
रुद्रपुर,उत्तराखंड में लोकतंत्र की सबसे बुनियादी इकाई—ग्राम पंचायत और जिला पंचायत—इन दिनों लोकतांत्रिक प्रक्रिया से नहीं, बल्कि प्रशासकों के भरोसे चल रही है। और इन प्रशासकों की नियुक्ति किसी निर्वाचित प्रक्रिया से नहीं, बल्कि सरकार की एकतरफा घोषणा से हुई है। सवाल उठता है—क्या लोकतंत्र का यह मजाक अब अदालतों के संज्ञान के बिना रोका नहीं जा सकता?


देरी का बहाना: आरक्षण निर्धारण या राजनीतिक रणनीति?
हाईकोर्ट में लंबित जनहित याचिकाएं, जिनमें पूर्व ग्राम प्रधान विजय तिवारी सहित कई लोगों ने पंचायत चुनाव में देरी और प्रशासकों की नियुक्ति को चुनौती दी है, उत्तराखंड की शासन व्यवस्था पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगा रही हैं। राज्य निर्वाचन आयोग पहले ही अदालत को बता चुका है कि वह चुनाव कराने के लिए पूरी तरह तैयार है। इसके बावजूद सरकार की ओर से बार-बार आरक्षण निर्धारण प्रक्रिया को देरी का कारण बताया जा रहा है।
पर सवाल यह है कि क्या यह देरी किसी प्रशासनिक असमर्थता का परिणाम है या फिर सत्ता में बैठे कुछ लोगों की सोची-समझी रणनीति?
प्रशासकों की नियुक्ति: आगामी चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश?
हाईकोर्ट में दाखिल याचिकाओं में एक महत्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि ग्राम पंचायतों में निवर्तमान प्रधानों को प्रशासक बनाकर उन्हें वित्तीय अधिकार दे देना, निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है। इससे साफ झलकता है कि जो लोग दोबारा चुनाव लड़ना चाहते हैं, उन्हें पहले से ही अपने क्षेत्र में प्रभाव और संसाधनों का लाभ मिल रहा है। यह स्थिति आम उम्मीदवारों के लिए असमान और अनुचित प्रतियोगिता का वातावरण पैदा कर सकती है।
लोकतंत्र अदालत के सहारे?
यह बेहद चिंताजनक है कि उत्तराखंड में अब लगभग हर संवैधानिक और प्रशासनिक निर्णय की अंतिम उम्मीद हाईकोर्ट ही बन चुकी है—चाहे वह नगर निगम चुनाव हों, पंचायतों के प्रशासक हों या फिर अवैध धार्मिक निर्माणों पर कार्यवाही। शासन तंत्र से जनता का विश्वास तभी टूटता है जब सरकारें समय पर निर्णय लेने में असफल हो जाती हैं और हर मोर्चे पर अदालत की शरण लेनी पड़ती है।
प्रशासनिक कार्रवाई या प्रतीकात्मक दिखावा?
देहरादून में अवैध धार्मिक निर्माणों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर जिलाधिकारी सविन बंसल की सक्रियता तारीफ के काबिल है, लेकिन सवाल यह भी है—क्या यही सक्रियता पंचायत चुनावों में भी दिखाई जाएगी? या फिर प्रशासन सिर्फ उन मामलों में ही फुर्ती दिखाएगा जहां न्यायपालिका पहले से सक्रिय हो चुकी हो?
सवाल जो सरकार से पूछे जाने चाहिए:
- यदि राज्य निर्वाचन आयोग पूरी तरह तैयार है, तो पंचायत चुनाव में अब तक देरी क्यों?
- क्या ग्राम प्रधानों को प्रशासक बनाकर उन्हें दोबारा चुनाव जीतने का गैरबराबरी वाला लाभ नहीं दिया जा रहा?
- क्या यह व्यवस्था संविधान के स्वशासन और विकेन्द्रीकरण की भावना के विपरीत नहीं है?
- क्या हाईकोर्ट ही अब लोकतंत्र का एकमात्र संरक्षक बन गया है, और सरकारें सिर्फ अदालतों के आदेशों पर ही चलेंगी?
पंचायती राज व्यवस्था भारत के लोकतंत्र की नींव है। अगर इस व्यवस्था में ही चुनावों को टाला जाता रहेगा और प्रशासकों के जरिए सत्ता चलाई जाएगी, तो यह लोकतंत्र नहीं, प्रशासनिक अधिनायकवाद की शुरुआत होगी। उत्तराखंड सरकार को चाहिए कि वह जल्द से जल्द स्पष्ट रोडमैप पेश करे कि पंचायत चुनाव कब और कैसे कराए जाएंगे। अन्यथा यह माना जाएगा कि लोकतंत्र की बात सिर्फ भाषणों तक सीमित रह गई है, और ज़मीनी हकीकत में सत्ता अब अदालती निर्देशों के भरोसे है।
