चार साल की धामी सरकार – वादों, उपलब्धियों और अधूरी अपेक्षाओं के बीच उत्तराखंड की राह

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रुद्रपुर,उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अपने कार्यकाल के चार साल पूरे कर लिए। वे नारायण दत्त तिवारी के बाद राज्य के ऐसे दूसरे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने लगातार चार साल सत्ता में रहकर यह मील का पत्थर छुआ। धामी के लिए यह निस्संदेह व्यक्तिगत उपलब्धि है — एक साधारण कार्यकर्ता से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक का उनका सफर प्रेरक कहानी है। लेकिन सवाल यह है कि क्या उत्तराखंड के लोग भी उतने ही संतुष्ट और आत्मविश्वास से भरे हुए हैं, जितने मुख्यमंत्री स्वयं नजर आते हैं?

धामी सरकार अपनी उपलब्धियों की फेहरिस्त गर्व से गिनाती है — समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की शुरुआत, नकल विरोधी कानून, भर्ती परीक्षाओं में पारदर्शिता, अवैध धर्मांतरण और अतिक्रमण पर कार्रवाई, वृद्धावस्था पेंशन और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के मानदेय में वृद्धि, बागवानी को प्रोत्साहन, महिला आरक्षण, और केंद्र से परियोजनाओं के लिए सहयोग। इन प्रयासों को नकारा नहीं जा सकता। खासकर यूसीसी का ऐतिहासिक विधेयक लाना निश्चित ही एक राजनीतिक साहस का परिचायक है।

लेकिन आंकड़े और घोषणाएँ एक हद तक ही तस्वीर दिखाते हैं। असली सवाल है — क्या इन चार सालों में वह सब कुछ बदला, जिसका सपना राज्य आंदोलनकारियों ने देखा था? उत्तराखंड की बुनियादी समस्याएँ, जिनके लिए अलग राज्य बना, क्या अब भी वैसी की वैसी नहीं खड़ी हैं?

राज्य आंदोलनकारियों की अपेक्षाएँ सिर्फ सम्मान की नहीं, बल्कि नीति और विकास में प्राथमिकता की भी थीं। क्या पलायन रुका? क्या गांवों में रोज़गार और शिक्षा की रोशनी पहुँची? क्या स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी मजबूत हुई कि गरीब को देहरादून, दिल्ली या हल्द्वानी के चक्कर न लगाने पड़ें? उत्तराखंड के सरकारी अस्पताल आज भी डॉक्टरों की कमी, जर्जर इमारतों और दवाओं के टोटे से जूझ रहे हैं।

शिक्षा का हाल भी कोई बहुत रोशन नहीं है। सरकारी स्कूलों की हालत सुधारने के बजाय लगातार निजीकरण और महंगे स्कूलों की ओर बच्चों का पलायन हो रहा है। बेरोजगारी दर कम ज़रूर हुई है, लेकिन कितनी नौकरियां स्थायी हैं? कितनों को उनके गृह ज़िले में रोज़गार मिला? युवा अभी भी बड़ी संख्या में परीक्षा दर परीक्षा लड़ते-लड़ते थक चुके हैं।

जहां तक भूमि अतिक्रमण की बात है, सरकार की कार्रवाई स्वागतयोग्य है। पर क्या यह कार्रवाई केवल दिखावे तक सीमित है, या फिर बड़ी मछलियों पर भी उतनी ही सख्ती लागू हो रही है? सवाल यह भी उठता है कि अवैध बस्तियां हटने के बाद उन गरीब परिवारों का पुनर्वास कैसे और कहां होगा?

इन चार सालों में सरकार ने विकास की रफ्तार पकड़ने की कोशिश जरूर की, लेकिन सिस्टम में जड़ जमा चुके भ्रष्टाचार, नौकरशाही की सुस्ती और नेताओं की ‘इवेंट-बेस्ड’ राजनीति के चलते आम आदमी की बुनियादी ज़िंदगी में उतना बड़ा बदलाव नहीं दिखता, जितना सरकार के पोस्टरों और घोषणाओं में दिखाया जाता है।

मुख्यमंत्री धामी को यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तराखंड सिर्फ एक राजनीतिक प्रयोगशाला नहीं है, जहां केवल राष्ट्रीय एजेंडा लागू किया जाए। यहां के लोग अपनी जमीन, पानी, जंगल, संस्कृति और रोज़गार के लिए अलग राज्य बने थे। राज्य आंदोलनकारियों का सपना महज़ यूसीसी से पूरा नहीं होगा, बल्कि उनके सपनों की कसौटी स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और गांवों में बसे सुखी लोगों से तय होगी।

धामी सरकार के नाम एक संदेश

“मुख्यमंत्री जी, चार साल का आपका सफर सराहनीय है। आपमें नेतृत्व का साहस और जुझारूपन दिखा है। लेकिन याद रखिए — उत्तराखंड के लोग केवल घोषणाओं पर नहीं, ज़मीनी बदलाव पर विश्वास करते हैं। पहाड़ की हवा में आज भी उम्मीद की खुशबू है। लेकिन यह खुशबू तभी कायम रहेगी जब हर गांव, हर घर, हर युवा को यह भरोसा हो कि उत्तराखंड केवल चारधाम यात्रा और टूरिज्म का ब्रांड नहीं, बल्कि यहां के अपने लोग ही इस राज्य का असली चेहरा और भविष्य हैं। चार साल पूरे हुए — आगे के सालों को ऐसी इबारत में बदलिए, जिसमें राज्य आंदोलनकारियों के सपने पूरे होते नजर आएं और उत्तराखंड के लोग कह सकें — हाँ, हमने सही सपना देखा था।”


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