी मोटर मार्ग से 14 किलोमीटर पैदल 5 किलोमीटर है
सन् 1960 रामनगर बदरीनाथ हाईवे बना जो इसी विराटनगर होते हुए जाता है जहां पर कीचक मारा वहां पर बहुत बड़ा नदी के अंदर एक तालाब है जिसको स्थानीय भाषा में तितिनियां रौ कहते हैं मोटर बना मार्ग बनाते समय एक बड़ा पत्थर मिला जिस पर लिखा था कीचक को किसने मारा फिर आगे लिखा था मैंने मारा मैंने मारा भीमशेन योर पत्थर का शिलालेख मोटर निर्माण मार्ग के भेंट चढ़ गया इसी प्रकार लखनपुर कोर्ट से सन 1960 में ही मोटर मार्ग मेरे गांव के तरफ हो गई पहाड़ी पर उसे स्थान पर असुरकोट जौरासी है और मोटर मार्ग में लखनपुर महल के खंडहर पत्थर के अवशेष मोटर मार्ग के भेंट चढ़ गए ठेकेदार ने उसके पत्थर चुराकर मोटर मार्ग के दीवाल बनाने में प्रयोग कर दिए लोगों में जागरूकता की कमी थी मोटर मार के पास से अभी भी एक गुफा नदी की ओर जाती हैं तथा एक पानी की बावड़ी वर्तमान में भी विद्यमान है जो उसे जमाने के हॉट बाजार के शीर्ष में है,

यह गेवाड घाटी को रंगीली बैराठ घाटी भी कहा जाता है,इसका तहसील व ब्लॉक चखुटिया मे हे,गेवाद् के बीचो बिच रामगँगा नदी बहती है,यह बैराठ घाटी काफी समतल व विस्तृत है जिस कारण यह बहुत उपजाऊ घाटी है,हम कत्युरियो के लिए यह बहुत पवित्र तीर्थ स्थान की तरह है की तरह है, वर्तमान में यहां पर भारत सरकार ने जमीन को समतल देखते हुए एयर फोर्स के लिए एयरपोर्ट बनाने हेतु जमीन का अधिग्रहण कर लिया गया है जिसका विरोध स्थानी लोग कर रहे हैं यह क्षेत्र लगभग 20 किलोमीटर मैदान घटी है और बीच में नदी बहती है तथा घाटी के दोनों तरफ से सुंदर हरे भरे जंगल और गांव ह,
पाली पछम खली में को को राजा!
बुढा राजा सासन्दी को पाट
गोराराई को पाट, सांवलाराई को पाट
नीली चौरी, उझाना को पाट
मानचवाणी कौ घट लगयों
दौराहाट में दौरा मंडल चिणों
खिमसारी हाट में खेल लगयों
रणचुलिहाट में राज रमायो आसन्ती देव
आसन्ती को बासन्ती देव

अजोपिथा, गजोपिथा ,नरपिथा ,प्रथीरजन, प्रथ्वीपाल, सुर्य तपनी बालक राजा धाम देव जय हो

उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास में मध्य हिमालय क्षेत्र के तीन राज्यों स्रुघ्न, गोविषाण और ब्रह्मपुर का विशेष उल्लेख किया गया है। चीनी यात्री ह्वैनसांग के यात्रा विवरण में भी इन तीन राज्यों का उल्लेख किया गया है। चीनी यात्री के यात्रा विवरणानुसार वह स्रुघ्न से मतिपुर, मतिपुर से ब्रह्मपुर तथा ब्रह्मपुर से गोविषाण गया था। स्रुघ्न की पहचान अम्बाला, मतिपुर की हरिद्वार और गोविषाण की पहचान काशीपुर के रूप में हो चुकी है। लेकिन ब्रह्मपुर की पहचान करने में विद्वानों में मतभेद है। यद्यपि सातवीं शताब्दी के भूगोल को समझना और चीनी यात्री ह्वैनसांग के यात्रा विवरण का सटीक विश्लेषण करना कठिन कार्य है। यात्रा विवरण का विश्लेषण भी विद्वानों के तथ्यों में विविधता उत्पन्न करता है। अतः कतिपय इतिहासकारों ने ब्रह्मपुर की पहचान भिन्न-भिन्न स्थानों से की है।

1- ’’एटकिंसन, ओकले तथा राहुल के अनुसार- बाड़ाहाट (उत्तरकाशी)।’’

2- ’’कनिंघम और गुप्ते के अनुसार- लखनपुर वैराटपट्टन।’’

3- ’’सेंट मार्टिन और मुकन्दीलाल के अनुसार- श्रीनगर।’’

4- ’’फूरर के अनुसार- लालढांग के पास पाण्डुवालासोत।’’

5- अन्य- ’’बढ़ापुर, नजीबाबाद।’’

उपरोक्त सभी विद्वानों के मत ’ब्रह्मपुर’ नामक प्राचीन स्थल की पहचान के संबंध में अत्यधिक विरोधाभाषी है। ब्रह्मपुर जनपद के भौगोलिक सीमांकन के अनुसार बाड़ाहाट (उत्तरकाशी नगर) तो ब्रह्मपुर राज्य की अंतः सीमा में ही नहीं था। ह्वैनसांग के यात्रा विवरणानुसर यमुना नदी ‘सु्रघ्न’ जनपद के मध्य में और गंगा नदी पूर्ववर्ती सीमा थी। इस आधार पर विद्वानों ने भागीरथी से काली नदी मध्य पर्वतीय भू-भाग को ‘ब्रह्मपुर’ राज्य के रूप में चिह्नित किया। अतः एटकिंसन, ओकले और राहुल आदि के मत को विद्वानों द्वारा सीमांकित ब्रह्मपुर का भूगोल निरस्त कर देता है।

इसी प्रकार सेंट मार्टिन और मुकन्दीलाल का ब्रह्मपुर ’श्रीनगर’ ऐसा स्थान है, जो भौगोलिक दृष्टि से इस राज्य की परिधि पर स्थित था। इसलिए श्रीनगर राजधानी के लिए उपयुक्त स्थान प्रतीत नहीं होता है। अन्य मतों में एक बढ़ापुर, नजीबाबाद भी विद्वानों द्वारा सीमांकित ब्रह्मपुर के वाह्य क्षेत्र में स्थित है। ब्रह्मपुर की सीमा के भीतर लालढांग के पास पाण्डुवालासोत और लखनपुर (वैराटपट्टन) भी दो महत्वपूर्ण विकल्प हैं, जिनका विश्लेषण आवश्यक है।

चीनी यात्री के विवरणानुसार मतिपुर और स्थाण्वीश्वर की जलवायु समान थी और मतिपुर से गोविषाण की स्थिति दक्षिणपूर्व में लगभग 66 मील दूर थी। इस आधार पर गोविषाण (काशीपुर) और मतिपुर (हरिद्वार) की पहचान स्पष्ट होती है। ह्वैनसांग स्रुघ्न जनपद से 50 मील उत्तर में ब्रह्मपुर राज्य में गया था। अर्थात ब्रह्मपुर के दक्षिण में 50 मील दूर स्रुघ्न जनपद की सीमा थी, जहाँ से ह्वैनसांग ब्रह्मपुर को गये थे। पाण्डुवालासोत को ब्रह्मपुर मान लें तो, हरिद्वार से लालढांग लगभग पैदल मार्ग से मात्र 14 मील ही दूर पूर्व दिशा में स्थित है।

स्रुघ्न जनपद की सीमा से मात्र 14 मील दूरी पर एक शक्तिशाली राज्य ब्रह्मपुर की राजधानी होना संदेहास्पद प्रतीत होता है। जबकि चीनी यात्री ह्वैनसांग के विवरणाधार पर कनिंघम ने ब्रह्मपुर राज्य का घेरा लगभग 666 वर्ग मील निर्धारित किया। पाण्डुवालासोत नामक स्थान एक विशाल जनपद सु्रघ्न के सीमावर्ती क्षेत्र पर था, जो सुरक्षा के दृष्टिकोण से ब्रह्मपुर राज्य की राजधानी के लिए उचित स्थान नहीं हो सकता था। ब्रह्मपुर की पहचान का सर्वाधिक मान्य मत कनिंघम और गुप्ते का है, जिन्होंने पश्चिमी रामगंगा घाटी में स्थित लखनपुर-वैराटपट्टन को ‘ब्रह्मपुर’ कहा।

अलेक्जैंडर कनिंघम भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रथम महानिदेशक सन् 1861 से 1865 ई. तक रहे। इस दौरान उन्होंने तक्षशिला, नालन्दा जैसे प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों का अन्वेषण कार्य अपने निर्देशन में करवाया। उत्तराखण्ड में उन्होंने रामगंगा घाटी में स्थिल वैराटपट्टन के अन्वेषण का कार्य किया। ब्रिटिश शासन काल में यह अन्वेषण स्थल परगना पाली-पछाऊँ में का एक गांव था।

ब्रिटिश कालीन परगना पाली-पछाऊँ के प्राचीन इतिहास के संबंध में बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘गिंवाड़ पट्टी में रामगंगा किनारे एक पुराना नगर टूटा पड़ा है, यहाँ ईंटें भी मिलती हैं। इसका नाम विराटनगरी है। वहीं पर रामगंगा के किनारे कीचकघाट भी है। वहीं पर एक दुर्ग का नाम लखनपुर कोट है। इसको इस समय आसन-वासन-सिंहासन के नाम से पुकारा जाता है।’’ कनिंघम ने पाली-पछाऊँ परगने की पट्टी गिंवाड़ के दो निकटवर्ती स्थलों विराटनगरी और लखनपुर कोट को ‘लखनपुर वैराटपट्टन’ कहा। कुमाऊँ क्षेत्र में गाये जाने वाले एक कुमाउनी लोक-कथा गीत में बैराठ के राजा मालूशाही का उल्लेख भी आता है, जिसे कत्यूरी शासक कहा जाता है।

कत्यूरी शासक आसन्तिदेव और वासन्तिदेव के नाम से लखनपुर कोट को आसन-वासन भी कहा जाता है। ऐतिहासिक तथ्यानुसार आसन्तिदेव कत्यूर घाटी (गोमती घाटी, बागेश्वर) के प्रथम राजा थे, जो जोशीमठ से कत्यूर आये और कत्यूरी कहलाये। कत्यूरी वंशावली के अनुसार आसन्तिदेव के वंश मूल पुरुष सूर्यवंशी ‘शालिवाहन’ थे, जो अयोध्या से उत्तराखण्ड आये थे। कत्यूर घाटी पर अधिकार करने के पश्चात आसन्तिदेव ने अपने पुत्र वासन्तिदेव की सहायता के निकटवर्ती चौखुटिया और द्वाराहाट पर भी अधिकार कर लिया था। कत्यूरी स्थापत्य कला के भग्नावशेषों का एक नगर ‘द्वाराहाट’ भी है, जिसके उत्तर-पश्चिम में ‘कोटलार घाटी’ है, जो चौखुटिया नामक स्थान को द्वाराहाट से संबंध करती है। चौखुटिया में ही ‘कोटलार’ नदी और रामगंगा का संगम है।

वर्तमान में कोटलार घाटी से ही होकर राष्ट्रीय राजमार्ग 109, द्वाराहाट को चौखुटिया से संबद्ध करता है। चौखुटिया से एक सड़क मासी-भिकियासैंण-भतरौजखान होते हुए लखनपुर-रामनगर को जाती है। इस सड़क पर चौखुटिया के निकवर्ती स्थल गणाई, भाटकोट और भगोटी हैं। ‘‘गणाई से करीब दो मील दूरी पर लखनपुर या बैराट है, जो कुमाऊँ के प्राचीन राजाओं की राजधानी मानी जाती है।’’ जहाँ अब मां लख्नेश्वरी मंदिर स्थापित है। ‘‘इस लखनपुर के निकट कलिरौ-हाट नामक बाजार था। अब निशान भी बाकी न रहा, नाम बाकी है।’’

चौखुटिया-रामनगर सड़क पर भागोटी के निकट जहाँ लखनपुर नाम से लख्नेश्वरी मंदिर है, वहीं चौखुटिया के निकटवर्ती वैराठेश्वर महादेव को वैराटपट्टन कह सकते हैं। पश्चिमी रामगंगा के बायें तटवर्ती इन दोनों मंदिरों के मध्य लगभग 5 किलोमीटर की दूरी है। ब्रह्मपुर के स्थान पर लखनपुर और वैराटपट्टन नाम कैसे प्रचलन में आ गया ? कत्यूरी शासक आसन्तिदेव के वंशज कालान्तर में धीरे-धीरे अपने राज्य का विस्तार सम्पूर्ण कुमाऊँ में करने में सफल रहे। विस्तृत राज्य को सुरक्षित रखने हेतु इस सूर्यवंशी राजवंश ने राम के अनुज ‘लखन’ नाम से कुमाऊँ के भिन्न-भिन्न स्थानों पर ‘लखनपुर’ नामक उप राजधानियां स्थापित कीं। रामनगर का लखनपुर, चौखुटिया का लखनुपर, जागेश्वर क्षेत्र का लखनुपर, अस्कोट का लखनुपर और सीमान्त भोट क्षेत्र का लखनपुर इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। कत्यूरी राजा मालूशाही को बैराठ या वैराट का राजा कहा जाता है। इस प्रकार ब्रह्मपुर का नाम परिवर्तन कत्यूरी कालखण्ड में हुआ।

अलेक्जैंडर कनिंघम ने लखनपुर वैराटपट्टन की पहचान ब्रह्मपुर से की, जो सही तथ्य प्रतीत होता है। इसी लखनपुर वैराटपट्टन के पश्चिम में स्थित देघाट के निकट तालेश्वर गांव से ही सन् 1915 ई. में ब्रह्मपुर के महान राजवंश ‘पौरव’ वंश के दो शासकों का एक-एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ। इन ताम्रपत्रों में राज्य वर्ष तिथि अंकित है। अर्थात राजा के सिंहासन पर विराजमान होने के वर्ष से ताम्रपत्र निर्गत किये जाने वाले वर्ष की गणना। तालेश्वर ताम्रपत्रों में राज्य का नाम ‘पर्वताकार’ तथा राजधानी ब्रह्मपुर उत्कीर्ण है, जो सर्वश्रेष्ठ नगरी थी। चौखुटिया क्षेत्र के निकटवर्ती तालेश्वर गांव से प्राप्त ब्रह्मपुर नरेशों के ताम्रपत्र, कनिंघम (1814-1893) के अभ्युक्ति की पुष्टि करते हैं। अतः प्राचीन ब्रह्मपुर को वर्तमान चौखुटिया से संबंध कर सकते हैं।

डॉ. शिवप्रसाद डबराल ‘ह्वैनसांग’ के यात्रा विवरणानुसार तर्क प्रस्तुत करते हैं कि यात्री मतिपुर (हरिद्वार) से ब्रह्मपुर, ब्रह्मपुर से मतिपुर और मतिपुर से गोविषाण (काशीपुर) की यात्रा पर गया। अतः ब्रह्मपुर को लखनपुर वैराटपट्टन (चौखुटिया) या लखनपुर (रामनगर) माने तो यात्री इस स्थान से सीधे गोविषाण क्यों नहीं गया ? वापस हरिद्वार आकर गोविषाण की यात्रा को क्यों गया ? इस आधार पर डॉ. शिवप्रसाद डबराल ब्रह्मपुर के लखनपुर वैराटपट्टन के मत पर संदेह करते हैं।

हरिद्वार प्राचीन काल से प्रसिद्ध तीर्थ स्थल रहा था। संभवतः ह्वैनसांग के ब्रह्मपुर यात्रा के दौरान हरिद्वार में कोई महत्वपूर्ण उत्सव/पर्व हो, जिसके कारण ह्वैनसांग गोविषाण के स्थान पर पुनः वापस हरिद्वार गया और उसके पश्चात गोविषाण। संभवतः उस वर्ष हरिद्वार में कुम्भ पर्व आयोजित किया गया हो।

ब्रह्मपुर (पौरव वंश) के ताम्रपत्रों की प्राप्ति चौखुटिया के निकटवर्ती गांव तालेश्वर से और ह्वैनसांग के यात्रा विवरण तथा अलेक्जैंडर कनिंघम के मत के आधार पर कह सकते हैं कि प्राचीन ब्रह्मपुर राज्य ही आज का चौखुटिया है, जो पश्चिमी रामगंगा घाटी का प्रमुख कस्बा है। ‘चौखुटिया’ का शाब्दिक अर्थ ‘चार-खुट’, जहाँ कुमाउनी में ‘खुट’ का अर्थ ‘पद’ (पैर) होता है। चौखुटिया की भौगोलिक स्थिति देखें तो यह पर्वतीय स्थल चारों दिशाओं से नदी घाटियों से संबद्ध है।
तालेश्वर ताम्रपत्र और ब्रह्मपुर का इतिहाससातवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास को देखें तो, उत्तर भारत पर कैनन के शक्तिशाली राजा हर्ष का शासन था। वह उत्तर भारत का सर्वमान्य राजा था। मध्य हिमालय के ब्रह्मपुर राज्य में सातवीं शताब्दी के क्वार्टर से ही हर्ष का उत्तरदायित्व चुकाया गया था। इस तथ्य की पुष्टि हर्ष के साहित्यिक कवि बाणभट्ट करते हैं, जिन्होंने 'हर्षचरित' नामक काव्य संग्रह की रचना की थी। मध्य हिमालय के राज्यों पर हर्ष के नेतृत्व में कैनन का जो प्रभाव पड़ा, उसकी झलक लहरों तक दिखलाई रही। हर्ष के प्रसिद्ध कालों के प्रसिद्ध शासकों यशोवर्मन (आठवीं शताब्दी) और जयचंद गढ़वाल (बारहवीं शताब्दी) का भी प्रभाव मध्य हिमालय पर पड़ता है। इसी कारण से उत्तराखंड के विभिन्न इतिहासकार सातवीं से बारहवीं शताब्दी तक कुमाऊं के इतिहास को प्राचीन काल से देखते हैं। विशेषतः कुमाऊँ के 'चंद' राजवंश। सातवीं शताब्दी के आस-पास ब्रह्मपुर जिलाएक पर्वताकार राज्य था। इस जिले की उत्तरी सीमा पर महाहिमालय की मंजिल के लिए सुवर्णगोत्र नामक देश था। इस तथ्य की पुष्टि हर्षचरित्र नामक पुस्तक से होती है। हर्ष विजयों के संबंध में हर्षचरित में एक विशेष श्लेषयुक्त पद उल्लेखनीय है, जिसमें बाण का सबसे छोटा भाई श्यामल, हर्ष विषयक कुछ सहजता प्रदान करता है। इस पद में कुल नौ वाक्य हैं। नौ वाक्यों के श्लेषपद का आठवां वाक्य हिमालय से संबंधित है, जो इस प्रकार है- ''परमेश्वर ने हिमाचल प्रदेश के दुर्गम प्रदेश के शासक से प्राप्त किया।'' यहां पर केन के राजा हर्ष को भगवान ने कहा है। सातवीं शताब्दी में कैनाल राज्य के भूतपूर्व हिमाचल प्रदेश दुर्गम प्रदेश नेपाल से कश्मीर तक जाना था। मूलतः हर्षचरित के श्लेषयुक्त श्लेष वाक्य में आए प्रदेश को ठीक से देखने में भी समानता है-

1- बुलर और राधाकुमुद मुखर्जी का मत हिमाचल प्रदेश-नेपाल।

2- गौरी शंकर चटर्जी का मत- ब्रह्मपुर।

3- आर.एस.सी. त्रि का मत- पहाड़ी राजकुल।

4- लेवी का मत- तुर्क प्रदेश।

बुलर और राधाकुमुद मुकर्जी का मत कान की भौगोलिक सीमा के आधार पर होता है। जबकि आर. एस. त्रिपहाड़ी राजकुल अर्थात हिमाचल प्रदेश के भू-भाग को हिमाचल प्रदेश के दक्षिण में आकर्षित करते हैं। लेवी का मत तुर्क प्रदेश (कन्नौज राज्य से सदूर उत्तर-पश्चिमी प्रदेश) नहीं था, जो कि कनौज राज्य की सीमा से बहुत दूर था। प्राचीन सिद्धांतों पर ध्यान करें तो हिमालय के पार कैलास-मानसरोवर यात्रा प्राचीन काल से चली आ रही है। अर्थात् सुवर्णगोत्र देश और कैनेडियन राज्य के मध्य कैलास-मानसरोवर की धार्मिक यात्रा से एक संबंध स्थापित हुआ था। भोट व्यापार दूसरा कारण हो सकता है। गौरी शंकर चटर्जी का मत है कि ब्रह्मपुर उत्तर में सुवर्णगोत्र देश हिमाच्छादित विशाल पर्वतों में स्थित था, जहाँ अफ़सर का राज्य था। गौरी शंकर चटर्जी सुवर्णगोत्र देश (तिब्बत) के आधार पर हिमाच्छादित दुर्गम प्रदेश के दक्षिण में ब्रह्मपुर राज्य को प्रतिष्ठित करते हैं।

मध्य हिमालय के प्राचीन राज्य ‘ब्रह्मपुर’ के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तालेश्वर ताम्रपत्रों से प्राप्त होते हैं। तालेश्वर गांव से ये दोनों ताम्रपत्र बीसवीं शताब्दी के छठे दशक में प्राप्त हुए थे। ये दो ताम्रपत्र उत्तराखंड के इतिहास से एक और राजवंश ‘पौरव’ से जुड़े हुए हैं। इस राजवंश की राजधानी ‘ब्रह्मपुर’ थी और राज्य का नाम ‘पर्वताकर’ था। इस राजवंश के पांच शासकों के नाम प्रचलित हैं- विष्णुवर्म, वृषभवर्म, अग्निवर्म, द्युतिवर्म और विष्णुवर्म द्वितीय। इनमें से अंतिम दो पौरव शासकों के ताम्रपत्र तालेश्वर गांव, तहसील स्याल्दे, जनपद से प्राप्त हुए हैं। पौरव वंश के चौथे राजा द्युतिवर्मा का राज्य वर्ष 5 और पंचम राजा विन्नुवर्मा का 28 राज्य वर्ष में निर्गत ताम्रपत्र इस प्राचीन राज्य के आदेश और कर व्यवस्था के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं।

ब्रह्मपुर के ताम्रपत्र-

1- ‘द्युतिवर्म के ताम्रपत्र’ का आरंभिक अंश-

” स्वस्ति (।।) पुरंदरपुरप्रतिमाद्-वृ(ब्र)ह्मपुरात्

सकल जगन्मूलोर्बविचक्क-महाभार-वहन (गुण-वमन-फण-सहस्रान्त)-

मुदत्तरकर्न्दरभगवद्-व ( i) र (नेश्वरस्वामी-श्चरण)।

कमलानुध्यातः सोमदिवाकरण्वयो गो व्रा(ब्रा)

हम्मन-हितैषी श्रीपुरूरवः प्रभृत्यविच्छिद्यमान्

-सौ (पौ) रव-राज वंशोग्निरिव वैपक्ष-कक्ष-

दहनो (भू) श्र्याग्निवर्मा (।) तस्य पुत्रस्तत्पदा

-प्रसादादर्वाप्त-राज्य-महिमा द्युतिमदहित,

पक्षद्यु तिहारो विवस्वानिव द्वितीयः

परम भट्टरक-महाराजाधिर(।) ज-श्री-

द्युतिवर्मा कुशली पर्वकार-राज्ये (ऽ)

स्मद-वंशयानमहाराज-विशेष-नप्रतिमान्य-

दण्डोपरिके-प्रमातर-प्रतिहार-कुमारमाप्य पीलुपतिश्वपति-।

2- ‘विष्णुवर्मन द्वितीय के ताम्रपत्र’ का अरंभिक अंश –

” स्वस्ति (।।) पुरोत्तमाद्-व्र (बृ) ह्मपुरात् सकलभुवन

-भव-भंग-विभागकारिनो (ऽ)नन्त-मूर्तेरनाद्या

-वेद्याचिन्त्यद्भुतोद्भूत-प्रभूत-प्रभावति-शयस्य-

क्षमातल -विपुल-विकट-स्फटा-निकट-प्ररूढ़

मणिगण-किरणारुणित-पाताल-तलस्य(-)धारणि-धारण

-योग्य-धारणा-धार (रिनो)भुजाराजरूपस्य

(स्या) भगवदविरणेश्वर स्वामिनश्चरण-कमलानुध्यातः,

सोमदिवाकर-प्रांशु-वंश-वेश्म-प्रदीपः सर्वप्रजानुग्र (ए)

याभ्युदितप्रभावः परमभट्टारक-महाराजाधिराज श्र्याष्णि (ग्नि) वर्म्मा(।)

तदात्मजस्तत्पाद-प्रसादवाप्त-प्रराज्य-

राज्यक्षपित-महापक्ष-विपक्षकक्ष-द्युतिर्ममहाराजाधिराज श्री द्युतवर्मा(।।)

तन्ननयो (तत्तनयो)नय-विनय-

शौर्य-धैर्य-स्थिर्य-गंभीर्यौदार्य-गुणाधिष्ठित-मूर्ति शक्क्रधर(ः)इव

पेजनामार्तिहरः परमपितृभक्तः

परमभट्टारक-महाराजाधिराज श्री विष्णुवर्मा

समुपचित-कुशल-व (बी)ल-वीर्यः पर्वतकार’

द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र का हिंदी अनुवाद-

” स्वस्ति। धरती पर इंद्र की नगरी के समान ब्रहपुर से।

धरती पर इंद्र की नगरी ब्रह्मपुर से जो संपूर्ण भूमंडल के भार को वहन करने वाले सहस्र प्रशंसकों से युक्त अपरिमित गुण पूर्ण अनंत के आराध्य भगवान वीरणेश्वर स्वामी के चरण-कमलों में लीन सोमसूर्य वंश में उत्पन्न हुए, श्रीपुरवा आदि पौर्वानरेशों के वंशज, गौ और ब्राह्मणों के हितैषी ,शत्रुओं को शुष्क तृणवत दग्घ करने में अग्नि के समान समर्थ थे श्री अग्निवर्मन् उनके पुत्र, उनकी कृपा से राज्यमहिमा को प्राप्त करने वाला द्वितीय दिवाकर के समान, शत्रुओं की द्युतियों का अपमान करने वाले परम भट्टार्क महाराजाधिराज श्री द्युतिवर्मन अपने पर्वताकार राज्य में कुशल से हैं। और अपने भूतपूर्व मनेर नरेशों की प्रतिमूर्ति नक्षत्र है। तथा अपने दण्डधर, प्रमातार, प्रतिहार, कुमारामात्य तथा हस्ति-अश्वशाला।”

तालेश्वर ताम्रपत्रों का विश्लेषण-

इतिहासकार डॉ. शिवप्रसाद डबराल द्वारा रचित ‘उत्तराखंड के अभिलेख एवं मुद्रा’ नामक पुस्तक में प्रकाशित तालेश्वर एवं पांडुकेश्वर ताम्रपत्रों (तथकथित कत्यूरी) के आधार पर तालेश्वर ताम्रपत्रों का विश्लेषण इस प्रकार है-

तालेश्वर ताम्रपत्रों का आरंभ पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों (कार्तिकेयपुर के नरेश, जिसमें इतिहासकार कत्यूरी भी कहते हैं) की तरह ‘स्वस्ति’ से किया गया है। मध्य काल में कुमाऊँ के चन्द्रमा ने भी अपने ताम्रपत्रों में ‘ओम स्वस्ति’ का अर्थ किया, जिसका अर्थ ‘कल्याण हो’ है। तालेश्वर ताम्रपत्रों के नगर उद्घोष, कार्तिकेयपुर में ताम्रपत्रों की भाँति अभिलेखों के पुरातात्विक वाक्यांश दिये गये हैं। पूर्व ताम्रपत्र में नगर उद्घोष ‘ब्रह्मपुर’ है, जिसे इन्द्रनगरी और पुरों में सर्वोत्तम रूप से वर्णित किया गया है। पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों के नगर उद्घोष ‘श्रीकार्तिकेयपुर’ में धूम मची हुई है। ब्रह्मपुर कहाँ था? इस संबंध में भी धार्मिक मान्यता है, जिसमें अलेक्जेंडर कनिंघम का मत सर्वोच्च है। आर्किलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के प्रथम वैज्ञानिक अलेक्जेंडर कनिंघम (1861-1865) ने पश्चिमी रामगंगा के तट वेराटपटन को ब्रह्मपुर के रूप में पहचाना। वैराटपट्टन नामक स्थान विकासखंड चौखुटिया, जिला बस्ती में है। पश्चिमी रामगंगा घाटी में नदी तटवर्ती उच्चतम विस्तृत क्षेत्र चौखुटिया के निकट 'लखनपुर-बैराट' को ही कनिंघम ने ब्रह्मपुर कहा है। बीसवीं शताब्दी में ब्रह्मपुर के पूर्व ताम्रपत्र तालेश्वर नामक गांव से प्राप्त हुआ है, जो चौखुटिया के पश्चिम में गढ़वाल सीमा पर स्थित है। तालेश्वर से प्राप्त ताम्रपत्र कनिंघम के मैट की पुष्टि करता है, जिसके बाद उनकी मृत्यु की जानकारी प्राप्त हुई। चौखुटिया से तालेश्वर गांव की हवाई दूरी 16 किलोमीटर है। ब्रह्मपुर प्राचीन मध्यकालीन हिमाचली क्षेत्र का एक प्रमुख नगर था, जिसका वर्णन चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अपनी यात्रा का विवरण में किया था। इस चीनी यात्री ने ब्रह्मपुर को ''पो-लो-कि-मो'' कहा। यह चीनी यात्री सन् 629 ई. से 643 ई. तक भारत की यात्रा की थी। चीनी यात्री की यात्रा-वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि ब्रह्मपुर की झलक सातवीं शताब्दी में मिलती है। इतिहासकारों में ब्रह्मपुर के पौरव शासकों के कालखंड को शामिल किया गया है। कुछ विद्वान इस राजवंश के कैनन किंगजी हर्ष के पूर्वज और कुछ परविद्या बतलाते हैं। तालेश्वर और राजा हर्ष के मधुवन - बांसुरी वादक और कार्तिकेयपुर तामपत्रों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि पौरव शासक हर्ष (606-647 ई.) के पूर्वज थे।

श्रीपुरवा नामक राजा के वंश अर्थात् पौरव वंश (सोम-दिवाकर वंश) का उल्लेखित तालेश्वर ताम्रपत्रों में किया गया है। राजा हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ट ने सूर्य और चन्द्र नामक दो क्षत्रिय राजवंशों का उल्लेख किया है। संभवतः सोम-दिवाकर का संयोजन मध्य हिमालय में पौरव राजवंश में हुआ। सोम प्रथम का अर्थ है पिता चन्द्रवंशी और माता सूर्यवंशी। पांडुकेश्वर मंदिर से प्राप्त ललित शूरदेव के ताम्रपत्रों में उनके वंश का उल्लेख नहीं है। लेकिन ‘कार्तिकेयपुर’ उद्घोष वाले एक अन्य ताम्रपत्र, जो पांडुक मंदिर से ही प्राप्त है, जिसमें राजा का नाम पद्मदेव दर्शन हुआ है और उनके वंश का स्थान सागर, दिलीप, मांधात्री, भगीरथ आदि सतयुगी राजा बताया गया है।

पौरव ताम्रपत्रों में ‘वीरनेश्वर भगवान’ तथा कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेवताम्रपत्रों में शिव की कृपा से ‘भगवती नंदा’ को कुल देवता के रूप में वर्णित किया गया है। वीरानेश्वर भगवान को धरणी-धरण और भुजंगराज कहा गया है। मूलतः वीरानेश्वर का ही दूसरा नाम ‘शेषनाग’ था। मध्य हिमालय के कई नाग मंदिर पूर्व शासन की पुष्टि करते हैं। नागबेरी या बेदीनाग, वीरान क्षेत्र वर्तमान चौखुटिया शहर के अंदर आता है जिसका एक नाम गनाई भी है जो गणेश मंदिर के अनुसार पड़ा इसके बारे में मैंने पहले ग्रुप में एक लिख डाला था गणेश मंदिर संबंधी इतिहास

यहां से करण प्रयाग 89 किमी,रानीखेत 56 किमी,द्वराहाट 19 की,मी, गैरसैण 34 की,मी,मासी 11 किमी,बद्रिनाथ् धाम 216 किमी,,की दूरी पर स्तिथ है,यहां से इन सभी जगहों के लिए सरल व सुगम मार्ग सुलभ है, मेरे गांव की दूरी मोटर मार्ग से 14 किलोमीटर पैदल 5 किलोमीटर है
सन् 1960 रामनगर बदरीनाथ हाईवे बना जो इसी विराटनगर होते हुए जाता है जहां पर कीचक मारा वहां पर बहुत बड़ा नदी के अंदर एक तालाब है जिसको स्थानीय भाषा में तितिनियां रौ कहते हैं मोटर बना मार्ग बनाते समय एक बड़ा पत्थर मिला जिस पर लिखा था कीचक को किसने मारा फिर आगे लिखा था मैंने मारा मैंने मारा भीमशेन योर पत्थर का शिलालेख मोटर निर्माण मार्ग के भेंट चढ़ गया इसी प्रकार लखनपुर कोर्ट से सन 1960 में ही मोटर मार्ग मेरे गांव के तरफ हो गई पहाड़ी पर उसे स्थान पर असुरकोट जौरासी है और मोटर मार्ग में लखनपुर महल के खंडहर पत्थर के अवशेष मोटर मार्ग के भेंट चढ़ गए ठेकेदार ने उसके पत्थर चुराकर मोटर मार्ग के दीवाल बनाने में प्रयोग कर दिए लोगों में जागरूकता की कमी थी मोटर मार के पास से अभी भी एक गुफा नदी की ओर जाती हैं तथा एक पानी की बावड़ी वर्तमान में भी विद्यमान है जो उसे जमाने के हॉट बाजार के शीर्ष में है,

यह गेवाड घाटी को रंगीली बैराठ घाटी भी कहा जाता है,इसका तहसील व ब्लॉक चखुटिया मे हे,गेवाद् के बीचो बिच रामगँगा नदी बहती है,यह बैराठ घाटी काफी समतल व विस्तृत है जिस कारण यह बहुत उपजाऊ घाटी है,हम कत्युरियो के लिए यह बहुत पवित्र तीर्थ स्थान की तरह है की तरह है, वर्तमान में यहां पर भारत सरकार ने जमीन को समतल देखते हुए एयर फोर्स के लिए एयरपोर्ट बनाने हेतु जमीन का अधिग्रहण कर लिया गया है जिसका विरोध स्थानी लोग कर रहे हैं यह क्षेत्र लगभग 20 किलोमीटर मैदान घटी है और बीच में नदी बहती है तथा घाटी के दोनों तरफ से सुंदर हरे भरे जंगल और गांव ह,
पाली पछम खली में को को राजा!
बुढा राजा सासन्दी को पाट
गोराराई को पाट, सांवलाराई को पाट
नीली चौरी, उझाना को पाट
मानचवाणी कौ घट लगयों
दौराहाट में दौरा मंडल चिणों
खिमसारी हाट में खेल लगयों
रणचुलिहाट में राज रमायो आसन्ती देव
आसन्ती को बासन्ती देव

अजोपिथा, गजोपिथा ,नरपिथा ,प्रथीरजन, प्रथ्वीपाल, सुर्य तपनी बालक राजा धाम देव जय हो

उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास में मध्य हिमालय क्षेत्र के तीन राज्यों स्रुघ्न, गोविषाण और ब्रह्मपुर का विशेष उल्लेख किया गया है। चीनी यात्री ह्वैनसांग के यात्रा विवरण में भी इन तीन राज्यों का उल्लेख किया गया है। चीनी यात्री के यात्रा विवरणानुसार वह स्रुघ्न से मतिपुर, मतिपुर से ब्रह्मपुर तथा ब्रह्मपुर से गोविषाण गया था। स्रुघ्न की पहचान अम्बाला, मतिपुर की हरिद्वार और गोविषाण की पहचान काशीपुर के रूप में हो चुकी है। लेकिन ब्रह्मपुर की पहचान करने में विद्वानों में मतभेद है। यद्यपि सातवीं शताब्दी के भूगोल को समझना और चीनी यात्री ह्वैनसांग के यात्रा विवरण का सटीक विश्लेषण करना कठिन कार्य है। यात्रा विवरण का विश्लेषण भी विद्वानों के तथ्यों में विविधता उत्पन्न करता है। अतः कतिपय इतिहासकारों ने ब्रह्मपुर की पहचान भिन्न-भिन्न स्थानों से की है।

1- ’’एटकिंसन, ओकले तथा राहुल के अनुसार- बाड़ाहाट (उत्तरकाशी)।’’

2- ’’कनिंघम और गुप्ते के अनुसार- लखनपुर वैराटपट्टन।’’

3- ’’सेंट मार्टिन और मुकन्दीलाल के अनुसार- श्रीनगर।’’

4- ’’फूरर के अनुसार- लालढांग के पास पाण्डुवालासोत।’’

5- अन्य- ’’बढ़ापुर, नजीबाबाद।’’

उपरोक्त सभी विद्वानों के मत ’ब्रह्मपुर’ नामक प्राचीन स्थल की पहचान के संबंध में अत्यधिक विरोधाभाषी है। ब्रह्मपुर जनपद के भौगोलिक सीमांकन के अनुसार बाड़ाहाट (उत्तरकाशी नगर) तो ब्रह्मपुर राज्य की अंतः सीमा में ही नहीं था। ह्वैनसांग के यात्रा विवरणानुसर यमुना नदी ‘सु्रघ्न’ जनपद के मध्य में और गंगा नदी पूर्ववर्ती सीमा थी। इस आधार पर विद्वानों ने भागीरथी से काली नदी मध्य पर्वतीय भू-भाग को ‘ब्रह्मपुर’ राज्य के रूप में चिह्नित किया। अतः एटकिंसन, ओकले और राहुल आदि के मत को विद्वानों द्वारा सीमांकित ब्रह्मपुर का भूगोल निरस्त कर देता है।

इसी प्रकार सेंट मार्टिन और मुकन्दीलाल का ब्रह्मपुर ’श्रीनगर’ ऐसा स्थान है, जो भौगोलिक दृष्टि से इस राज्य की परिधि पर स्थित था। इसलिए श्रीनगर राजधानी के लिए उपयुक्त स्थान प्रतीत नहीं होता है। अन्य मतों में एक बढ़ापुर, नजीबाबाद भी विद्वानों द्वारा सीमांकित ब्रह्मपुर के वाह्य क्षेत्र में स्थित है। ब्रह्मपुर की सीमा के भीतर लालढांग के पास पाण्डुवालासोत और लखनपुर (वैराटपट्टन) भी दो महत्वपूर्ण विकल्प हैं, जिनका विश्लेषण आवश्यक है।

चीनी यात्री के विवरणानुसार मतिपुर और स्थाण्वीश्वर की जलवायु समान थी और मतिपुर से गोविषाण की स्थिति दक्षिणपूर्व में लगभग 66 मील दूर थी। इस आधार पर गोविषाण (काशीपुर) और मतिपुर (हरिद्वार) की पहचान स्पष्ट होती है। ह्वैनसांग स्रुघ्न जनपद से 50 मील उत्तर में ब्रह्मपुर राज्य में गया था। अर्थात ब्रह्मपुर के दक्षिण में 50 मील दूर स्रुघ्न जनपद की सीमा थी, जहाँ से ह्वैनसांग ब्रह्मपुर को गये थे। पाण्डुवालासोत को ब्रह्मपुर मान लें तो, हरिद्वार से लालढांग लगभग पैदल मार्ग से मात्र 14 मील ही दूर पूर्व दिशा में स्थित है।

स्रुघ्न जनपद की सीमा से मात्र 14 मील दूरी पर एक शक्तिशाली राज्य ब्रह्मपुर की राजधानी होना संदेहास्पद प्रतीत होता है। जबकि चीनी यात्री ह्वैनसांग के विवरणाधार पर कनिंघम ने ब्रह्मपुर राज्य का घेरा लगभग 666 वर्ग मील निर्धारित किया। पाण्डुवालासोत नामक स्थान एक विशाल जनपद सु्रघ्न के सीमावर्ती क्षेत्र पर था, जो सुरक्षा के दृष्टिकोण से ब्रह्मपुर राज्य की राजधानी के लिए उचित स्थान नहीं हो सकता था। ब्रह्मपुर की पहचान का सर्वाधिक मान्य मत कनिंघम और गुप्ते का है, जिन्होंने पश्चिमी रामगंगा घाटी में स्थित लखनपुर-वैराटपट्टन को ‘ब्रह्मपुर’ कहा।

अलेक्जैंडर कनिंघम भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रथम महानिदेशक सन् 1861 से 1865 ई. तक रहे। इस दौरान उन्होंने तक्षशिला, नालन्दा जैसे प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों का अन्वेषण कार्य अपने निर्देशन में करवाया। उत्तराखण्ड में उन्होंने रामगंगा घाटी में स्थिल वैराटपट्टन के अन्वेषण का कार्य किया। ब्रिटिश शासन काल में यह अन्वेषण स्थल परगना पाली-पछाऊँ में का एक गांव था।

ब्रिटिश कालीन परगना पाली-पछाऊँ के प्राचीन इतिहास के संबंध में बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘गिंवाड़ पट्टी में रामगंगा किनारे एक पुराना नगर टूटा पड़ा है, यहाँ ईंटें भी मिलती हैं। इसका नाम विराटनगरी है। वहीं पर रामगंगा के किनारे कीचकघाट भी है। वहीं पर एक दुर्ग का नाम लखनपुर कोट है। इसको इस समय आसन-वासन-सिंहासन के नाम से पुकारा जाता है।’’ कनिंघम ने पाली-पछाऊँ परगने की पट्टी गिंवाड़ के दो निकटवर्ती स्थलों विराटनगरी और लखनपुर कोट को ‘लखनपुर वैराटपट्टन’ कहा। कुमाऊँ क्षेत्र में गाये जाने वाले एक कुमाउनी लोक-कथा गीत में बैराठ के राजा मालूशाही का उल्लेख भी आता है, जिसे कत्यूरी शासक कहा जाता है।

कत्यूरी शासक आसन्तिदेव और वासन्तिदेव के नाम से लखनपुर कोट को आसन-वासन भी कहा जाता है। ऐतिहासिक तथ्यानुसार आसन्तिदेव कत्यूर घाटी (गोमती घाटी, बागेश्वर) के प्रथम राजा थे, जो जोशीमठ से कत्यूर आये और कत्यूरी कहलाये। कत्यूरी वंशावली के अनुसार आसन्तिदेव के वंश मूल पुरुष सूर्यवंशी ‘शालिवाहन’ थे, जो अयोध्या से उत्तराखण्ड आये थे। कत्यूर घाटी पर अधिकार करने के पश्चात आसन्तिदेव ने अपने पुत्र वासन्तिदेव की सहायता के निकटवर्ती चौखुटिया और द्वाराहाट पर भी अधिकार कर लिया था। कत्यूरी स्थापत्य कला के भग्नावशेषों का एक नगर ‘द्वाराहाट’ भी है, जिसके उत्तर-पश्चिम में ‘कोटलार घाटी’ है, जो चौखुटिया नामक स्थान को द्वाराहाट से संबंध करती है। चौखुटिया में ही ‘कोटलार’ नदी और रामगंगा का संगम है।

वर्तमान में कोटलार घाटी से ही होकर राष्ट्रीय राजमार्ग 109, द्वाराहाट को चौखुटिया से संबद्ध करता है। चौखुटिया से एक सड़क मासी-भिकियासैंण-भतरौजखान होते हुए लखनपुर-रामनगर को जाती है। इस सड़क पर चौखुटिया के निकवर्ती स्थल गणाई, भाटकोट और भगोटी हैं। ‘‘गणाई से करीब दो मील दूरी पर लखनपुर या बैराट है, जो कुमाऊँ के प्राचीन राजाओं की राजधानी मानी जाती है।’’ जहाँ अब मां लख्नेश्वरी मंदिर स्थापित है। ‘‘इस लखनपुर के निकट कलिरौ-हाट नामक बाजार था। अब निशान भी बाकी न रहा, नाम बाकी है।’’

चौखुटिया-रामनगर सड़क पर भागोटी के निकट जहाँ लखनपुर नाम से लख्नेश्वरी मंदिर है, वहीं चौखुटिया के निकटवर्ती वैराठेश्वर महादेव को वैराटपट्टन कह सकते हैं। पश्चिमी रामगंगा के बायें तटवर्ती इन दोनों मंदिरों के मध्य लगभग 5 किलोमीटर की दूरी है। ब्रह्मपुर के स्थान पर लखनपुर और वैराटपट्टन नाम कैसे प्रचलन में आ गया ? कत्यूरी शासक आसन्तिदेव के वंशज कालान्तर में धीरे-धीरे अपने राज्य का विस्तार सम्पूर्ण कुमाऊँ में करने में सफल रहे। विस्तृत राज्य को सुरक्षित रखने हेतु इस सूर्यवंशी राजवंश ने राम के अनुज ‘लखन’ नाम से कुमाऊँ के भिन्न-भिन्न स्थानों पर ‘लखनपुर’ नामक उप राजधानियां स्थापित कीं। रामनगर का लखनपुर, चौखुटिया का लखनुपर, जागेश्वर क्षेत्र का लखनुपर, अस्कोट का लखनुपर और सीमान्त भोट क्षेत्र का लखनपुर इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। कत्यूरी राजा मालूशाही को बैराठ या वैराट का राजा कहा जाता है। इस प्रकार ब्रह्मपुर का नाम परिवर्तन कत्यूरी कालखण्ड में हुआ।

अलेक्जैंडर कनिंघम ने लखनपुर वैराटपट्टन की पहचान ब्रह्मपुर से की, जो सही तथ्य प्रतीत होता है। इसी लखनपुर वैराटपट्टन के पश्चिम में स्थित देघाट के निकट तालेश्वर गांव से ही सन् 1915 ई. में ब्रह्मपुर के महान राजवंश ‘पौरव’ वंश के दो शासकों का एक-एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ। इन ताम्रपत्रों में राज्य वर्ष तिथि अंकित है। अर्थात राजा के सिंहासन पर विराजमान होने के वर्ष से ताम्रपत्र निर्गत किये जाने वाले वर्ष की गणना। तालेश्वर ताम्रपत्रों में राज्य का नाम ‘पर्वताकार’ तथा राजधानी ब्रह्मपुर उत्कीर्ण है, जो सर्वश्रेष्ठ नगरी थी। चौखुटिया क्षेत्र के निकटवर्ती तालेश्वर गांव से प्राप्त ब्रह्मपुर नरेशों के ताम्रपत्र, कनिंघम (1814-1893) के अभ्युक्ति की पुष्टि करते हैं। अतः प्राचीन ब्रह्मपुर को वर्तमान चौखुटिया से संबंध कर सकते हैं।

डॉ. शिवप्रसाद डबराल ‘ह्वैनसांग’ के यात्रा विवरणानुसार तर्क प्रस्तुत करते हैं कि यात्री मतिपुर (हरिद्वार) से ब्रह्मपुर, ब्रह्मपुर से मतिपुर और मतिपुर से गोविषाण (काशीपुर) की यात्रा पर गया। अतः ब्रह्मपुर को लखनपुर वैराटपट्टन (चौखुटिया) या लखनपुर (रामनगर) माने तो यात्री इस स्थान से सीधे गोविषाण क्यों नहीं गया ? वापस हरिद्वार आकर गोविषाण की यात्रा को क्यों गया ? इस आधार पर डॉ. शिवप्रसाद डबराल ब्रह्मपुर के लखनपुर वैराटपट्टन के मत पर संदेह करते हैं।

हरिद्वार प्राचीन काल से प्रसिद्ध तीर्थ स्थल रहा था। संभवतः ह्वैनसांग के ब्रह्मपुर यात्रा के दौरान हरिद्वार में कोई महत्वपूर्ण उत्सव/पर्व हो, जिसके कारण ह्वैनसांग गोविषाण के स्थान पर पुनः वापस हरिद्वार गया और उसके पश्चात गोविषाण। संभवतः उस वर्ष हरिद्वार में कुम्भ पर्व आयोजित किया गया हो।

ब्रह्मपुर (पौरव वंश) के ताम्रपत्रों की प्राप्ति चौखुटिया के निकटवर्ती गांव तालेश्वर से और ह्वैनसांग के यात्रा विवरण तथा अलेक्जैंडर कनिंघम के मत के आधार पर कह सकते हैं कि प्राचीन ब्रह्मपुर राज्य ही आज का चौखुटिया है, जो पश्चिमी रामगंगा घाटी का प्रमुख कस्बा है। ‘चौखुटिया’ का शाब्दिक अर्थ ‘चार-खुट’, जहाँ कुमाउनी में ‘खुट’ का अर्थ ‘पद’ (पैर) होता है। चौखुटिया की भौगोलिक स्थिति देखें तो यह पर्वतीय स्थल चारों दिशाओं से नदी घाटियों से संबद्ध है।
तालेश्वर ताम्रपत्र और ब्रह्मपुर का इतिहाससातवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास को देखें तो, उत्तर भारत पर कैनन के शक्तिशाली राजा हर्ष का शासन था। वह उत्तर भारत का सर्वमान्य राजा था। मध्य हिमालय के ब्रह्मपुर राज्य में सातवीं शताब्दी के क्वार्टर से ही हर्ष का उत्तरदायित्व चुकाया गया था। इस तथ्य की पुष्टि हर्ष के साहित्यिक कवि बाणभट्ट करते हैं, जिन्होंने 'हर्षचरित' नामक काव्य संग्रह की रचना की थी। मध्य हिमालय के राज्यों पर हर्ष के नेतृत्व में कैनन का जो प्रभाव पड़ा, उसकी झलक लहरों तक दिखलाई रही। हर्ष के प्रसिद्ध कालों के प्रसिद्ध शासकों यशोवर्मन (आठवीं शताब्दी) और जयचंद गढ़वाल (बारहवीं शताब्दी) का भी प्रभाव मध्य हिमालय पर पड़ता है। इसी कारण से उत्तराखंड के विभिन्न इतिहासकार सातवीं से बारहवीं शताब्दी तक कुमाऊं के इतिहास को प्राचीन काल से देखते हैं। विशेषतः कुमाऊँ के 'चंद' राजवंश। सातवीं शताब्दी के आस-पास ब्रह्मपुर जिलाएक पर्वताकार राज्य था। इस जिले की उत्तरी सीमा पर महाहिमालय की मंजिल के लिए सुवर्णगोत्र नामक देश था। इस तथ्य की पुष्टि हर्षचरित्र नामक पुस्तक से होती है। हर्ष विजयों के संबंध में हर्षचरित में एक विशेष श्लेषयुक्त पद उल्लेखनीय है, जिसमें बाण का सबसे छोटा भाई श्यामल, हर्ष विषयक कुछ सहजता प्रदान करता है। इस पद में कुल नौ वाक्य हैं। नौ वाक्यों के श्लेषपद का आठवां वाक्य हिमालय से संबंधित है, जो इस प्रकार है- ''परमेश्वर ने हिमाचल प्रदेश के दुर्गम प्रदेश के शासक से प्राप्त किया।'' यहां पर केन के राजा हर्ष को भगवान ने कहा है। सातवीं शताब्दी में कैनाल राज्य के भूतपूर्व हिमाचल प्रदेश दुर्गम प्रदेश नेपाल से कश्मीर तक जाना था। मूलतः हर्षचरित के श्लेषयुक्त श्लेष वाक्य में आए प्रदेश को ठीक से देखने में भी समानता है-

1- बुलर और राधाकुमुद मुखर्जी का मत हिमाचल प्रदेश-नेपाल।

2- गौरी शंकर चटर्जी का मत- ब्रह्मपुर।

3- आर.एस.सी. त्रि का मत- पहाड़ी राजकुल।

4- लेवी का मत- तुर्क प्रदेश।

बुलर और राधाकुमुद मुकर्जी का मत कान की भौगोलिक सीमा के आधार पर होता है। जबकि आर. एस. त्रिपहाड़ी राजकुल अर्थात हिमाचल प्रदेश के भू-भाग को हिमाचल प्रदेश के दक्षिण में आकर्षित करते हैं। लेवी का मत तुर्क प्रदेश (कन्नौज राज्य से सदूर उत्तर-पश्चिमी प्रदेश) नहीं था, जो कि कनौज राज्य की सीमा से बहुत दूर था। प्राचीन सिद्धांतों पर ध्यान करें तो हिमालय के पार कैलास-मानसरोवर यात्रा प्राचीन काल से चली आ रही है। अर्थात् सुवर्णगोत्र देश और कैनेडियन राज्य के मध्य कैलास-मानसरोवर की धार्मिक यात्रा से एक संबंध स्थापित हुआ था। भोट व्यापार दूसरा कारण हो सकता है। गौरी शंकर चटर्जी का मत है कि ब्रह्मपुर उत्तर में सुवर्णगोत्र देश हिमाच्छादित विशाल पर्वतों में स्थित था, जहाँ अफ़सर का राज्य था। गौरी शंकर चटर्जी सुवर्णगोत्र देश (तिब्बत) के आधार पर हिमाच्छादित दुर्गम प्रदेश के दक्षिण में ब्रह्मपुर राज्य को प्रतिष्ठित करते हैं।

मध्य हिमालय के प्राचीन राज्य ‘ब्रह्मपुर’ के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तालेश्वर ताम्रपत्रों से प्राप्त होते हैं। तालेश्वर गांव से ये दोनों ताम्रपत्र बीसवीं शताब्दी के छठे दशक में प्राप्त हुए थे। ये दो ताम्रपत्र उत्तराखंड के इतिहास से एक और राजवंश ‘पौरव’ से जुड़े हुए हैं। इस राजवंश की राजधानी ‘ब्रह्मपुर’ थी और राज्य का नाम ‘पर्वताकर’ था। इस राजवंश के पांच शासकों के नाम प्रचलित हैं- विष्णुवर्म, वृषभवर्म, अग्निवर्म, द्युतिवर्म और विष्णुवर्म द्वितीय। इनमें से अंतिम दो पौरव शासकों के ताम्रपत्र तालेश्वर गांव, तहसील स्याल्दे, जनपद से प्राप्त हुए हैं। पौरव वंश के चौथे राजा द्युतिवर्मा का राज्य वर्ष 5 और पंचम राजा विन्नुवर्मा का 28 राज्य वर्ष में निर्गत ताम्रपत्र इस प्राचीन राज्य के आदेश और कर व्यवस्था के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं।

ब्रह्मपुर के ताम्रपत्र-

1- ‘द्युतिवर्म के ताम्रपत्र’ का आरंभिक अंश-

” स्वस्ति (।।) पुरंदरपुरप्रतिमाद्-वृ(ब्र)ह्मपुरात्

सकल जगन्मूलोर्बविचक्क-महाभार-वहन (गुण-वमन-फण-सहस्रान्त)-

मुदत्तरकर्न्दरभगवद्-व ( i) र (नेश्वरस्वामी-श्चरण)।

कमलानुध्यातः सोमदिवाकरण्वयो गो व्रा(ब्रा)

हम्मन-हितैषी श्रीपुरूरवः प्रभृत्यविच्छिद्यमान्

-सौ (पौ) रव-राज वंशोग्निरिव वैपक्ष-कक्ष-

दहनो (भू) श्र्याग्निवर्मा (।) तस्य पुत्रस्तत्पदा

-प्रसादादर्वाप्त-राज्य-महिमा द्युतिमदहित,

पक्षद्यु तिहारो विवस्वानिव द्वितीयः

परम भट्टरक-महाराजाधिर(।) ज-श्री-

द्युतिवर्मा कुशली पर्वकार-राज्ये (ऽ)

स्मद-वंशयानमहाराज-विशेष-नप्रतिमान्य-

दण्डोपरिके-प्रमातर-प्रतिहार-कुमारमाप्य पीलुपतिश्वपति-।

2- ‘विष्णुवर्मन द्वितीय के ताम्रपत्र’ का अरंभिक अंश –

” स्वस्ति (।।) पुरोत्तमाद्-व्र (बृ) ह्मपुरात् सकलभुवन

-भव-भंग-विभागकारिनो (ऽ)नन्त-मूर्तेरनाद्या

-वेद्याचिन्त्यद्भुतोद्भूत-प्रभूत-प्रभावति-शयस्य-

क्षमातल -विपुल-विकट-स्फटा-निकट-प्ररूढ़

मणिगण-किरणारुणित-पाताल-तलस्य(-)धारणि-धारण

-योग्य-धारणा-धार (रिनो)भुजाराजरूपस्य

(स्या) भगवदविरणेश्वर स्वामिनश्चरण-कमलानुध्यातः,

सोमदिवाकर-प्रांशु-वंश-वेश्म-प्रदीपः सर्वप्रजानुग्र (ए)

याभ्युदितप्रभावः परमभट्टारक-महाराजाधिराज श्र्याष्णि (ग्नि) वर्म्मा(।)

तदात्मजस्तत्पाद-प्रसादवाप्त-प्रराज्य-

राज्यक्षपित-महापक्ष-विपक्षकक्ष-द्युतिर्ममहाराजाधिराज श्री द्युतवर्मा(।।)

तन्ननयो (तत्तनयो)नय-विनय-

शौर्य-धैर्य-स्थिर्य-गंभीर्यौदार्य-गुणाधिष्ठित-मूर्ति शक्क्रधर(ः)इव

पेजनामार्तिहरः परमपितृभक्तः

परमभट्टारक-महाराजाधिराज श्री विष्णुवर्मा

समुपचित-कुशल-व (बी)ल-वीर्यः पर्वतकार’

द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र का हिंदी अनुवाद-

” स्वस्ति। धरती पर इंद्र की नगरी के समान ब्रहपुर से।

धरती पर इंद्र की नगरी ब्रह्मपुर से जो संपूर्ण भूमंडल के भार को वहन करने वाले सहस्र प्रशंसकों से युक्त अपरिमित गुण पूर्ण अनंत के आराध्य भगवान वीरणेश्वर स्वामी के चरण-कमलों में लीन सोमसूर्य वंश में उत्पन्न हुए, श्रीपुरवा आदि पौर्वानरेशों के वंशज, गौ और ब्राह्मणों के हितैषी ,शत्रुओं को शुष्क तृणवत दग्घ करने में अग्नि के समान समर्थ थे श्री अग्निवर्मन् उनके पुत्र, उनकी कृपा से राज्यमहिमा को प्राप्त करने वाला द्वितीय दिवाकर के समान, शत्रुओं की द्युतियों का अपमान करने वाले परम भट्टार्क महाराजाधिराज श्री द्युतिवर्मन अपने पर्वताकार राज्य में कुशल से हैं। और अपने भूतपूर्व मनेर नरेशों की प्रतिमूर्ति नक्षत्र है। तथा अपने दण्डधर, प्रमातार, प्रतिहार, कुमारामात्य तथा हस्ति-अश्वशाला।”

तालेश्वर ताम्रपत्रों का विश्लेषण-

इतिहासकार डॉ. शिवप्रसाद डबराल द्वारा रचित ‘उत्तराखंड के अभिलेख एवं मुद्रा’ नामक पुस्तक में प्रकाशित तालेश्वर एवं पांडुकेश्वर ताम्रपत्रों (तथकथित कत्यूरी) के आधार पर तालेश्वर ताम्रपत्रों का विश्लेषण इस प्रकार है-

तालेश्वर ताम्रपत्रों का आरंभ पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों (कार्तिकेयपुर के नरेश, जिसमें इतिहासकार कत्यूरी भी कहते हैं) की तरह ‘स्वस्ति’ से किया गया है। मध्य काल में कुमाऊँ के चन्द्रमा ने भी अपने ताम्रपत्रों में ‘ओम स्वस्ति’ का अर्थ किया, जिसका अर्थ ‘कल्याण हो’ है। तालेश्वर ताम्रपत्रों के नगर उद्घोष, कार्तिकेयपुर में ताम्रपत्रों की भाँति अभिलेखों के पुरातात्विक वाक्यांश दिये गये हैं। पूर्व ताम्रपत्र में नगर उद्घोष ‘ब्रह्मपुर’ है, जिसे इन्द्रनगरी और पुरों में सर्वोत्तम रूप से वर्णित किया गया है। पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों के नगर उद्घोष ‘श्रीकार्तिकेयपुर’ में धूम मची हुई है। ब्रह्मपुर कहाँ था? इस संबंध में भी धार्मिक मान्यता है, जिसमें अलेक्जेंडर कनिंघम का मत सर्वोच्च है। आर्किलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के प्रथम वैज्ञानिक अलेक्जेंडर कनिंघम (1861-1865) ने पश्चिमी रामगंगा के तट वेराटपटन को ब्रह्मपुर के रूप में पहचाना। वैराटपट्टन नामक स्थान विकासखंड चौखुटिया, जिला बस्ती में है। पश्चिमी रामगंगा घाटी में नदी तटवर्ती उच्चतम विस्तृत क्षेत्र चौखुटिया के निकट 'लखनपुर-बैराट' को ही कनिंघम ने ब्रह्मपुर कहा है। बीसवीं शताब्दी में ब्रह्मपुर के पूर्व ताम्रपत्र तालेश्वर नामक गांव से प्राप्त हुआ है, जो चौखुटिया के पश्चिम में गढ़वाल सीमा पर स्थित है। तालेश्वर से प्राप्त ताम्रपत्र कनिंघम के मैट की पुष्टि करता है, जिसके बाद उनकी मृत्यु की जानकारी प्राप्त हुई। चौखुटिया से तालेश्वर गांव की हवाई दूरी 16 किलोमीटर है। ब्रह्मपुर प्राचीन मध्यकालीन हिमाचली क्षेत्र का एक प्रमुख नगर था, जिसका वर्णन चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अपनी यात्रा का विवरण में किया था। इस चीनी यात्री ने ब्रह्मपुर को ''पो-लो-कि-मो'' कहा। यह चीनी यात्री सन् 629 ई. से 643 ई. तक भारत की यात्रा की थी। चीनी यात्री की यात्रा-वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि ब्रह्मपुर की झलक सातवीं शताब्दी में मिलती है। इतिहासकारों में ब्रह्मपुर के पौरव शासकों के कालखंड को शामिल किया गया है। कुछ विद्वान इस राजवंश के कैनन किंगजी हर्ष के पूर्वज और कुछ परविद्या बतलाते हैं। तालेश्वर और राजा हर्ष के मधुवन - बांसुरी वादक और कार्तिकेयपुर तामपत्रों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि पौरव शासक हर्ष (606-647 ई.) के पूर्वज थे।

श्रीपुरवा नामक राजा के वंश अर्थात् पौरव वंश (सोम-दिवाकर वंश) का उल्लेखित तालेश्वर ताम्रपत्रों में किया गया है। राजा हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ट ने सूर्य और चन्द्र नामक दो क्षत्रिय राजवंशों का उल्लेख किया है। संभवतः सोम-दिवाकर का संयोजन मध्य हिमालय में पौरव राजवंश में हुआ। सोम प्रथम का अर्थ है पिता चन्द्रवंशी और माता सूर्यवंशी। पांडुकेश्वर मंदिर से प्राप्त ललित शूरदेव के ताम्रपत्रों में उनके वंश का उल्लेख नहीं है। लेकिन ‘कार्तिकेयपुर’ उद्घोष वाले एक अन्य ताम्रपत्र, जो पांडुक मंदिर से ही प्राप्त है, जिसमें राजा का नाम पद्मदेव दर्शन हुआ है और उनके वंश का स्थान सागर, दिलीप, मांधात्री, भगीरथ आदि सतयुगी राजा बताया गया है।

पौरव ताम्रपत्रों में ‘वीरनेश्वर भगवान’ तथा कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेवताम्रपत्रों में शिव की कृपा से ‘भगवती नंदा’ को कुल देवता के रूप में वर्णित किया गया है। वीरानेश्वर भगवान को धरणी-धरण और भुजंगराज कहा गया है। मूलतः वीरानेश्वर का ही दूसरा नाम ‘शेषनाग’ था। मध्य हिमालय के कई नाग मंदिर पूर्व शासन की पुष्टि करते हैं। नागबेरी या बेदीनाग, वीरानेश्वर का अपभ्रंश होता है। नागबेरी तहसील का भूतपूर्व गांव प्राचीन काल से ही पाताल गुला के लिए प्रसिद्ध है। इस गुला के द्वार पर फेन में फैली ये नाग की प्राकृत मूर्ति है, जिसे शेषनाग कहा जाता है। नागबेरी के जंगलों में पिंगलनाग, वासुकिनाग, धौलीनाग, फणीनाग, हरिनाग आदि प्रसिद्ध नाग मंदिर हैं, जो स्थानीय क्षेत्र के इष्ट देवता के रूप में स्थापित हैं। गढ़वाली हिमालय भी नाग चित्र के लिए प्रसिद्ध है। कुमाऊं में नाकुरी (तहसील दुग नाकुरी, बागेश्वर) तथा गढ़वाल में नागपुर नामक स्थान वीरणेश्वर भक्त ‘पौरव वंश’ के सम्मिलित क्षेत्र की पुष्टि करते हैं।तालेश्वर से प्राप्त द्युतिवर्मा और विष्णुवर्मा के ताम्रपत्र में 'कुशली' शब्द का प्रयोग ताम्रपत्र निर्गत करने वाले राजा के नाम और राज्य के नाम के मध्य में किया गया है। जैसे कि-''परम भट्टार्क, महाराजाधिराज श्री द्युतिवर्मा कुशल पर्वताकार राज्ये।'' इसी प्रकार विष्णुवर्मा के ताम्रपत्र में उनका नाम और पर्वताकार राज्य के मध्य में 'कुशली' शब्द दिया गया है। कार्तिकेयपुर ताम्रपत्रों में इसी प्रकार से ' कुशल' शब्द का प्रयोग किया गया है, लेकिन ताम्रपत्रों में 'राज्य' के स्थान पर 'विषय' का उल्लेख किया गया है। कुशली शब्द का शाब्दिक अर्थ है- अच्छे हैं या ठीक-ठाक हैं। 'विषय' को 'जनपद' का उपनाम दिया गया है। 'राज्य' शब्द राजा द्वारा शासित प्रदेशों के लिए नियुक्त किया जाता था। ताल ताम्रपत्रों में राज्य रत्नेश्वर के निवास क्रम में राजा के द्वितीय उपरिक का उल्लेख है। गुप्त काल में जंक्शन को देश, अवनी या भुक्ति कहा जाता था। भुक्ति के शासक को 'उपरिक' कहा जाता था।'' मूल रूप से ब्रह्मपुर राज्य भुक्तियों (प्रान्तानं) में विभाजित था और उनके राज्य में भुक्ति-शासक (उपरिक) को सर्वोच्च राज्य के अधिकारी का सम्मान प्राप्त था।

पौरव ताम्रपत्रों में शासकों को ‘गौ-ब्राह्मण हितैषी’ के रूप में वर्णित किया गया है और उन्होंने केवल ‘परम भट्टारक-महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी। भट्टार्क का अर्थ- सूर्य, राजा और विशेष अर्थ- पूज्य और उद्गम होता है। मूलतः परम भट्टार्क का अर्थ- परम पूजनीय। आज भी पत्र में परम पूजनीय शब्द का प्रयोग लाया गया है, जो सम्मान सूचक विशेष शब्द है। जबकि पाण्डुकेश्वर/कार्तिकेयपुर नरेशों ने ‘परमब्रह्मण’ के साथ-साथ ‘परमेश्वर’, ‘परममहेश्वर’, ‘परम भट्टार्क महाराजाधिराज’ आदि उपाधियां धारण की थीं। संभावित कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव और भूदेवदेव ने मध्य हिमालय में बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव के प्रत्युतर ‘परमब्रह्मण’ की उपाधि धारण की। जबकि इन राजाओं में भगवान (शिव) या परममहेश्वर (शिव) की डिग्री धारण करना स्थानीय प्रभाव (किरात/शिव) प्रकट करता है। इसलिए पुराण में शिवत्व के प्रभाव के कारण गढ़वाल को केदारखंड और कुमाऊं को मानसखंड कहा गया है।

पांडुक मंदिर से प्राप्त ताम्रपत्र में कत्युरी राजा का नाम पद्मदेव दर्शन हुआ है वंश के स्थान पर सागर ,दिलीप, मांधात्री ,राजा भागीरथ, आदि सतयुगी राजा बताया गया है, इससे साफ संकेत मिलते हैं यह लोग सूर्यवंशी राजा थे,


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