हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक मार्च 2010 में, राज्यसभा ने संविधान (108वां संशोधन) विधेयक, 2008 पारित किया था. लेकिन यह कानून लोकसभा से पारित नहीं हो सका. वर्तमान विधेयक संसद के दोनों सदनों में पारित हो जाएगा इस बात की पूरी उम्मीद है, क्योंकि आंकड़े भाजपा नीत सत्ताधारी गठबंधन के पक्ष में हैं. लेकिन इसे लागू होने में कुछ समय लग सकता है.
लोकसभा में पेश हुआ बिल क्या कहता है? यह किस तरह से 13 साल पहले राज्यसभा द्वारा पारित विधेयक के समान या उससे भिन्न है?
संविधान (128वां संशोधन) विधेयक 2023 के अनुसार, ‘लोकसभा में सीधे चुनाव द्वारा भरी जाने वाली सीटों की कुल संख्या में से एक तिहाई (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों सहित) महिलाओं के लिए आरक्षित की जाएगी.’ विधेयक राज्यों और दिल्ली में विधानसभाओं के लिए समान प्रावधान का प्रस्ताव करता है. पिछले विधेयक की तरह, संविधान (128वां संशोधन) विधेयक 2023 संविधान में नए अनुच्छेद- 330ए और 332ए- शामिल करने का प्रस्ताव करता है. ये नए प्रावधान क्रमशः लोकसभा और विधानसभाओं के लिए बदलाव पेश करेंगे. 2010 के विधेयक की तरह, वर्तमान विधेयक में भी एक खंड है, जिसमें कहा गया है कि आरक्षण अधिनियम के प्रारंभ होने की तारीख से 15 वर्ष की अवधि के लिए होगा. हालांकि, 2010 और वर्तमान विधेयक के बीच मुख्य अंतर यह है कि 2023 का विधेयक महिला आरक्षण के कार्यान्वयन को परिसीमन प्रक्रिया पर निर्भर बनाता है.
इस बात की पूरी उम्मीद है कि यह विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा जल्दी ही पारित हो जाएगा, शायद चल रहे विशेष सत्र में ही. तो इसके कितनी जल्दी प्रभाव में आने की उम्मीद की जा सकती है?
विधेयक में कहा गया है: ‘इस भाग या भाग VIII के पूर्वगामी प्रावधानों के बावजूद, लोकसभा, राज्य की विधानसभाओं और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधानसभा में महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण से संबंधित संविधान के प्रावधान, संविधान (128वां संशोधन) विधेयक 2023 के प्रारंभ होने के बाद ली गई पहली जनगणना के प्रासंगिक आंकड़े प्रकाशित होने के बाद इस उद्देश्य के लिए परिसीमन की कवायद शुरू होने के बाद प्रभाव में आएगा. और अपनी प्रारंभ की तारीख से 15 वर्ष की अवधि की समाप्ति के बाद इसका प्रभाव समाप्त हो जाएगा.’ विधेयक में कही गई इस बात का मतलब हुआ कि 2029 के आम चुनाव से पहले लोकसभा में महिला आरक्षण प्रभावी ढंग से लागू नहीं हो पाएगा. 42वें संशोधन ने 2000 के बाद पहली जनगणना के परिणाम प्रकाशित होने तक परिसीमन प्रक्रिया को रोक दिया था.
2001 में इसे 25 साल के लिए और बढ़ा दिया गया था. और अब 2026 के बाद पहली जनगणना के नतीजे आने के बाद परिसीमन की प्रक्रिया शुरू होगी. सामान्य तौर पर, इसका मतलब यह होगा कि परिसीमन 2031 की जनगणना के परिणाम प्रकाशित होने के बाद ही होगा. लेकिन अब जबकि कोविड-19 महामारी के कारण 2021 की जनगणना में देरी हो गई है, परिसीमन की टाइमलाइन में बदलाव किया जा सकता है. अभी के जो हालात हैं, उसके मुताबिक जनगणना 2021 की प्रक्रिया अब जल्द से जल्द 2025 में शुरू होने की उम्मीद की जा सकती है- घरों की सूची बनाने की प्रक्रिया 2024 में, उसके बाद 2025 में वास्तविक जनगणना होगी. इसके बाद, जनगणना आंकड़ों के प्रकाशन में एक या दो साल लग सकते हैं. यदि 2021 की जनगणना के नतीजे 2026 के बाद प्रकाशित होते हैं, तो यह निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन का आधार बन सकता है.
पहली बार में और बाद में आरक्षित सीटों की पहचान कैसे की जाएगी?
विधेयक में कहा गया है कि संसद और राज्य विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी. यह विधेयक सरकार को इसके कार्यान्वयन के लिए कानून बनाने की शक्ति प्रदान करेगा. इसलिए, यह उम्मीद की जाती है कि सीटों का निर्धारण एक अलग कानून द्वारा किया जाएगा जिसे सरकार पेश करेगी. हालांकि, यहां यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि जब यूपीए ने 2010 में संविधान में संशोधन करने का प्रयास किया था, तो उसके संशोधन विधेयक में यह पहचानने की विधि भी निर्दिष्ट नहीं थी कि महिलाओं के लिए कौन सी सीटें अलग रखी जाएंगी.
हालांकि, उस समय सरकार ने प्रस्ताव दिया था कि महिलाओं के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों को ड्रा के माध्यम से प्राप्त किया जाएगा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि लगातार तीन चुनावों में कोई भी सीट एक से अधिक बार आरक्षित न हो. एनडीए-III सरकार के विधेयक में आरक्षित सीटों के रोटेशन का भी प्रस्ताव है. चूंकि विधेयक मंगलवार को लोकसभा में पेश किया गया था, और विधेयक पर बहस आज शुरू होगी, यह स्पष्ट नहीं है कि मोदी सरकार वास्तव में 33% सीटों की पहचान कैसे करने का इरादा रखती है.
वर्तमान में एससी और एसटी के लिए आरक्षित सीटें कैसे तय की जाती हैं?
परिसीमन अधिनियम, 2002 सीटों को आरक्षित करने के लिए व्यापक सिद्धांत बताता है. अधिनियम के तहत नियुक्त परिसीमन आयोग जनसंख्या के आधार पर आरक्षित किए जाने वाले संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या तय करने के लिए जिम्मेदार है. परिसीमन अधिनियम, 2002 की धारा 9 (1) (सी) कहती है, ‘जिन निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति के लिए सीटें आरक्षित हैं, उन्हें राज्य के विभिन्न हिस्सों में वितरित किया जाएगा और जहां तक संभव हो, उन क्षेत्रों में स्थित किया जाएगा, जहां कुल आबादी में उनकी आबादी का अनुपात तुलनात्मक रूप से बड़ा है.’ इसी तरह, अनुसूचित जनजातियों के लिए, अधिनियम कहता है: ‘वे निर्वाचन क्षेत्र जिनमें अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित हैं, जहां तक संभव हो, उन क्षेत्रों में स्थित होंगे जहां कुल आबादी में उनकी आबादी का अनुपात सबसे बड़ा है.’
महिला आरक्षण की योजना को क्रियान्वित करने के लिए किन संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता होगी?
परिसीमन के लिए – जो आरक्षण के कार्यान्वयन के लिए एक पूर्व शर्त है – संविधान के अनुच्छेद 82 और 170(3) में संशोधन करना होगा. अनुच्छेद 82 प्रत्येक जनगणना के बाद लोकसभा और राज्य विधानसभाओं दोनों के निर्वाचन क्षेत्रों (संख्या और सीमाओं) के पुन: समायोजन का प्रावधान करता है. अनुच्छेद 170(3) विधान सभाओं की संरचना से संबंधित है.
पंचायती राज संस्थाओं और शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण कैसे काम करता है?
संविधान के अनुच्छेद 243डी में पंचायतों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण का प्रावधान है. इसमें कहा गया है कि इस भाग की कोई भी बात किसी राज्य की विधायिका को नागरिकों के पिछड़े वर्गों के पक्ष में किसी भी स्तर पर किसी भी पंचायत में सीटों या पंचायतों में अध्यक्ष पद के आरक्षण के लिए कोई प्रावधान करने से नहीं रोकेगी. अनुच्छेद 243डी के प्रावधानों के अनुसार, एससी और एसटी के लिए आरक्षित सीटों की कुल संख्या में से एक तिहाई से कम सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित नहीं होंगी.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 8 सितंबर, 2021 तक, कम से कम 18 राज्यों उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, असम, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, ओडिशा, केरल, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, मणिपुर, तेलंगाना, सिक्किम, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश में पंचायती राज संस्थानों में महिला निर्वाचित प्रतिनिधियों का प्रतिशत 50 प्रतिशत से अधिक था. महिला प्रतिनिधियों का उच्चतम अनुपात उत्तराखंड (56.02 प्रतिशत) में था और सबसे कम उत्तर प्रदेश (33.34 प्रतिशत) में था. कुल मिलाकर, देश में पंचायती राज संस्थाओं में 45.61 प्रतिशत महिला प्रतिनिधि थीं.