
विशेषज्ञ मान रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन से दक्षिण एशिया के ग्लेशियर सर्वाधिक प्रभावित होंगे। यहां हिंदू-कुश हिमालय के ग्लेशियरों की सेहत गड़बड़ाने से 200 करोड़ व्यक्तियों को जल संकट का सामना करना पड़ेगा। इसी संकट के मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र ने 22 मार्च को मनाए जाने वाले वर्ल्ड वाटर डे की थीम ‘ग्लेशियर संरक्षण’ रखा है।


प्रिंट मीडिया, शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)
ग्लेशियरों पर बढ़ते संकट पर देहरादून स्थित वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ हिमनद विशेषज्ञ डा. मनीष मेहता से दैनिक जागरण के वरिष्ठ संवाददाता सुमन सेमवाल ने विस्तृत बातचीत की। वह प्रतिष्ठित जिओलाजिकल सोसायटी आफ इंडिया, जर्नल आफ हिमालयन जियोलाजी, इंडियन मेट्रोलाजी सोसायटी के सदस्य हैं। हिमालय रेंज में होने वाली भौगोलिक गतिविधियां हों या फिर आपदा प्रबंधन से जुड़े अध्ययन, सभी में इनकी अहम भूमिका रहती है। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश:-
ग्लेशियर साफ पानी का मुख्य स्रोत है। यूएस जियोलाजिकल सर्वे के अनुसार ग्लेशियर और बर्फ की टोपियों पर दुनिया के ताजे पानी का लगभग 68.7 प्रतिशत संग्रहित है। बीते कुछ समय से विज्ञानी लगातार चेता रहे हैं कि ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं? अब स्थिति कितनी गंभीर है?
यह सत्य है कि, ग्लेशियर और बर्फ की टोपियों पर दुनिया के ताजे पानी का लगभग 68.7 प्रतिशत संग्रहित है। ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना एक गंभीर वैश्विक चिंता बन चुका है। इसके पीछे का मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन है। अध्ययन यह बताता है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियरों का पिघलने की गति पिछले कुछ दशकों में बढ़ गई है।
ग्लेशियरों का पिघलना न केवल समुद्र स्तर को बढ़ा रहा है, बल्कि उन क्षेत्रों में भी जल संकट पैदा कर सकता है, जो ग्लेशियरों पर निर्भर हैं। इसके अतरिक्त स्थानीय इकोसिस्टम पर प्रभाव और मानवीय जीवन पर भी गहरा असर डाल रही है। अध्ययन के अनुसार, यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी नहीं की गई, तो स्थिति और गंभीर हो सकती है। भविष्य में इन परिणामों को रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नीतियों और प्रयासों की आवश्यकता है।
कहा जा रहा है कि दक्षिण एशिया पर यह संकट सबसे ज्यादा है, क्योंकि लगभग 200 करोड़ लोग कृषि, उद्योग और पीने के पानी के लिए हिंदू-कुश हिमालय के ग्लेशियरों पर निर्भर हैं और सदी के अंत तक उनका आयतन तीन-चौथाई तक कम हो सकता है। क्या यह सही है?
हां, यह बात सही है कि दक्षिण एशिया में हिंदू-कुश हिमालय (एचकेएच) क्षेत्र के ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने से एक गंभीर जल संकट उत्पन्न हो सकता है और इसका असर लगभग 200 करोड़ व्यक्तियों पर पड़ने की आशंका है। इस क्षेत्र के ग्लेशियर कृषि, उद्योग, बिजली उत्पादन और पीने के पानी के मुख्य स्रोत हैं। उनका तेजी से पिघलना दक्षिण एशियाई देशों के लिए कई चुनौतियां खड़ी कर सकता है।
दक्षिण एशियाई देशों जैसे भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, और बांग्लादेश की बड़ी आबादी सिंचाई, बिजली उत्पादन (विशेषकर पनबिजली) और पीने के पानी के लिए हिमालयी ग्लेशियरों पर निर्भर है। ग्लेशियरों का पिघलना इन आवश्यकताओं को बाधित कर सकता है और जल संकट को और बढ़ा सकता है।
एक महत्वपूर्ण अध्ययन (2019 का आइपीसीसी और आइसीएमओडी रिपोर्ट) में यह चेतावनी दी गई थी कि यदि वर्तमान ग्लोबल वार्मिंग की प्रवृत्ति जारी रहती है, तो हिंदू-कुश हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियरों का लगभग एक-तिहाई से तीन-चौथाई हिस्सा इस सदी के अंत तक समाप्त हो सकता है।
इसके साथ ही ग्लेशियरों के पिघलने से नदियों का बहाव अस्थायी रूप से बढ़ सकता है, लेकिन बाद में पानी की उपलब्धता तेजी से घटेगी। सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी प्रमुख नदियां इन ग्लेशियरों से पोषित होती हैं। इन नदियों पर कृषि और पानी की आपूर्ति निर्भर है, जो लाखों किसानों और शहरी क्षेत्रों के लिए जीवनरेखा का काम करती हैं।
यदि ग्लेशियर तेजी से पिघलते रहे, तो इन नदियों में अस्थिर प्रवाह होगा, जिससे खेती और जलापूर्ति में दिक्कतें आएंगी। इसलिए, यह संकट दक्षिण एशिया के लिए बेहद गंभीर है। यदि ग्लेशियरों का पिघलना इसी गति से जारी रहा, तो इसके परिणामस्वरूप लंबे समय तक पानी की उपलब्धता में कमी, कृषि उत्पादन में गिरावट और खाद्य सुरक्षा की गंभीर चुनौतियां सामने आ सकती हैं। यह स्थिति कई देशों में सामाजिक और आर्थिक स्थिरता के लिए बड़ा खतरा बन सकती है।
ग्लेशियर को पिघलने से रोकने के लिए वैश्विक स्तर पर क्या-क्या उपाय किए जा रहे हैं?
ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने को रोकने के लिए वैश्विक स्तर पर कई उपाय किए जा रहे हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य जलवायु परिवर्तन को धीमा करना और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना है। हालांकि, ग्लेशियरों को सीधे तौर पर पिघलने से रोकना संभव नहीं है, लेकिन जलवायु परिवर्तन की दर को नियंत्रित करके इसके प्रभावों को सीमित किया जा सकता है।
पेरिस समझौता (पेरिस एग्रीमेंट) 2015 में हुआ एक ऐतिहासिक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है, जिसका उद्देश्य वैश्विक तापमान वृद्धि को 2°C से नीचे रखना है और प्रयास करना है कि यह 1.5°C तक सीमित रहे। इस समझौते के तहत दुनियाभर के देश अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
इस समझौते में राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के आधार पर देश अपने उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य तय करते हैं और हर पांच साल में अपनी योजनाओं का पुनर्मूल्यांकन करते हैं। दुनियाभर के देश और उद्योग ऊर्जा उत्पादन और परिवहन जैसे प्रमुख क्षेत्रों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए कदम उठा रहे हैं।
अक्षय ऊर्जा स्रोतों जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और जल विद्युत पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (सीसीसी) तकनीक का इस्तेमाल करके वातावरण में उत्सर्जित कार्बन डाइआक्साइड को कैप्चर करके इसे भूमिगत संरचनाओं में सुरक्षित रूप से संग्रहित किया जा रहा है।
जंगलों का संरक्षण और पुनर्वनीकरण (रीफरेस्टेशन ) किया जा रहा है। वैश्विक जलवायु वित्त (क्लाइमेट फाइनेंस) और जलवायु अनुकूलन और लचीलापन (क्लाइमेट एडाप्टेशन एंड रेसिलिएंस) जैसी रणनीतियां विकसित की जा रही हैं। ग्लेशियरों के पिघलने की प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझने और इसके प्रभावों को कम करने के लिए वैश्विक स्तर पर वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा दिया जा रहा है।
भारत के हिस्से में वैश्विक स्तर पर फैले ग्लेशियर का कितना प्रतिशत हिस्सा आता है? जिसके संरक्षण की मुख्य जिम्मेदारी हमारी है?
भारत के हिस्से में वैश्विक स्तर पर फैले ग्लेशियरों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा आता है, विशेषकर हिमालय और हिंदू-कुश क्षेत्र में। हालांकि, पूरे विश्व में फैले ग्लेशियरों के प्रतिशत के रूप में भारत का हिस्सा थोड़ा जटिल है, क्योंकि, ग्लेशियर वैश्विक रूप से कई क्षेत्रों में वितरित होते हैं, लेकिन भारत में हिमालय के ग्लेशियरों का वैश्विक महत्व और योगदान स्पष्ट है।
जियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया के अनुसार भारतीय भू-भाग में लगभग 10000 (9575) ग्लेशियर हैं। यूएसजीएस के अनुसार अगर हम ग्लेशियर की प्रतिशत की बात करें तो सबसे ज्यादा ग्लेशियर 91% अंटार्कटिका में 8. 5% आर्कटिक (ग्रीन लैंड, नार्थ अमेरिका), 0.2 % एशिया में और 0.1% साउथ अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, न्यूजीलैंड और इंडोनेसिया में है। एशिया के हिमालय और हिंदू-कुश ग्लेशियरों को “तीसरा ध्रुव” (थर्ड पोल) कहा जाता है, क्योंकि यहां वैश्विक ताजे पानी का लगभग 0. 2 % भंडार है। यह अंटार्कटिका और आर्कटिक के बाद ताजे पानी का सबसे बड़ा भंडार है।
वाडिया इंस्टीट्यूट ने ग्लेशियर को लेकर अब तक कितने शोध किए हैं और भविष्य में इनके संरक्षण की क्या-क्या योजनाएं हैं?
सरकार हिमालय के ग्लेशियरों की नियमित निगरानी करती है, इस संबंध में वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान (डब्ल्यूआइएचजी) क्षेत्र-आधारित निगरानी के माध्यम से मध्य और पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में सीमित संख्या में ग्लेशियरों की निगरानी कर रहा है।
वाडिया संस्थान 10 ग्लेशियरों की निगरानी कर रहा है, जिनमें 03 ग्लेशियर मध्य हिमालय में स्थित हैं, जबकि, 06 ग्लेशियर पश्चिमी हिमालय और काराकोरम में स्थित हैं। इसके अलावा, वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान 2021-2022 से काराकोरम में तीन ग्लेशियर और उत्तराखंड में एक ग्लेशियर की निगरानी करना शुरू किया, जिनमें से वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान 03 ग्लेशियर मध्य हिमालय, उत्तराखंड में हैं, यानी भागीरथी बेसिन में डोकरियानी (1991 से अध्यन कर रहा है), मंदाकिनी बेसिन में चोराबारी ग्लेशियर (2003 से अध्यन कर रहा है), जबकि पश्चिमी हिमालय लद्दाख में तीन ग्लेशियर हैं, यानी शुरू नदी बेसिन में पेनसिलुंगपा ग्लेशियर (2015 के बाद) और पार्काचिक ग्लेशियर (2015 के बाद) और डोडा बेसिन में द्रुंग द्रुंग ग्लेशियर।
सैटेलाइट इमेजरी इंस्टीट्यूट की मदद से उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और पूर्वी हिमालय में कुछ ग्लेशियर और झील का सर्वेक्षण किया गया है। दीर्घकालिक भू-आधारित अध्ययन से पता चलता है कि भागीरथी बेसिन में डोकरियानी ग्लेशियर 1995 से 15 से 20 मीटर प्रति वर्ष पीछे हट रहा है, जबकि अलकनंदा बेसिन में चोराबारी ग्लेशियर 2003 से 9-11 मीटर प्रति वर्ष पीछे हट रहा है।
इसके अलावा, पश्चिमी हिमालयी ग्लेशियर, पेनसिलुंगपा ग्लेशियर लिटिल आइस एज (एलआइए) से 2019 तक 5.6 मीटर पर साल की औसत दर से 2941 मीटर पीछे हट गया है, द्रुंग द्रुंग ग्लेशियर (डीडीजी) 1971 से 2019 के बीच 12 मीटर प्रति साल की औसत दर से 624 मीटर पीछे हट गया है।
इसी तरह, रिमोट सेंसिंग, जीआइएस और जमीनी अवलोकनों का उपयोग करके सुरू बेसिन, जांस्कर, लद्दाख हिमालय के ग्लेशियरों की सूची तैयार की और पाया कि उप-बेसिन में 252 ग्लेशियर शामिल हैं, जो 2017 में 481.32 वर्ग किमी (ग्लेशियर क्षेत्र का 11%) के क्षेत्र को कवर करते हैं।।
1971-2017 की अवधि के दौरान इनका ग्लेशियेटेड क्षेत्र 513 वर्ग किमी (1971) से घटकर 481 वर्ग किमी (2017) हो गया, जो 32 वर्ग किमी (6%) का समग्र विगलन प्रदर्शित करता है। डब्लूआइएचजी ने कराकोरम के ग्लेशियरों का मानचित्रण और सूची भी तैयार की और पाया कि 21 उछाल-प्रकार के ग्लेशियर लगभग 7733 वर्ग किमी क्षेत्र को कवर करते हैं, जो कराकोरम में कुल हिमाच्छादित क्षेत्र का 43% है, और इनमें 6.1 वर्ग किमी की वृद्धि हुई है (क्षेत्रफल 2002: 1609.7 क्षेत्र; 2011: 1615.8 वर्ग किमी)।
इसके अलावा वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान (डब्ल्यूआइएचजी) ने उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के लिए ग्लेशियर झील सूची तैयार करके महत्वपूर्ण योगदान दिया है, जिसमें उत्तराखंड (7.6 वर्ग किमी) में 1,266 झीलों और हिमाचल प्रदेश (9.6 वर्ग किमी) में 958 झीलों की पहचान की गई है। अध्ययन के अनुसार सरकार को संरक्षण के सुझाव भी संस्थान की तरफ से दिए जा रहे हैं।
