ब्रीटिश शासन के दौर में देश के अनेक क्षेत्रों को उनकी विशिष्ट सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि को देखते हुए उनके संरक्षण-संवर्द्धन के लिए अधिसूचित किया गया था। तत्कालीन उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र को भी ट्राइबल (आदिवासी) क्षेत्र मानते हुए यहां शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट 1874 तथा नॉन रेगुलेशन एरिया के प्रावधान लागू किए गए थे।

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आजादी के बाद देश के आदिवासी क्षेत्रों के मूलनिवासियों को जनजाति का दर्जा (ट्राइब स्टेटस) देकर संविधान की 5वीं या 6ठी अनुसूची में रखते हुए इनके लिए विशेष प्रबंध किए गए।

हिंदुस्तान Global Times/print media,शैल ग्लोबल टाइम्स,अवतार सिंह बिष्ट

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में भी पहले ऐसे ही कानून लागू थे, लेकिन इस क्षेत्र को 5वीं अनुसूची में शामिल करने के उलट 1972 में इस पहाड़ी इलाके की उपेक्षा करते हुए उक्त प्रावधानों में से केवल चिकित्सा-शिक्षा में प्रवेश पर आरक्षण देने तक सीमित कर अन्य सभी से इसे बाहर कर दिया गया। और, अंततः 1996 में चिकित्सा-शिक्षा में प्रवेश सम्बंधी वह प्रावधान भी खत्म कर दिया गया।

पृथक उत्तराखंड राज्य गठन से पहाड़ी क्षेत्र की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ा, क्योंकि न तो केंद्र सरकार ने राज्य आंदोलनकारियों की इच्छानुसार इसकी राजधानी पर्वतांचल में कुमाऊं व गढ़वाल के मध्य स्थित गैरसैंण को बनाया और न ही राज्य सरकारों ने पर्वतीय लोगों की विषम भौगोलिक तथा यहां की सामरिक स्थिति को देखते हुए इसकी आर्थिक-शैक्षिक स्थिति में अपेक्षानुसार सुधार पर ध्यान दिया।

इसके फलस्वरूप पहाड़ों से पलायन बहुत तेजी से हुआ। नौबत यहां तक आ पहुंची है कि आज पहाड़ में सैकड़ों गांव जनशून्य होकर आवासीय मकानों के खंडहरों के कब्रिस्तान बन चुके हैं। यों तो राज्य सरकार ने पलायन के कारणों का अध्ययन और समाधान हेतु सुझाव देने के लिए पलायन आयोग गठित किया लेकिन वह सिर्फ सफेद हाथी बनकर रह गया है।

अब दो-दो अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से घिरे और तिब्बत व नेपाल में बढ़ते चीनी प्रभाव के दृष्टिगत राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए यह अत्यावश्यक हो गया है कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों को संविधान की 5वीं अनुसूची में शामिल कर इसे आर्थिक-शैक्षिक रूप से समृद्ध बनाया जाए।

इसके निमित्त आवाजें उठने लगी हैं। जो लगातार ऊंची होती जा रही हैं। अभी हाल ही में देहरादून व दिल्ली के बाद हल्द्वानी में ‘उत्तराखंड एकता मंच’ के बैनर तले आयोजित सम्मेलनों में समाज के प्रबुद्धजनों की भारी उपस्थिति से इसे बल मिला है।

क्या कहती है संविधान की 5वीं अनुसूची

भारतीय संविधान की 5वीं अनुसूची विशेष रूप से अनुसूचित क्षेत्रों और वहां के जनजातीय निवासियों के हितों की रक्षा के लिए बनाई गई है। इसके प्रावधान अनुसूचित क्षेत्र के आदिवासी आबादी वाले क्षेत्रों के लिए निर्धारित किए गए हैं, जिनमें इनके सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परंपराओं के संरक्षण और संवर्धन की व्यवस्था निर्धारित की गई है।

यह अनुसूची इन क्षेत्रों के प्रशासन, विकास और जनजातीय संस्कृति व अधिकार सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न प्रावधानों का प्रबंध करती है।

5वीं अनुसूची का उद्देश्य

इस अनुसूची का मुख्य उद्देश्य आदिवासी जनसंख्या की विशिष्ट संस्कृति, रीति-रिवाज, भूमि और संसाधनों के अधिकारों की रक्षा करना है ताकि उन्हें बाहरी हस्तक्षेप और शोषण से बचाया जा सके। यह व्यवस्था संविधान को स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार लागू करने की सहूलियत देती है, जिससे अनुसूचित क्षेत्रों में शांति और संतुलन बना रहता है।

5वीं अनुसूची के प्रमुख प्रावधान

1. अनुसूचित क्षेत्रों की घोषणा-संविधान के अनुच्छेद 244 (1) के तहत, राष्ट्रपति किसी राज्य के विशिष्ट क्षेत्रों को अनुसूचित क्षेत्र घोषित कर सकते हैं। ये क्षेत्र आमतौर पर आदिवासी बाहुल्य होते हैं, जहां आदिवासियों की विशिष्ट संस्कृति, परंपराएं और जीवनशैली होती है। इस अनुसूची के प्रावधानों के माध्यम से इन क्षेत्रों की सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखने का प्रयास किया जाता है।

2. राज्यपाल की विशेष शक्तियां-अनुसूचित क्षेत्रों में प्रशासन के लिए राज्यपाल को विशेष शक्तियां दी गई हैं। राज्यपाल इन क्षेत्रों में जनजातीय लोगों के हितों की रक्षा के लिए नियम और अधिनियम बना सकते हैं। इसके अलावा, राज्यपाल को यह अधिकार भी है कि वे राज्य की विधानसभा द्वारा बनाए गए किसी भी ऐसे कानून को इन क्षेत्रों में लागू न करने का निर्णय ले सकते हैं, जिसे वे राज्य के आदिवासियों के हितों को नुकसान पहुंचाने वाला महसूस करते हैं।

उदाहरण – यदि राज्य की विधानसभा ने कोई ऐसा कानून बनाया है जो भूमि का अधिग्रहण या खनन से संबंधित है, और राज्यपाल को लगता है कि इस कानून के लागू होने से जनजातीय निवासियों के अधिकारों और उनकी भूमि पर खतरा हो सकता है, तो राज्यपाल उस कानून को अनुसूचित क्षेत्रों में से ‘बहिष्कृत’ कर सकते हैं।

इसका मतलब है कि उस कानून को उन क्षेत्रों में लागू नहीं किया जाएगा। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि आदिवासी क्षेत्रों में ऐसे कानून लागू न किए जाएं जो उनकी संस्कृति, भूमि और पारंपरिक अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं।

3. जनजातीय सलाहकार परिषद-5वीं अनुसूची के तहत राज्य में एक जनजातीय सलाहकार परिषद का गठन किया जाता है, जिसमें अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को शामिल किया जाता है। यह परिषद राज्यपाल को अनुसूचित क्षेत्रों में प्रशासनिक और विकासात्मक गतिविधियों के संबंध में सलाह देती है।

4. कानूनी संरक्षण-अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण और खनन जैसे मामलों में जनजातीय निवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष कानूनी प्रावधान हैं। इन प्रावधानों के माध्यम से उनकी भूमि और संपत्ति के अधिकार सुरक्षित किए जाते हैं और बाहरी लोगों द्वारा शोषण से बचाने का प्रयास किया जाता है।

5. प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार-इस अनुसूची के तहत जनजातीय लोगों के प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकारों की रक्षा की जाती है, जिससे उनकी आजीविका और सांस्कृतिक पहचान बनी रहे। यह प्रावधान उनकी भूमि, वन उत्पाद और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और प्रबंधन के अधिकारों को संरक्षित करने में मदद करता है।

6. विकास के विशेष प्रावधान-अनुसूचित क्षेत्रों में जनजातीय लोगों के सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक विकास के लिए विशेष योजनाएं और कार्यक्रम लागू किए जाते हैं। केंद्र तथा राज्य सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आधारभूत ढांचे के विकास के लिए विशेष बजट का प्रावधान करती है ताकि इन क्षेत्रों में रहने वाले लोग राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा के साथ आर्थिक और सामाजिक रूप से जुड़ सकें।

7. संविधान संशोधन और न्यायिक संरक्षण-यदि सरकार 5वीं अनुसूची में किसी प्रकार का संशोधन करना चाहती है, तो इसे संसद द्वारा पारित कराना आवश्यक है। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि इन क्षेत्रों के अधिकारों में बिना उचित विचार-विमर्श के कोई बदलाव न हो। इसके अलावा, सर्वोच्च और उच्च न्यायालय भी इन क्षेत्रों के निवासियों के अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं।

उत्तराखंड की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पहचान

यह सर्वविदित है कि ऐतिहासिक रूप से उत्तराखंड का पर्वतीय क्षेत्र खसों की भूमि है और वे इतिहास में दीर्घकाल तक यहां शासन करते रहे हैं। खसों के सम्बंध में ऋग्वेद, महाभारत आदि प्राचीन साहित्य, इतिहासकारों, नृवंश विशेषज्ञों, पुरातात्विकों और भूवैज्ञानिकों द्वारा यत्र-तत्र अभिलिखित बहुत सारी सामग्री उपलब्ध है। उनमें से इस विषय में कतिपय आधुनिक इतिहासकारों के विचार यहां प्रस्तुत हैं-

एडविन टी. एटकिन्सन (हिमालयन गजेटियर, 1884 खंड 12, पृष्ठ 420), जी. ए. ग्रियर्सन (लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, 1916, खंड 9, पृष्ठ 279), कैप्टन जे. एवट (ए हैंडबुक ऑन गढ़वाली 1880, पृष्ठ 11-12) व एच. जी. वॉल्टन (गजेटियर 1910) का अभिमत है कि खस समुदाय मध्य हिमालय की एक शक्तिशाली जाति है, जो विशेष स्थान और जलवायु में निवास करने से अपने धार्मिक आचारों का दृढ़तापूर्वक पालन न कर सकने के कारण संस्कारच्युत की गयी थी। उनके इस कथन से ऐसा आभास मिलता है कि वे खसों को यहां के आर्य-द्विजों का ही सजातीय मानते हैं।

बद्रीदत्त पांडे ‘कुमाऊँ का इतिहास’ और डॉ. लक्ष्मीदत्त जोशी 1925 में लंदन विविद्यालय में प्रस्तुत अपने शोध प्रबंध ‘खस फैमिली लॉ’ में खसों को वेदों से पूर्व आर्यजाति की एक प्रथम शक्तिशाली शाखा के रूप में कश्मीर-नेपाल के हिमालय से उत्तराखंड में पहुंचने की पुष्टि करते हैं। डॉ. जोशी ने अपने इस शोध प्रबंध ‘खस फेमिली लॉ’ में खस समुदाय के पारिवारिक और सामाजिक ढांचे का गहन अध्ययन प्रस्तुत किया है। उन्होंने खसों के पारंपरिक कानून, विवाह, उत्तराधिकार और संपत्ति के प्रावधानों तथा रीति-रिवाजों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है। उनके अनुसार खस समुदाय के कानूनों में अनोखी परंपराएं विद्यमान हैं। जो मुख्यधारा के हिंदू कानूनों से भिन्न हैं।

डॉ. जोशी का कहना है कि खसों में पितृसत्तात्मक संरचना प्रमुख है लेकिन उनके पारिवारिक कानूनों में स्वतंत्रता और सामूहिकता दोनों ही का बहुत ज्यादा महत्व है। जोशी के निष्कर्ष खस समाज में तरह-तरह की विवाह पद्धतियां, वैवाहिक संबंध विच्छेद, पुनर्विवाह, पैतृक संपत्ति का बंटवारा आदि के प्रावधान अन्य समुदायों की तुलना में लचीले हैं, जो इस समाज की सांस्कृतिक विविधता को प्रदर्शित करता है।

प्रसिद्ध इतिहासकार पन्ना लाल (कुमाऊं कस्टमरी लॉ, पृष्ठ 10, लिस्ट ए) ने ब्राह्मणों की ग्यारह जातियां और चार जाति नवागंतुक राजपूतों की छोड़कर कुमाऊं और गढ़वाल के शेष सब निवासियों को अहिन्दू एवं खस कहा है। उनके कथनानुसार यहां के इन निवासियों की संस्कृति और आचार-विचार ऐसे हैं जो हिन्दू विधि-विधानों को अमान्य हैं।

डॉ. पातीराम (गढ़वाल एंशिएट एंड मॉडर्न) के अनुसार ‘पहले गढ़वाल और कुमाऊं में खस बहुसंख्यक थे। यहां एक पुरानी किम्वदंती ही है-‘केदारे खस मंडले’। अब इनमें से बहुतों ने अपने को क्षत्रियों के समान बना लिया है।’

उत्तराखंड के विख्यात इतिहासकार शिवचरण डबराल के अनुसार 12वीं-13वीं सदी के लेखों में कुमाऊं और गढ़वाल को सपादलक्ष शिखरि खसदेश लिखा गया है। इनमें खसदेश के पूर्व-दक्षिण छोर पर बहने वाली काली नदी की घाटी को कमादेश के नाम से सम्बोधित किया गया है जिसे कुमू भी कहा जाता है और इसी के नाम पर कालांतर में उत्तराखंड का संपूर्ण पूर्वी क्षेत्र ‘कुमाऊं’ कहा जाने लगा।

हरिकृष्ण रतूड़ी (गढ़वाल का इतिहास, पृष्ठ 124 व 173) खस जाति को हिन्दू द्विजों की ही संस्कारच्युत संतति मानते हैं।

उत्तराखंड के इतिहास तथा पुरातत्व के उद्भट विद्वान डॉ. यशवंत सिंह कठौच ने अभी अगस्त महीने में प्रकाशित अपने एक लेख में कहा है कि (यहां के पर्वतीय क्षेत्रों के) ‘राठी’ लोगों की कोई पृथक ‘प्रजाति’ नहीं है। ये उसी महा खश जाति के हैं जो कश्मीर से असम तक समस्त हिमालय में फैली है।

महाकाव्यों के संदर्भ तथा हिमालय में खश जाति पर हुए नृवंशीय शोध यही सिद्ध करते हैं। वस्तुतः गढ़वाल कुमाऊं की पंचानबे प्रतिशत जनसंख्या खश है। यही यहां के मूल निवासी हैं। इनके विभिन्न कबीलों के नायकों ने गढ़-कुमाऊं के पर्वत शिखरों पर बहुशः गढ़ निर्मित किये।

खशों के ये ही मुखिया उत्तर-मध्यकाल में सयाणा, कमीण, चौंतरा कहलाते थे। उत्तर मध्यकाल के अंत में यही मुसलमानी प्रभाव के ‘थोकदार’ कहलाये। वे खश सयाणा जिन भूखंडों के स्वामी थे, वे भूखंड उनकी ठकुराइयां थीं जो पीछे ‘मंडल’ तथा ‘पट्टियां’ कहलाईं।

कुमाऊं में चन्द शासनकाल में भी खशों की अनेक ठकुराइयां विद्यमान थीं। स्पष्टतः सम्पूर्ण केदार-मानसखंड की अधिकांश जनसंख्या खश है।’

कालांतर में दक्षिणात्यों के कर्मकांडीय प्रभाव से उत्तराखंड में भी खस जनजाति का उसी तरह का ब्राह्मण-क्षत्रिय में वर्ग-विभाजन शुरू हो गया जिसे चुनावों में वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिए आज भी ‘ब’-ब्राह्मण ‘ख’-खसिया के रूप में भुनाने की भरपूर कोशिश की जाती है। हालांकि परंपरागत रूप से ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही मूलतः खस हैं।

दुनियाभर के आदिवासियों की तरह उत्तराखंड का आम जनमानस प्रकृति का उपासक है जिसे इसके फूलदेई, हरेला, खतड़ुआ, हलिया दसहरा, रम्माण या हिलजात्रा जैसे पारंपरिक वार्षिक त्यौहारों तथा उत्सवों में प्रत्यक्ष देखा जाता है।

इसके अलावा कठपतिया, ऐपण कला, जादू-टोना या स्थानीय ऐतिहासिक पात्रों के नाम पर ‘जागर’ लगाना आदि यहां की प्राचीन आदिवासी खस संस्कृति के अवशेष ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सभी वर्गों में समान रूप से आज भी प्रचलित हैं। अंग्रेजों ने पर्वतीय समाज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तथा संस्कृति को ध्यान में रखते हुए यहां की परंपराओं, धार्मिक मान्यताओं तथा अन्य रीति-रिवाजों के प्रचलन में जरा भी हस्तक्षेप नहीं किया और उनको अक्षुण्ण बनाए रखा।

इन्हीं सब तथ्यों के आलोक में दो तरफ से अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से घिरे उत्तराखंड की विषम भौगोलिक स्थिति के साथ ही तिब्बत व नेपाल में बढ़ते चीनी प्रभाव और राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिगत उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र को जनजातीय दर्जा देते हुए संविधान की 5वीं अनुसूची में शामिल कर नॉन रेगुलेशन एरिया एवं बहिष्कृत क्षेत्र पुनः घोषित करना अत्यावश्यक हो गया है; ताकि इस पर्वतीय क्षेत्र को आर्थिक रूप से समृद्ध और सशक्त बनाकर इसे राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा में लाया जा सके।

(लेख में व्यक्त लेखकों के निजी विचार हैं)


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