
रुद्रपुर,उत्तराखंड के वन विभाग में मियावाकी तकनीक से पौधरोपण के नाम पर जो खुलासे हुए हैं, वे न केवल चिंताजनक हैं, बल्कि यह भी स्पष्ट करते हैं कि इस राज्य में हरियाली का सपना भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ता जा रहा है। मुख्य वन संरक्षक (कार्ययोजना) संजीव चतुर्वेदी द्वारा उजागर किए गए तथ्यों ने प्रदेश के पर्यावरणीय और प्रशासनिक तंत्र की पारदर्शिता पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं।


एक ही तकनीक, दस गुना खर्च – घोटाले की बू?देहरादून जिले के झाझरा क्षेत्र में मियावाकी पद्धति से पौधरोपण के लिए 52.40 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर का प्रस्ताव बनाया गया, जबकि इसी तकनीक से 2020 में कालसी में मात्र 11.86 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर खर्च आया था। सबसे चौंकाने वाली बात यह रही कि वही पौधे जो कालसी में ₹10 प्रति पौधे की दर से लगाए गए थे, झाझरा में ₹100 प्रति पौधा के हिसाब से दिखाए गए। एक ही विभाग, एक ही राज्य, एक जैसी तकनीक, फिर यह मूल्य अंतर क्यों? क्या यह केवल एक भूल है या सुनियोजित घोटाले का हिस्सा?
तकनीकी मानकों की अनदेखी और नियमों की धज्जियां?मियावाकी तकनीक में स्थानीय प्रजातियों की अधिक घनत्व में रोपाई की जाती है, जिससे कम समय में प्राकृतिक जंगल तैयार हो सके। लेकिन मसूरी वन प्रभाग के प्रस्ताव में प्रति वर्ग मीटर केवल 4–6 पौधों की योजना बनाई गई, जो मियावाकी के मूल सिद्धांतों का सीधा उल्लंघन है। ऐसे में यह स्पष्ट हो जाता है कि विभाग ने न तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया, न ही जनधन के उपयोग में ईमानदारी दिखाई।
चतुर्वेदी ने पत्र में यह भी स्पष्ट किया कि बिना पायलट प्रोजेक्ट के ऐसे बड़े प्रस्ताव भेजना नियमों के खिलाफ है। बावजूद इसके मसूरी और देहरादून दोनों जगह नियमों को दरकिनार कर करोड़ों रुपये की योजनाएं बनाई गईं। यह न केवल प्रशासनिक अराजकता है, बल्कि इसमें राजनीतिक संरक्षण या मिलीभगत की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
भारी-भरकम खर्च और संदिग्ध मद
गड्ढा भरने का खर्च एक जगह ₹0.90 प्रति पौधा था, दूसरी जगह ₹9 से ₹12 प्रति पौधा दिखाया गया। फेंसिंग के लिए ₹1.57 लाख प्रति हेक्टेयर का प्रस्ताव आया, जो औसत से कहीं अधिक है। आईफोन, लैपटॉप और फ्रिज जैसी गैर-जरूरी वस्तुओं की खरीद वन संरक्षण निधि से की गई – यह सीधा-सीधा वित्तीय दुरुपयोग है।
हरियाली के नाम पर भ्रष्टाचार का जंगल?इन मामलों में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या उत्तराखंड में हरियाली की योजनाएं सिर्फ टेंडर, कमीशन और बिल पास कराने का जरिया बन गई हैं? क्या वास्तव में पर्यावरण को बचाने के नाम पर केवल बिल भरवाए जा रहे हैं और कागजों पर हरियाली उगाई जा रही है?
यह मामला केवल भ्रष्टाचार का नहीं, बल्कि विश्वासघात का भी है – जनता के साथ, पर्यावरण के साथ और उन ईमानदार अधिकारियों के साथ जो सच उजागर करने का साहस रखते हैं।
अनुपालन नहीं, अपवित्रता की परंपरा
वन विभाग के पास खुद की पौधशालाएं होते हुए भी बाहर से पौधों की आपूर्ति के प्रस्ताव देना, तकनीकी रूप से भी संदेहास्पद है और नैतिक रूप से भी। इससे यह संदेह और गहराता है कि पूरा तंत्र ‘मिलीभगत से बजट उड़ाने’ के उद्देश्य से सक्रिय है।
जनता को चाहिए जवाबदेही, सिर्फ जांच नहीं?सामाजिक कार्यकर्ता अनूप नौटियाल का यह कथन पूरी तस्वीर बयां करता है – “भारी लागत अंतर को देखते हुए निष्पक्ष जांच अनिवार्य है और दोषियों पर कठोर कार्रवाई होनी चाहिए।” लेकिन सवाल ये है कि क्या उत्तराखंड की नौकरशाही और राजनीति में वह इच्छाशक्ति है, जो इस लूट पर अंकुश लगा सके?
मुख्य वन संरक्षक संजीव चतुर्वेदी का पत्र केवल एक चेतावनी नहीं, बल्कि प्रशासनिक ईमानदारी की अंतिम पुकार है। यदि ऐसे मामलों में गहराई से जांच नहीं हुई, तो आने वाले वर्षों में उत्तराखंड की हरियाली केवल सरकारी फाइलों और घोटालों की कहानियों तक सीमित रह जाएगी।
पौधरोपण नहीं, भ्रष्टाचार उगा रहे अफसर?उत्तराखंड का वन विभाग आज दोराहे पर खड़ा है – एक तरफ पर्यावरण संरक्षण की पवित्र जिम्मेदारी, दूसरी तरफ भ्रष्टाचार की बेशर्म संस्कृति। यदि सरकार और विभाग इस पर मौन रहे, तो यह संकेत होगा कि ‘हरियाली के नाम पर हरामखोरी’ अब इस प्रदेश की सरकारी नीति बन चुकी है।
जनता को जागना होगा, मीडिया को पूछना होगा, और न्यायपालिका को सक्रिय होना होगा – तभी शायद मियावाकी तकनीक से जंगल नहीं, न्याय उग सकेगा।
लेखक: अवतार सिंह बिष्ट
संपादक – हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स / शैल ग्लोबल टाइम्स
