कल्याण की राह पर उत्तराखंड: संकल्प, समर्पण और सजगता की आवश्यकता लेखक: अवतार सिंह बिष्ट

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रूद्रपुर, 19 जून 2025 को उत्तराखण्ड गौ सेवा आयोग के अध्यक्ष डॉ. पं. राजेन्द्र प्रसाद अणथ्वाल द्वारा आयोजित समीक्षा बैठक में जनपद ऊधम सिंह नगर में निराश्रित गौवंश की स्थिति पर गहन चिंतन और बहुआयामी दिशा-निर्देश प्रस्तुत किए गए। यह बैठक मात्र एक सरकारी औपचारिकता नहीं थी, बल्कि एक गंभीर संकेत थी कि उत्तराखण्ड सरकार अब आवारा पशुओं की समस्या को हल्के में नहीं ले रही है।

डॉ. अणथ्वाल की चेतावनी कि “जो गोवंश को आवारा छोड़ते हैं, उन पर अर्थदण्ड लगाया जाए” एक साहसिक निर्णय है, जो वर्षों से चली आ रही लापरवाही और संवेदनहीनता पर अंकुश लगाने की मंशा जाहिर करता है। पशु मालिकों को अब यह समझना होगा कि पशुओं को भगवान समझने की भावना सिर्फ तीज-त्योहारों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि उनके भरण-पोषण और सुरक्षा की जिम्मेदारी भी निभानी होगी।

पशु पंजीकरण की अनिवार्यता, बीमा योजना से जोड़ने की पहल, गौशालाओं के निर्माण को प्राथमिकता देना और विशेष रूप से रात्रिकालीन दुर्घटनाओं से बचाव के लिए रेडियम रिफ्लेक्टर कॉलर लगाने की सलाह प्रशासन की दूरदृष्टि को दर्शाती है। यह तकनीकी समाधान केवल गौवंशों की ही नहीं, मानव जीवन की भी रक्षा करेगा।

डॉ. अणथ्वाल द्वारा बॉर्डर क्षेत्रों में गोकशी की घटनाओं पर चिंता जताते हुए पुलिस और प्रशासन को सख्ती से कार्य करने के निर्देश देना न केवल प्रशंसनीय है, बल्कि यह जमीनी हकीकत की पहचान भी दर्शाता है। उत्तर प्रदेश की सीमाओं से सटे इस क्षेत्र में अवैध गतिविधियों की आशंका हमेशा बनी रहती है, ऐसे में सीमावर्ती सत्यापन और पशु मेलों पर प्रतिबंध उचित और आवश्यक कदम है।

बैठक में मुख्य पशु चिकित्साधिकारी डॉ. आशुतोष जोशी ने जनपद में मौजूद लगभग 8 हजार गौवंश और 5 संचालित गौशालाओं की स्थिति का आंकलन प्रस्तुत किया। यह आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखण्ड में गौ सेवा केवल भावनात्मक विषय नहीं, बल्कि प्रबंधन और नीति निर्धारण का भी विषय बन चुका है। स्थानीय निकायों द्वारा 8 नई गौशालाओं का प्रस्ताव, और खटीमा, सितारगंज व रुद्रपुर के लिए जिला माइनिंग फंड से जारी की गई करोड़ों की धनराशि बताती है कि अब केवल भाषण नहीं, क्रियान्वयन की भी शुरुआत हो चुकी है।

गौरतलब है कि गोसेवकों और गौशाला संचालकों द्वारा रखी गई मांगें, जैसे गोबर गैस संयंत्र, सोलर रूफटॉप यूनिट, टैगिंग नीति में बदलाव, बीमा योजनाएं और पंतनगर विश्वविद्यालय में इन्फर्मरी की स्थापना, न केवल व्यावहारिक हैं बल्कि आत्मनिर्भर भारत के ग्रामीण संस्करण का प्रारूप प्रस्तुत करती हैं। यदि इन प्रस्तावों को गंभीरता से लागू किया जाए, तो उत्तराखण्ड देश के अन्य राज्यों के लिए आदर्श गौ कल्याण मॉडल बन सकता है।

परंतु यह भी ध्यान देना होगा कि केवल योजनाएं बनाना और धनराशि स्वीकृत कर देना पर्याप्त नहीं है। जमीन पर उनकी प्रभावी निगरानी और पारदर्शी क्रियान्वयन सुनिश्चित करना सबसे बड़ी चुनौती है। पहले भी गौ कल्याण योजनाएं भ्रष्टाचार और लापरवाही की भेंट चढ़ती रही हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि आयोग की अनुशंसा पर निगरानी समितियों का गठन हो, जिनमें समाजसेवियों, पत्रकारों, पशु चिकित्सकों और स्थानीय प्रशासन के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाए।

इसके साथ ही, जनजागरूकता भी समान रूप से आवश्यक है। आमजन को यह समझाने की आवश्यकता है कि गौवंश केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं, बल्कि जैविक खाद, दुग्ध उत्पादन, और कृषि-आधारित जीवनशैली का आधार भी हैं। यदि हम गौ माता को पूजा योग्य मानते हैं तो उनका सड़कों पर दम तोड़ना हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना है।

समाप्त करते हुए यह कहा जा सकता है कि डॉ. अणथ्वाल की अध्यक्षता में हुई यह समीक्षा बैठक उत्तराखण्ड में गौ सेवा को नई दिशा देने वाली साबित हो सकती है, बशर्ते इसे कागजों तक सीमित न रखा जाए। यह समय है जब सरकार, प्रशासन, समाज और स्वयंसेवी संगठन मिलकर “निराश्रित गौ कल्याण” को केवल दया भाव नहीं, बल्कि नीति और दायित्व का विषय मानें।


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