उत्तराखंड के हल्द्वानी की एक घटना से यह साफ है कि व्यवस्था के स्तर पर अस्पतालों का प्रबंधन या तो घोर लापरवाही बरतता या फिर जानबूझ कर अनदेखी करता है। दूसरी ओर, अस्पताल से बाहर एक ऐसा तंत्र खड़ा होता है, जिसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि किसी पीड़ित के सिर पर दुख का कैसा पहाड़ टूट पड़ा है और वह किस स्तर के अभाव की मार से जूझ रहा है।

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शव घर ले जाने के लिए 10-12 हजार की थी मांग

गौरतलब है कि हल्द्वानी में एक युवक की तबीयत खराब हुई और इसके बाद राजकीय मेडिकल कालेज में उसे मृत घोषित कर दिया गया। उसकी बहन के सामने अब शव ले जाने की चुनौती थी और शवगृह से बाहर खड़े एंबुलेंस वालों ने दस-बारह हजार रुपए की मांग की। किराया कम करने के लिए काफी विनती के बाद भी कोई तैयार नहीं हुआ। आखिर महिला को अपने भाई के शव को एक वाहन की छत पर सामान की तरह बांध कर अपने गांव ले जाना पड़ा।

प्रिंट मीडिया,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर

अस्पताल प्रशासन की व्यवस्था पूरी तरह लचर

मामले के संज्ञान में आने के बाद जब जांच की बात आई तो अस्पताल प्रशासन ने लचर सफाई दी कि यह अस्पताल से बाहर का मामला था। सवाल है कि अस्पताल में किसी की मौत के बाद शव ले जाने का इंतजाम उसकी जिम्मेदारी में शामिल क्यों नहीं है। उपेक्षा के शिकार गरीब लोग अपनी जरूरत की बात कहने में भी किस हद तक सिमटे होते हैं, यह छिपी बात नहीं है।

संवेदनहीनता की सारी हदों को पार करने वाली ऐसी घटनाएं यही बताती हैं कि व्यवस्था के स्तर पर स्वास्थ्य महकमे के दावे महज हवा-हवाई हैं, वहीं आम जिंदगी में लोग सबसे नाजुक मौकों पर भी मुनाफे के लालच में क्रूर हो जा रहे हैं। ऐसी स्थितियों की पीड़ा उन्हें शायद तभी समझ में आएगी, जब इस तरह के अभाव और दुख का सामना खुद उन्हें करना पड़ेगा।

मुफ्त इलाज के दावे की खुली पोल

देश भर में पिछले कुछ वर्षों से स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए तमाम उपाय किए जाने से लेकर अलग-अलग योजनाओं के तहत समाज के सबसे कमजोर तबकों को मुफ्त इलाज मुहैया कराने के दावे किए जा रहे हैं। इन दावों की हकीकत अक्सर उजागर होती रही है, जब किसी गरीब परिवार को जरूरत पड़ने पर अस्पताल जाना पड़ता है।


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