
उत्तराखंड को राज्य बने दो दशक से ऊपर हो चुके हैं। जिस संघर्ष, शहादत और सपने के साथ यह पहाड़ी राज्य बना था, वहां अब नीति नहीं, अभिनय राज कर रहा है। आज के उत्तराखंड में सफल नेता बनने की सबसे बड़ी योग्यता है — नौटंकी करने की कला।


प्रिंट मीडिया, शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)संवाददाता
रुद्रपुर के एक वरिष्ठ नागरिक ने तो कटाक्ष में कह ही दिया—“अब चुनाव आयोग को एक नया कॉलम जोड़ देना चाहिए: ‘राजनीतिक अनुभव के साथ-साथ अभिनय (नौटंकी)में डिप्लोमा है
हर बारिश में वही पुराना ड्रामा—सड़क पर जलभराव देख नेता जी बूट पहन कर उतरते हैं, फोटो खिंचवाते हैं, और कहते हैं, “मैं जनता के बीच हूं।” लेकिन जैसे ही कैमरा हटता है, वे गाड़ी में बैठकर निकल लेते हैं—कभी किसी पांच सितारा रेस्टोरेंट की ओर, तो कभी राजधानी की ओर “विकास की मीटिंग” में भाग लेने।
2027 के चुनाव जैसे-जैसे करीब आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे नौटंकी का पारा भी चढ़ता जा रहा है। शहर की गलियों में अब “नेता जी का नाटक” किसी नुक्कड़ नाटक से कम नहीं लगता।
कभी चीनी मिल की कतारों में खड़े दिखने वाले नेता, तो कभी बारिश में भीगते हुए गड्ढों का निरीक्षण करते “संवेदनशील” जनप्रतिनिधि—राजनीति अब सिर्फ वादों तक सीमित नहीं रही, अब यह अभिनय कला का अखाड़ा बन चुकी है।
सत्तापक्ष के नौसिखिए भी अब अभिनय कला में इतने प्रवीण हो गए हैं कि विपक्ष के अनुभवी नौटंकीबाज भी उनसे पीछे छूटने लगे हैं।
राज्य की जनता अब भाषणों से नहीं, भावनाओं से बहलाई जाती है। वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाने और खुद को “जननायक” सिद्ध करने के लिए नौटंकी ही सबसे तेज़ी से उभरता हुआ राजनीतिक औज़ार बन चुका है।
राजनीति से रंगमंच तक का सफर
पहले राजनीति विचारधारा से जुड़ी होती थी — अब वह इवेंट मैनेजमेंट बन गई है। उत्तराखंड के नेता अब विकास योजनाओं के नहीं, इंस्टाग्राम रील्स और न्यूज चैनल हेडलाइन्स के नेता हैं।
इन नेताओं की सुबह मीडिया में “जनता की चिंता” व्यक्त करते हुए होती है, दोपहर में किसी मंदिर में दर्शन देने और शाम को किसी गरीब के आंगन में दाल-रोटी खाने से दिन पूरा होता है।
इन सबके पीछे छिपी होती है एक बहुत बड़ी स्क्रिप्ट — जिसमें किरदार तो नेता होते हैं लेकिन डायरेक्शन करता है चुनावी एजेंडा।
उत्तराखंड में नौटंकीबाज़ नेताओं की प्रमुख कलाएं:
1. शिलान्यास नौटंकी:
राज्य में किसी योजना का काम शुरू हो या न हो, उसका पत्थर रखना ज़रूरी होता है।
कई जगहों पर ऐसी योजनाओं के उद्घाटन किए जा चुके हैं, जिनके लिए फंड तक पास नहीं हुआ। नेताजी धूमधाम से फीता काटते हैं, फोटो खिंचवाते हैं और अगले चुनाव तक उस योजना को भूल जाते हैं।
2. धार्मिक नौटंकी:
अटरिया मंदिर,केदारनाथ में बाबा के दर्शन, हेमकुंड साहिब की यात्रा, बद्रीनाथ में विशेष पूजा — हर जगह नेताजी का फोटो खिंचवाना अनिवार्य हो गया है।
पारंपरिक वस्त्र पहनकर, कैमरों के सामने हाथ जोड़कर यह संदेश दिया जाता है कि “हम सिर्फ राजनेता नहीं, आध्यात्मिक सेवक भी हैं।”
लेकिन यथार्थ में मंदिर के रास्ते टूटे हैं, श्रद्धालु परेशान हैं और पुजारी आंदोलन पर।
3. भाषणबाज़ी और रोदन कला:
नेता अब मंच पर केवल बोलते नहीं, भावनात्मक संवाद करते हैं।
“मैंने जनता की सेवा में अपने जीवन के अमूल्य साल दे दिए”, “मेरे दिल पर क्या बीत रही है, कोई नहीं जानता” — जैसे संवादों से भीड़ को झकझोरने का प्रयास किया जाता है।
और अगर कोई पत्रकार सच्चाई पूछ ले, तो “भावुकता में” आंखों में आंसू भी ला दिए जाते हैं।
4. आंदोलनों की हाईजैकिंग:
पेपर लीक, रोजगार, और शिक्षा जैसे मुद्दों पर जब उत्तराखंड का युवा सड़कों पर उतरता है, तो नेताजी तुरंत उनके बीच आ जाते हैं।
नारे लगाते हैं, माइक पर भाषण देते हैं, सोशल मीडिया पर पोस्ट डालते हैं — लेकिन वास्तविक हल निकालने की ज़िम्मेदारी सरकार पर डाल देते हैं।
उनकी नौटंकी का उद्देश्य होता है कि आंदोलन की असली आत्मा को अपने “प्रेस बयानों” में दबोच लिया जाए।
5. त्याग और इस्तीफा ड्रामा:
“अगर मेरी बात नहीं मानी गई तो मैं इस्तीफा दे दूंगा।”
नेताओं का यह वाक्य हर कुछ महीनों में दोहराया जाता है। लेकिन अगले ही दिन पता चलता है कि इस्तीफा सिर्फ ‘प्रेस में चर्चा’ पाने का हथियार था।
त्याग अब राजनीतिक ब्रह्मास्त्र नहीं, ड्रामेबाज़ी का हिस्सा बन चुका है।
6. टंकी पर चढ़ो, सोशल मीडिया पर उतर जाओ:
राज्य आंदोलन के दिनों की टंकी पर चढ़ने वाली रणनीति अब सोशल मीडिया नौटंकी में बदल चुकी है।
नेता जी Facebook Live करते हैं, ट्विटर पर “गंभीर चिंता” जाहिर करते हैं, और रील बनाकर अपनी उपलब्धियाँ गिनाते हैं।
यह डिजिटल नौटंकी इतनी प्रभावी है कि आज शहर,गांव के लोग भी YouTube देखकर नेताजी को “धरतीपुत्र” मान लेते हैं।
जनता की भावनाओं से खेलना आसान हो गया है
उत्तराखंड की जनता सीधी, भावुक और आशावादी है।
वह हर बार सोचती है कि शायद ये नया नेता ईमानदार निकलेगा।
लेकिन जब वह देखती है कि उसका नेता चप्पल पहनकर खेतों में चल रहा है, बारिश में छतरी थामे फोटो खिंचवा रहा है, गाय को चारा दे रहा है — तो उसे एक बार फिर “विश्वास” हो जाता है।
जबकि ज़मीन पर न तो गौशालाएं बनती हैं, न स्कूल सुधरते हैं।
यह भावनात्मक शोषण ही है — जो अब ‘राजनीति’ का सबसे स्थायी स्वरूप बन गया है।
नौटंकीबाज़ नेताओं के नुकसान:
- वास्तविक मुद्दे दब जाते हैं —स्मार्ट सिटी पर नाम पर उजड़ गए लोगों का विस्थापन, वेल्डिंग जॉन की दुकानों का आवंटन, रोजगार, नजूल भूमि पर मालिकाना हक, सिडकुल पर 70% स्थानीय युवाओं को रोजगार, पलायन, शिक्षा जैसे मुद्दे गायब हो जाते हैं क्योंकि कैमरे में सिर्फ नाटक दिखता है।
- युवा भ्रमित होता है — छात्र सोचते हैं कि सेवा की जगह सेल्फी से नेता बना जा सकता है।
- घोषणाओं की झड़ी, काम की कमी — हज़ारों घोषणाएं, लेकिन ज़मीनी बदलाव न के बराबर।
- मीडिया का भी मनोरंजन मंच बन जाना — कई बार मीडिया भी इन नौटंकीबाज़ नेताओं का सहयोगी बन जाता है।
क्या समाधान है?
समाधान जनता के हाथ में है।
जब तक हम नेता को उसके विकास कार्य, नीति, और पारदर्शिता के आधार पर नहीं चुनेंगे, तब तक नौटंकी का ये तमाशा चलता रहेगा।
जनता को यह तय करना होगा कि उन्हें नेता चाहिए या अभिनेता।
जब उत्तराखंड की जनता “भावना” से नहीं, “तथ्य” से वोट देगी — तभी असली परिवर्तन आएगा।
उत्तराखंड की राजनीति आज एक ऐसे रंगमंच में बदल गई है जहाँ नायक वही है जो सबसे अच्छा अभिनय (नौटंकी) करता है।
असली मुद्दे अब पर्दे के पीछे हैं, और मंच पर चल रही है नौटंकी।
