
देहरादून। भारत की प्राचीन सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत को अंतरराष्ट्रीय मंच पर मान्यता मिलना हर भारतीय के लिए गर्व की बात है। विख्यात रंगकर्मी, विचारक और मेघदूत नाट्य संस्था के संस्थापक एस.पी. ममगाईं ने भरतमुनि कृत नाट्य शास्त्र को यूनेस्को के Memory of the World Register में स्थान मिलने पर हर्ष और संतोष व्यक्त करते हुए इसे “देर से उठाया गया सही कदम” कहा है।


शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)संवाददाता
उन्होंने कहा कि नाट्य शास्त्र केवल fएक ग्रंथ नहीं, बल्कि भारतीय ज्ञान परंपरा की वह अमूल्य धरोहर है जिसे सदियों से पंचम वेद का दर्जा प्राप्त है। 36 अध्यायों और नौ रसों से समृद्ध यह ग्रंथ उस युग की रचना है जब दुनिया कबीलाई अवस्था में थी और भारत आत्मबोध और सृजनशीलता के चरम पर था।
एस.पी. ममगाईं ने इसे प्रदर्शन कलाओं की विश्व में पहली व्यवस्थित पद्धति करार देते हुए कहा कि यह ग्रंथ भारतीय वाङ्मय और वेदों के सार को दृश्य-श्रवण माध्यमों से प्रस्तुत करने का प्रथम वैश्विक प्रयास था। “यह एक ऐसी विधा है, जिसने ज्ञान, कला और अध्यात्म को एक साथ मंच पर साकार किया,” उन्होंने कहा।
18 अप्रैल 2025 को भगवद्गीता और नाट्य शास्त्र को यूनेस्को की इस विशिष्ट सूची में शामिल किया गया, जो कि भारतीय संस्कृति के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुनः प्रतिष्ठित होने की ओर एक अहम संकेत है। ममगाईं ने कहा, “देश के अमृत काल में यह एक ऐतिहासिक उपलब्धि है। यह वह क्षण है जब भारत की कला और चिंतन परंपरा को विश्व रंगमंच पर न्याय मिल रहा है।”
उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि भारत की अनेक ग्रंथ संपदाएं आज भी यूनेस्को की बाट जोह रही हैं। “पश्चिम ने सदियों तक भारत की सांस्कृतिक बौद्धिकता को या तो नजरअंदाज किया या उसका अपहरण किया, लेकिन अब समय बदल रहा है,” उन्होंने कहा।
नाट्य शास्त्र की निरंतर प्रासंगिकता पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा, “यह ग्रंथ ऐसा है जिस पर शताब्दियों तक टीकाएं लिखी गईं और यह क्रम आज भी जारी है। इससे इसकी कालातीत महत्ता सिद्ध होती है।”
श्री ममगाईं ने इसे भारतीय रंगमंच, नाट्यकला और सांस्कृतिक चेतना के लिए प्रेरणास्पद उपलब्धि बताया और उम्मीद जताई कि इससे नई पीढ़ी भी भारतीय परंपरा से जुड़कर गौरव अनुभव करेगी।
यह खबर केवल एक मान्यता की नहीं, बल्कि उस आत्मगौरव की भी है जो हर संवेदनशील भारतीय को अपनी परंपरा के पुनर्जीवन से मिलता है। यूनेस्को का यह निर्णय न केवल भारतीय नाट्यकला की गरिमा बढ़ाता है, बल्कि पूरी मानवता को भारत के सांस्कृतिक खजाने की ओर पुनः आकर्षित करता है।
