रुद्रपुर में धार्मिक आस्था की आड़ में जमीन हड़पने का खेल! मैदानी उत्तराखंड में अतिक्रमण का महासंकट: सरकारी ज़मीन पर कब्जे का खेल और विकास की राह में रुकावट”

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संपादकीय:हजारों करोड़ की सरकारी भूमि पर हो रहे अतिक्रमण से उत्तराखंड सरकार को भारी राजस्व घाटा, योजनाओं का ठहराव और प्रशासनिक चुनौती—समाधान क्या हो?”

संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)

उत्तराखंड को “देवभूमि” कहा जाता है, परंतु आज इसकी मैदानी भूमि पर ‘अधर्म’ की एक नई इबारत लिखी जा रही है—अतिक्रमण की। किच्छा, रुद्रपुर, हरिद्वार, लालकुआं, हल्द्वानी जैसे शहर अंधाधुंध अतिक्रमण की आग में झुलस रहे हैं। सरकारी जमीन, नजूल भूमि, सिंचाई विभाग की भूमि, वन विभाग की भूमि, रेलवे की संपत्ति—किसी भी श्रेणी की जमीन अछूती नहीं रही।

1. अतिक्रमण का स्वरूप और विस्तार:
उत्तराखंड के मैदानी इलाके—विशेषकर तराई और भाबर क्षेत्र—भू-अतिक्रमण के सबसे बड़े केंद्र बन गए हैं। यहाँ सरकारी भूमि पर कब्जा कर अवैध कॉलोनियों का जाल बिछा दिया गया है। उदाहरण के लिए:

  • रुद्रपुर के ट्रांजिट कैंप, भूतबंगला और आजाद नगर क्षेत्र में हजारों बीघा सरकारी भूमि पर झुग्गियों, गोदामों और व्यवसायिक इमारतों का कब्ज़ा है।
  • हरिद्वार में कनखल और ज्वालापुर क्षेत्रों में नदी किनारे की भूमि पर अवैध बसावट।
  • हल्द्वानी में गौला नदी और बनभूलपुरा इलाकों में वन भूमि पर लगातार अतिक्रमण।

इन क्षेत्रों में कब्जा करने वालों को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होता है, जिससे प्रशासन की कार्यवाही या तो रुक जाती है या दिखावटी बन कर रह जाती है।

. अतिक्रमण के कारण:

  • जनसंख्या विस्फोट और प्रवास
    उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल आदि से बड़ी संख्या में प्रवासी मज़दूर तराई क्षेत्र में बसने लगे हैं। भूमि की मांग के अनुपात में नियोजन नहीं होने से अतिक्रमण को बढ़ावा मिला।
  • राजनीतिक संरक्षण
    अतिक्रमणकारी अक्सर वोट बैंक बन जाते हैं। स्थानीय पार्षद, विधायक, और नेताओं के संरक्षण में अस्थायी बस्तियाँ स्थायी रूप ले लेती हैं।
  • प्रशासनिक निष्क्रियता और भ्रष्टाचार
    तहसीलदार, लेखपाल, नगर निगम अधिकारी अतिक्रमण की जानकारी होते हुए भी कार्रवाई नहीं करते या उल्टा भूमि आवंटन में घपले करते हैं।

सरकार को हो रहा आर्थिक नुकसान:

  • भू-राजस्व में घाटा:
    अतिक्रमित भूमि से सरकार को राजस्व नहीं मिलता। हर वर्ष सरकार को अनुमानित 500 करोड़ से अधिक का नुकसान सिर्फ भू-राजस्व के रूप में होता है।
  • विकास कार्यों में बाधा:
    अतिक्रमण के कारण सड़क, नालों, स्कूलों, स्वास्थ्य केंद्रों आदि की परियोजनाएं लंबित हो जाती हैं।

    उदाहरण: रुद्रपुर में प्रस्तावित बाईपास मार्ग पिछले 7 वर्षों से अतिक्रमण के कारण अधर में है।

  • न्यायिक विवादों का खर्च:
    कई मामलों में अतिक्रमण हटाने पर अदालतों में याचिकाएं लगती हैं जिससे प्रशासनिक और विधिक खर्च में इजाफा होता है।

. वर्तमान में सरकार की योजनाएं और प्रयास:

  • नजूल नीति 2022:
    राज्य सरकार ने नजूल भूमि पर वर्षों से बसे लोगों को मालिकाना हक देने की नीति घोषित की। परंतु यह नीति अक्सर असली जरूरतमंदों के बजाय रसूखदारों को फायदा पहुंचाती है।
  • PM स्वामित्व योजना का क्रियान्वयन:
    गांवों में भूमि का डिजिटल रिकॉर्ड तैयार करने की योजना से कुछ क्षेत्रों में स्पष्टता आई है, परंतु शहरों में इसका दायरा सीमित है।
  • नगर निकायों द्वारा अस्थायी हटाए अभियान:
    चुनाव पूर्व अतिक्रमण विरोधी अभियान चलाए जाते हैं, लेकिन इनका कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता।

. क्या होना चाहिए – सरकार के लिए रणनीतिक सुझाव:

i. भूमि सर्वेक्षण और GIS मैपिंग का विस्तार:

हर जिले की सरकारी भूमि का GIS आधारित नक्शा तैयार कर ऑनलाइन सार्वजनिक करना होगा ताकि किसी भी अतिक्रमण की पहचान समय रहते हो सके।

ii/. विशेष भूमि ट्राइब्यूनल की स्थापना:

एक स्वतंत्र भूमि न्यायाधिकरण बनाया जाए जो तेजी से विवादों का निपटारा करे।

iii. भूमि बैंक की अवधारणा लागू करें:

सरकारी भूमि को “लैंड बैंक” के रूप में संरक्षित किया जाए ताकि भविष्य की परियोजनाओं के लिए उसका उपयोग हो।

iv. पुनर्वास नीति में पारदर्शिता:

जहाँ अतिक्रमण करने वालों में वास्तविक गरीब शामिल हैं, उन्हें पुनर्वास देना चाहिए, परंतु बिचौलियों और अपराधियों को सख्ती से बाहर करना होगा। अतिक्रमण विरोधी कानून को सख्त बनाना:
IPC की धारा 447 और राजस्व अधिनियम के तहत कठोर दंडात्मक प्रावधान लाए जाएं, जिससे सरकारी भूमि पर अतिक्रमण करने वालों को जेल और जुर्माना दोनों हो।

जनजागरूकता और सहभागिता की जरूरत:
सरकार को “सरकारी ज़मीन आपकी है” जैसे अभियान चलाकर आम लोगों को जागरूक करना चाहिए कि सरकारी भूमि राष्ट्र की संपत्ति है। नगर निकायों, स्कूली पाठ्यक्रमों, और पंचायत स्तर पर इस विषय को उठाया जाना चाहिए।

मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ताओं की भूमिका:
मीडिया संस्थानों को चाहिए कि वे अतिक्रमण को उजागर करने वाले जमीनी रिपोर्ट प्रकाशित करें। साथ ही, सामाजिक कार्यकर्ताओं और RTI कार्यकर्ताओं को भी स्थानीय भूमि घोटालों की परतें खोलने में सहयोग करना चाहिए

अतिक्रमण केवल भूमि की चोरी नहीं, बल्कि विकास के संसाधनों की हत्या है। उत्तराखंड की तराई अब भ्रष्टाचार, अव्यवस्था और राजनीतिक लाभ के अतिक्रमण जाल में फंसती जा रही है। समय आ गया है कि राज्य सरकार इस पर निर्णायक कार्रवाई करे—अन्यथा आने वाले वर्षों में “देवभूमि” की यह धरती “कब्जा भूमि” बन जाएगी।

रुद्रपुर में आस्था की आड़ में जमीन हड़पने का खेल,रुद्रपुर, उत्तराखंड की आर्थिक राजधानी होने के साथ-साथ अब धार्मिक आस्था की आड़ में जमीन कब्जाने का अड्डा बनता जा रहा है। शहर के विभिन्न क्षेत्रों में करोड़ों रुपये की कीमत वाली सार्वजनिक और निजी जमीनें जनप्रतिनिधियों, तथाकथित समाजसेवियों और धार्मिक संगठनों की मिलीभगत से खुर्द-बुर्द की जा रही हैं।खास बात यह है कि यह सबकुछ “धार्मिक स्थल निर्माण” या “धार्मिक जनभावनाओं” के नाम पर किया जा रहा है, ताकि जनता की आंखों में धूल झोंकी जा सके और प्रशासन दबाव में आ जाए। कई मामलों में तो सरकारी जमीन पर बिना अनुमति के मजारें, मंदिर या आश्रम बनाए गए हैं और बाद में उन्हीं को वैधता दिलाने के लिए राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल हुआ है।

सूत्रों की मानें तो शहर के आसपास की कई बहुमूल्य जमीनें आज ऐसे ही तथाकथित धार्मिक ट्रस्टों के नाम दर्ज हैं, जिनके पीछे समाजसेवा का मुखौटा लगाए भू-माफिया सक्रिय हैं। इनका मकसद आस्था नहीं, व्यवसाय और प्रभाव का विस्तार है।

प्रशासन की निष्क्रियता और राजनैतिक संरक्षण के कारण यह सिलसिला थमने की बजाय बढ़ता जा रहा है। यदि समय रहते इस पर सख्त कार्रवाई नहीं हुई तो रुद्रपुर में धार्मिक आस्था के नाम पर अतिक्रमण और जमीन हड़पने का यह खेल शहर के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा सकता है।


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